नई दिल्ली: रामचरितमानस पर सवाल उठाए जा रहे हैं लेकिन नेता यह भी कह रहे हैं कि वे ग्रंथ के खिलाफ नहीं हैं। इस समय यूपी में गजब की सियासी स्थिति तैयार हो गई है। धर्मग्रंथ का मर्म संत या साधु नहीं, सत्ता के लिए आसन बदलने वाले नेता समझा रहे हैं। सपा के स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस पवित्र ग्रंथ के बारे में जो भी कहा, वह अब विवाद का रूप धारण कर चुका है। पार्टी के चीफ अखिलेश यादव भी स्वामी के समर्थन में उतर आए हैं। अब उन्होंने सीएम योगी आदित्यनाथ को ही चुनौती दे दी है। उन्होंने कहा कि मैं मुख्यमंत्री जी से कहूंगा कि वह एक बार वो चौपाई पढ़कर सुना दें…। जैसे-जैसे उनका बयान सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है, लोगों में उस चौपाई के बारे में जानने की इच्छा है। उसके बाद आपको पता चलेगा कि अखिलेश ने यूं ही योगी पर ‘चौपाई बाण’ नहीं छोड़ा? पहले जान लीजिए स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा क्या था। उन्होंने सरकार से इस ग्रंथ पर बैन लगाने की मांग कर डाली है।
दलितों का अपमान… स्वामी ने क्या-क्या कहा
स्वामी ने कहा, ‘रामचरितमानस में आपत्तिजनक अंश है। इसमें महिलाओं, दलितों का अपमान किया गया है।’ उन्होंने रामचरितमानस को ग्रंथ मानने से भी इनकार कर दिया। स्वामी ने कहा, ‘कई ऐसे मौके आए हैं जब तुलसी कृत रामचरितमानस में इस बात का जिक्र आया है, जहां पर जातियों को इंगित करते हुए अपमानित करने की बात की गई है। जे बरनाधम तेलि कुम्हारा… पढ़ते हुए स्वामी ने सवाल किया कि अगर ये भी हिंदू समाज की जातियां हैं तो कैसा ये हिंदू धर्म है जो अपने ही समाज के लोगों को गाली दे रहा है।’ उन्होंने कहा कि ऐसे आपत्तिजनक तथ्य जो किसी वर्ग, जाति विशेष को अपमानित करते हैं उसे प्रतिबंधित किया जाए।
धर्म ग्रंथ के खिलाफ कोई नहीं है, न मैं हूं। भगवान श्रीराम के खिलाफ कोई नहीं है। रामचरितमानस के खिलाफ कोई नहीं है… मैंने कहा है कि योगी जी एक बार वह चौपाई पढ़कर सुना दें।
अखिलेश यादव
अखिलेश यादव का चैलेंज
बहस शुरू हुई तो भाजपा और दूसरे दलों के नेता बरस पड़े। मामला गरमाया तो पूर्व मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी आगे आ गए। उन्होंने कहा कि बीजेपी के लोग दलित को शूद्र मानते हैं। अखिलेश ने आगे कहा कि धार्मिक ग्रंथ के खिलाफ कोई नहीं है, न मैं खिलाफ हूं। भगवान श्रीराम के खिलाफ कोई नहीं है। रामचरितमानस के खिलाफ कोई नहीं है, लेकिन मैंने कहा है कि वह (सीएम योगी) एक बार वो चौपाई हमें पढ़कर सुना दें। क्या वह पढ़कर सुना सकते हैं? मैं मुख्यमंत्री जी से पूछने जा रहा हूं कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं। उन्होंने कहा कि कल मैं मंदिर में दर्शन करने जा रहा था, बीजेपी और आरएसएस के लोगों ने गुंडागर्दी नहीं की? अखिलेश ने कहा कि मुख्यमंत्री अगर योगी न होते, वह धार्मिक स्थान से न आए होते तो वह सवाल शायद मैं न पूछता, लेकिन क्योंकि वह योगी हैं और धार्मिक स्थान से उठकर सदन में आए हैं। इसलिए पूछा जा रहा है।
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जनता जानती है कि राजनीति में जब मुद्दे नहीं मिलते, तब बहुत से विवाद पैदा किए जाते हैं। बहुत से लोग हैरान होंगे कि रामचरितमानस की कथा और उसका अर्थ तो संत-साधु, संन्यासी, ज्ञानी, महापुरुष सुनाते हैं, राजनीति में इसे क्यों लपेटा जा रहा है? तुलसीदास जी ने जो लिखा है उसका असली अर्थ तो संत ही बता सकते हैं पर नेता उसके शब्दों को क्यों उछाल रहे हैं। रोचक यह है कि दलित हितैषी बनने के चक्कर में हिंदू समाज नाराज न हो इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि वे धर्मग्रंथ के खिलाफ नहीं हैं। ये चौपाइयां तो सैकड़ों साल से हैं लेकिन आज उसका विरोध क्यों हो रहा है? ऐसे बहुत से सवाल सोशल मीडिया से लेकर लोगों के जेहन में हैं। यूपी में दलितों की आबादी 20 फीसदी से अधिक है। 2024 से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य ने मोर्चा खोल दिया है। कुछ लोग इसे शिगूफा छोड़कर विवाद पैदा करने की कोशिश मान रहे हैं। आइए जानते हैं कि इस समय चर्चित वो दो चौपाइयां क्या हैं, और उसके अर्थ क्या निकाले जाते हैं।
सबसे पहले यह जान लीजिए कि तुलसीदास ने अवधी में रामचरितमानस की रचना की थी। उन्होंने संस्कृत, उर्दू और फारसी शब्दों का भी प्रयोग किया है।
चौपाई नंबर 1-
ढोल गंवार सूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी
दलित हितैषी बनने वाले लोग इस चौपाई का अर्थ कुछ ऐसे निकालते हैं कि शूद्र और नारी के खिलाफ अपमानजनक बात कही गई है। जबकि दूसरा वर्ग कहता है कि एक शब्द के कई मायने होते हैं। ‘ताड़ना’ का मतलब पीटना नहीं बल्कि नजर रखना या शिक्षा देना होता है। पहले भी कई दलित और महिला संगठन आक्रोश जताते रहे हैं। ऐसे में धर्मग्रंथ के जानकार समझाते हैं कि वैदिक वर्ण व्यवस्था में शूद्र का मतलब समाज के सेवक से था। जो भी व्यक्ति सहायता या सेवा करता था, उसे इस श्रेणी में रखा जाता था। इसमें आज के सभी नौकरीपेशा और वर्कर आ जाएंगे। लोग भूल जाते हैं कि भगवान राम क्षत्रिय थे लेकिन केवट को गले लगाया था और शबरी के जूठे बेर खाए थे।
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तुलसी ने अवधी में लिखा है इसलिए शब्दों का अर्थ और भावार्थ अलग हो सकता है। सुंदरकांड में वह लाइन आती है।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही, मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी
इसमें समुद्र देव भगवान राम से कहते हैं- प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी पर जीवों का स्वभाव (मर्यादा) भी तो आपका बनाया है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
चौपाई नंबर 2-
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी
इस चौपाई का जिक्र स्वामी प्रसाद मौर्य ने किया और अपनी व्याख्या सामने रख दी। गूगल ट्रांसलेट के समय की आज की पीढ़ी को यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि शब्दों का इतना सीधा अर्थ नहीं होता है। उत्तरकांड की इस चौपाई का अर्थ भी जानकार बताते हैं, ‘यह चौपाई मूल रूप से संन्यास के विषय में कही गई है। इसमें जाति, समुदाय या धर्म की बात नहीं है। संन्यास का मतलब यह होता है कि भरापूरा परिवार त्याग कर संन्यास लिया जाए। यह उत्तम संन्यास है न कि संपत्ति के नाश होने पर, पत्नी की मृत्यु होने पर, वैराग्य उत्पन्न हो और तब संन्यास लिया जाए। यह अनुचित है। यह संन्यास नहीं है। अक्सर तेली, कुम्हार, चंडाल, भील, कोल, कलवार ये वर्णों में नीचे की स्थिति में (न कि नीच) ये अक्सर यह कार्य करते हैं।’ ग्रंथ के ज्ञाता बताते हैं कि वैसे, संन्यास किसी के लिए वर्जित नहीं है। संन्यास सभी जाति, धर्म के लिए उत्तम है।
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अब विवाद का सियासी ऐंगल समझिए। अखिलेश इतने जोश से योगी को इसलिए चैलेंज कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि योगी कभी भी खुलेआम यह चौपाई कहने से परहेज करेंगे। भले ही इसका एक सही अर्थ बताया जाता हो पर दूसरा वर्ग इसे स्वीकार नहीं करेगा और अपना अर्थ ही सामने रखेगा। ऐसे में सियासी नुकसान से इनकार नहीं किया जा सकता। जिस तरह से एक समय आरक्षण की चर्चा को सियासी गलियारों में तूल दिया गया था, उसी तरह से रामचरितमानस विवाद को भड़काया जा रहा है। यूपी के सियासी एक्सपर्ट कह रहे हैं कि यह बसपा के वोट बैंक को खींचने की रणनीति भी हो सकती है, जो काफी समय से लाइमलाइट से दूर है। खैर, जो भी वजह हो पर अच्छा यही होगा कि धर्मग्रंथ पर राजनीति न हो और जो भी भ्रम पैदा हो उसके समाधान के लिए संतों के पास जाया जाए। ग्रंथों पर अनुसंधान और अध्ययन उन्हीं का ज्यादा है, नेताओं का नहीं।
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