कौशांबी: शांति के मसीहा भगवान बुद्ध की नगरी कौशांबी में एक ऐसी भी शख्सियत है, जो धर्म से मुसलमान है, लेकिन कर्म से वह संस्कृत भाषा का पुजारी। लोग उन्हें हयात उल्ला “चतुर्वेदी” नाम से जानते हैं। करीब 80 साल के इस बुजुर्ग की रगों में आज भी संस्कृत भाषा को फैलाने का ऐसा जज्बा है कि 18 साल का युवक भी उनकी ऊर्जा के आगे बौना दिखाई पड़ता है।
चायल तहसील के हर्रायपुर गांव में रहने वाले हयात उल्ला का जन्म 23 दिसंबर 1942 को बेहद गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। हयात उल्ला के पिता स्व. बरकत उल्ला खेती करते थे। मां मरहूम खलील नून निशा गृहणी थीं। 10 बीघे जोत वाली जमीन पर पिता ने खेती कर हयात को पढ़ा-लिखा कर अच्छी परवरिस दी। माता-पिता की अकेली संतान हयात ने प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर जब जूनियर की पढ़ाई का रुख किया तो गांव में स्कूल न होने की समस्या सामने थी। पिता ने आगे पढ़ाई के लिए घर से मीलों दूर चरवा ग्राम सभा में बने जूनियर हाईस्कूल में दाखिला करा दिया।
पिता ने बढ़ाया हौसला
आदर्श ग्राम सभा जूनियर हाईस्कूल चरवा में दाखिला लेने के बाद हयात ने धर्म विरुद्ध फैसला कर अपने परिवार के लोगों को हैरान कर दिया। उर्दू की जगह संस्कृत की पढ़ाई का विरोध मां और दूसरे रिस्तेदारों ने किया, लेकिन पिता बरकत उल्ला ने बेटे हयात का हौसला बढ़ाया और संस्कृत की पढ़ाई जारी रखने में मदद की। इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने स्नातक तक संस्कृत की पढाई इलाहाबाद विश्व विद्यालय से की। मास्टर डिग्री संस्कृत भाषा में वह सीट कम होने के कारण नहीं ले सके। हिंदी भाषा से मास्टर डिग्री इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से हासिल की। हयात शिक्षा स्नातक (बीएड) भी हैं। नेहरू स्मारक शिक्षण संस्थान ने उन्हें संस्कृत में चतुर्वेदी की उपाधि प्रदान की है, जिसके बाद से हयात उल्ला के नाम के बाद “चतुर्वेदी” टाइटल जुड़ गया।
‘संस्कृत पढ़ने वाले बच्चों से नहीं लेते हीं फीस’
धर्म से मुसलमान हयात पांचों वक्त के नमाजी हैं। वह आज भी पूरी शिद्दत से नमाज अता करते हैं। रमजान के महीने में रोजा रखते हैं। पढाई के दौरान जब से उन्होंने संस्कृत भाषा का दामन पकड़ा तो उसे आज भी उन्होंने नहीं छोड़ा है। पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने संस्कृत भाषा ने ही उन्हें गुरु की पदवी दिलाई और वह प्रयागराज के सल्लाहपुर स्थित सलीम शेरवानी इंटर कालेज में बतौर लेक्चरर नौकरी करने लगे। तकरीबन 30 सालों तक संस्कृत का ज्ञान बच्चों में बताने के बाद मौजूदा समय में वह कॉलेज से रिटायर हो चुके हैं। लगभग 20 साल पहले रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने उम्र को कभी अपने जिस्म और जेहन पर हावी नहीं होने दिया। नतीजा यह है कि 80 साल के इस जोशीले युवा में आज भी संस्कृत के प्रति उतना ही प्रेम दिखाई पड़ता है, जितना की संस्कृत भाषा की शिक्षा प्राप्ति के दौरान उनके दिलों दिमाग पर था। हयात उल्ला आज भी संस्कृत भाषा को पढ़ाने के लिए काफी लालाइत दिखाते हैं। उम्र की इस दहलीज पर पहुंचने के बाद भी वह मौजूदा समय में अपने आसपास के बच्चों और स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा देने के लिए जाते हैं, जिसके लिए वह स्कूल या कहीं भी पढ़ने वाले बच्चों से कोई फीस नहीं लेते हैं।
‘मदरसों में पढ़ाई जाए संस्कृत’
हयात उल्ला चतुर्वेदी ने बताया कि उन्होंने संस्कृत से इतना सम्मान हासिल किया है, जितना की शायद ही किसी मुस्लिम को मिला होगा। इसके आलावा संस्कृत पढ़ने से उन्हें वेद, वेदांत, उपनिषद् आदि ग्रन्थ पढ़ने को मिला, जिससे उन्हें इस्लाम को समझने में मदद मिली है। हयात उल्ला चतुर्वेदी यह भी बताते हैं कि वह भले ही रिटायर्ड हो गए हों, लेकिन आज भी उनकी जिस्म में संस्कृत ही समाई है। रगों में संस्कृत ही बहती और दौड़ती है। वह अपनी आखिरी सांस तक संस्कृत की सेवा करते रहेंगे। वह चाहते हैं कि भारत सरकार संस्कृत को मदरसों में लागू करे।
रिपोर्ट- अशोक विश्वकर्मा
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