लखनऊ: उत्तर प्रदेश में 17 साल से अनुसूचित जाति और ओबीसी श्रेणी के बीच 17 जातियां झूल रही हैं। मुलायम सिंह यादव ने ओबीसी जाति को पाले में लाने के लिए वर्ष 2004 में अलग रणनीति पर काम शुरू किया। निषाद-केवट समेत 17 जातियों को ओबीसी श्रेणी से निकाल कर अनुसूचित जाति श्रेणी में शामिल करने कवायद शुरू की गई। अधिसूचना जारी हुई और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दिया। 2005 में कार्यपालिका और न्यायपालिका आमने-सामने आई। इसके बाद मुलायम सरकार ने कदम पीछे खींचे। गेंद केंद्र के पाले में डाल दिया। बाद की मायावती सरकार ने दलितों के आरक्षण की सीमा 21 से 25 फीसदी कर अलग ही खेल कर दिया। इसके बाद अखिलेश यादव की सरकार ने वर्ष 2016 में नई अधिसूचना जारी की। खेल करीब 13 से 14 फीसदी वोट वोट बैंक को अपने पाले में लाने का था। 21-22 दिसंबर 2016 को अधिसूचना जारी की गई। एक बार फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगाई। इसके बाद 24 जून 2019 को योगी आदित्यनाथ सरकार की ओर से हाई कोर्ट के आदेश का संदर्भ देते हुए अधिसूचना जारी कर दी। बुधवार 31 अगस्त को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2016 और 2019 में जारी अधिसूचनाओं को रद्द करने का आदेश जारी कर दिया। ऐसे में कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी की सरकार की ओर से जो कवायद की गई थी, वह वोट बैंक को साधने की कोशिश थी। भाजपा सरकार इस पूरे मामले को अपने तरीके से हल कर सकती है। इसके लिए वर्ष 1950 की अधिसूचना प्रभावी हो सकती है। इसी अधिसूचना के आधार पर 16 दिसंबर 2013 को उत्तराखंड सरकार ने आरक्षण संवर्गों में बदलाव किया था। प्रदेश में इसको लेकर हल्ला भी नहीं मचा।
यूपी में हंगामा क्यों है बरपा?
उत्तर प्रदेश में ओबीसी की 18 जातियों को एससी श्रेणी में डालने के मामले में लगातार हंगामा मचता रहा है। मझवार, कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, धीमान, बाथम, तुरहा, गोडिया, मांझी और मछुआ जाति को एससी श्रेणी में डाले जाने का मामला है। इस मामले को गौर से देखेंगे तो आप पाएंगे कि यूपी की मुलायम सिंह यादव सरकार और फिर अखिलेश यादव सरकार ने जो कवायद की, वह सीधे तौर पर एक नई व्यवस्था को लागू किए जाने की तर्ज पर पेश किया गया। ऐसा लगा कि राज्य सरकार अपने स्तर पर नई आरक्षण व्यवस्था को लागू करने जा रही है। इसी ने सारा हंगामा खड़ा किया। वर्ष 2007 में मायावती जब दलित राजनीति की नाव पर सवार होकर यूपी की सत्ता में आईं तो उन्होंने दलित आरक्षण का स्तर 21 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करने का प्रस्ताव भेज दिया। मायावती ने 17 पिछड़ी जातियों को दलित श्रेणी में लाने के मुलायम सरकार के केंद्र को भेजे गए प्रस्ताव को खारिज करते हुए संशोधित प्रस्ताव भेज दिया। पूरा मामला ओबीसी बनाम दलित बनता चला गया। 2019 में योगी सरकार की ओर से जो अधिसूचना जारी की गई, उसमें पूर्व की अखिलेश सरकार की ही अधिसूचना को आधार बनाया गया।
यूपी सरकार की ओर से 18 ओबीसी जातियों को एससी सूची में डालने की अधिसूचना के साथ ही जाति प्रमाण पत्र भी जारी किए जाने का मामला गरमाया। मामला कोर्ट में था। योगी सरकार की ओर से न तो कोई नया प्रस्ताव तैयार किया गया। न ही कोर्ट में काउंटर एफिडेविट दायर किया गया। इसका कारण यह था कि सरकार जानती थी कि पूरी अधिसूचना ही गड़बड़ है। आप इलाहाबाद हाई कोर्ट में यूपी सरकार के महाधिवक्ता की ओर से दायर किए गए हलफनामे पर गौर करेंगे तो सबकुछ साफ हो जाएगा। महाधिवक्ता ने कहा है कि राज्य सरकार के पास जारी अधिसूचना को बरकरार रखने का कोई संवैधानिक आधार ही नहीं है। ऐसे में क्या भाजपा सरकार के पास कोई विकल्प नहीं बचता है। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो यह बिल्कुल गलत है। सरकार के पास 1950 की अधिसूचना का हथियार है, जिस पर खेल पलटा जा सकता है।
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क्या है 1950 की अधिसूचना?
भारतीय संविधान वर्ष 1950 में लागू किया गया। इसके तहत जातियों के वर्गीकरण की अधिसूचना जारी की गई। अनुसूचति जाति वर्ग की अधिसूचना के तहत स्पष्ट किया गया है कि देश में कौन-कौन सी जातियां एससी कोटि के दायरे में आती हैं। संविधान अनुसूचित जातियां आदेश 1950 पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि छुआछूत का शिकार रही जातियों को इस सूची में शामिल किया गया था। संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय संविधान में एससी कोटि में रखी गई जातियों के पीछे जेएच हट्टन कमेटी की रिपोर्ट प्रभावी रही है। दरअसल, अंग्रेजी शासनकाल के दौरान वर्ष 1931 में साइमन कमीशन ने भारत में अछूत जातियों के सर्वे का आदेश जारी किया। इसके तहत जेएच हट्टन को जनजातीय जीवन एवं प्रणाली के पूर्ण सर्वेक्षण की जिम्मेदारी सौंपी गई। हट्टन कमेटी ने देश की जातियों का सर्वे किया और 68 जातियों को अछूत की श्रेणी में रखा। अंग्रेजी सरकार ने इस रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के तहत 68 जातियों को विशेष दर्जा दिया। ये जातियां स्पेशल कास्ट यानी एससी कहलाईं। संविधान के निर्माण के बाद समाज के निचले तबके को मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण का प्रस्ताव किया गया। इसके तहत छुआछूत का शिकार जातियों को आरक्षण के दायरे में लाया गया। चूंकि ये जातियां संविधान के दायरे में आईं, इसलिए शेड्यूल कास्ट कहलाईं।
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हालांकि, केंद्र सरकार के निर्णय के साथ-साथ राज्यों में एससी श्रेणी को वहां की जातीय व्यवस्था के आधार पर तैयार करने का निर्देश दिया गया। इसके आधार पर राज्य सरकारों ने अपने यहां एससी कैटेगरी की जातियों का वर्गीकरण किया। हट्टन कमेटी की रिपोर्ट में निषाद, प्रजापति, कुम्हार, लोहार आदि जातियों को भी एससी श्रेणी में रखा गया था। इस रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1950 में भारत सरकार ने भी इन्हें यह दर्जा दे दिया। फिर 1961 की जनगणना हुई। इसमें राज्य सरकारों ने अपने यहां पर एससी कोटि में शामिल जातियों के बीच छुआछूत जैसी स्थिति का सर्वे किया और समाज की मुख्य धारा में आई कई जातियों को एससी सूची से बाहर कर दिया। वर्तमान समय में यूपी में एससी कोटि में 64 जातियां हैं। यूपी की आबादी में करीब 22 फीसदी हिस्सेदारी इस वर्ग की है। उन्हें 21 फीसदी आरक्षण का लाभ मिला हुआ है। उत्तराखंड सरकार ने संविधान अनुसूचित जातियां आदेश 1950 के तहत केंद्र सूची में शामिल एससी कोटि की जातियों को एक बार फिर अधिसूचित कर दिया।
उत्तराखंड सरकार की ओर से कोई नया आदेश जारी नहीं किया गया। वर्ष 1961 की जनगणना के बाद एससी श्रेणी में किए गए संशोधन आदेश को प्रदेश में लागू नहीं कराया गया। इसका लाभ प्रदेश की ओबीसी जातियों को मिला और वे एससी कोटि के दायरे में आ गई। सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को अछूत न मानकर एससी कोटि से बाहर किए जाने के मामले में किए गए संशोधन को सरकार ने नहीं माना। अगर यूपी में भाजपा सरकार भी संविधान के दायरे में आने वाली अनुसूचित जातियों की रिपोर्ट को प्रभावी कर दे तो फिर सारा विवाद ही खत्म हो जाएगा। निषाद, प्रजापति, कुम्हार, लोहार जैसी जातियां भी एससी के दायरे में एक बार फिर आ सकती हैं।
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ऐसे भी किया जा सकता है एससी कोटि में शामिल
1950 में संविधान लागू किए जाने के बाद एससी की सूची में संशोधन को लेकर केंद्र सरकार की ओर से एससी कमिश्नर की नियुक्ति की गई थी। जातियों की ओर से मांग आने के बाद कमिश्नर इसकी जांच कर अपनी रिपोर्ट देते थे। इस रिपोर्ट पर संसद की मुहर के बाद जाति को एससी कोटि में शामिल किया जाता था। वर्ष 1956 से 1992 तक यही व्यवस्था चली। मंडल कमीशन के बाद इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अब किसी भी जाति को एससी श्रेणी में शामिल किए जाने के लिए प्रक्रिया पूरी करनी होगी। वर्ष 2017 में तत्कालीन सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावर चंद्र गहलोत ने एक पत्र के जवाब में एससी कोटि का दर्जा दिए जाने के मामले की प्रक्रिया का विवरण दिया।
मंत्री ने बताया कि सरकार किसी भी जाति को एससी में शामिल करने के लिए प्रस्ताव पास कर केंद्र को भेजना होगा। रजिस्ट्रार ऑफ इंडिया एससी आयोग की सलाह पर इस संबंध में सलाह ली जाती है। ऐसे में अगर दोनों ही जगह से यह स्वीकृति मिल जाती है। सभी पैमाने को पूरा किए जाने के बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय संसद में संसोधन विधेयक पेश करती है। संसद से प्रस्ताव पास किए जाने के बाद राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू किया जा सकता है।
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