लखनऊ: ‘ज्ञानवापी (Gyanvapi Masjid Case) का मुद्दा चल रहा है। अब ऐसे मुद्दों का एक इतिहास तो है। उसे हम बदल नहीं सकते। उस इतिहास को हमने नहीं बनाया है। न आज के हिंदुओं ने बनाया न आज के मुसलमानों ने। यह उस समय घटा जब इस्लाम बाहर से भारत आया। आक्रामकों के हाथ आया। उस आक्रमण में भारत की स्वतंत्रता जाने वाले व्यक्तियों का मनोबल तोड़ने के लिए देवस्थान तोड़े गए। यह मुसलमानों के विरुद्ध सोचना नहीं है। …आज के मुसलमानों के उस समय के पूर्वज भी हिंदू थे। …रोज एक नया मामला नहीं उठाना चाहिए। हमें झगड़ा नहीं करना… अब हमको कोई आंदोलन नहीं करना है।’
नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग, तृतीय वर्ष 2002 समापन समारोह पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने भाषण के जरिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ रही तपिश को कुछ कम करने का एक नजरिया रखा। यह बयान उस वक्त आया, जब मंदिर-मस्जिद विवाद की बात अयोध्या के बाद काशी और मथुरा तक पहुंच रही है। उधर, ताजमहल के बंद तहखानों को खुलवाने का विवाद उठा तो अदालत को याचिकाकर्ताओं को इतिहास पढ़ने की नसीहत देनी पड़ी। कुतुबमीनार, जामा मस्जिद, लखनऊ की टीले वाली मस्जिद के अतीत को लेकर भी बहस जारी है।
दोनों पक्षों में एक राय बनेगी?
ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या हिंदू और मुस्लिम पक्ष के लोग मोहन भागवत के इस नजरिए पर एकमत होंगे? क्या बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता उनकी बात को सुनेंगे और रोज सामने आते मंदिर-मस्जिद विवाद से किनारे होंगे? क्या मौलाना अपने अनुयायियों को समझाएंगे कि वह इत्मिनान रखें और समाज में सौहार्द बनाए रखें? कम से कम टीले वाली मस्जिद के शाही इमाम मौलाना फजले मन्नान तो यही मानते हैं। उनका कहना है कि यह बेहद कीमती बयान है और मुल्क के हित में है। आरएसएस के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर भी मानते हैं कि यह निश्चित रूप से सामाजिक तनाव को खत्म करने वाला है। वह कहते हैं कि जो हिंदुओं के लिए है वह हिंदू करें, मुसलमान इबादत के अपने तौर-तरीके अपनाएं। यही तो भारत है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी देवबंद के जलसे की तकरीर का हवाला देते हुए कहते हैं कि हम हर हाल में हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार हैं।
भागवत ने पहली बार नहीं की अमन और एकता की बात
सितंबर 2018 में दिल्ली में 3 दिनों की व्याख्यानमाला में भी संघ प्रमुख ने कहा था कि बिना मुसलमानों के हिंदुत्व अधूरा है और हिंदुस्तान में रहने वाला हर शख्स हिंदुस्तानी है। हालांकि, उनके इस नजरिए को इतनी स्वीकार्यता नहीं मिली। कई लोग सवाल उठाते हैं कि 2018 के बाद से कोई मौका छोड़ा नहीं किया जब एंटी मुस्लिम सेंटीमेंट न उभरे गए हों। ऐसे में बयान भागवत का बयान कितना असर करेगा, यह कह पाना अभी मुश्किल है। राम विलास वेदांती को ही सुनें।
वह कहते हैं कि 1988 में दिल्ली में हुई बैठक में हमने 3 मंदिर मांगे थे। अयोध्या, काशी और मथुरा। हमारा मकसद था कि हम अगर यह तीन मंदिर दे दिए जाएंगे तो हम आगे और बात नहीं करेंगे। लेकिन, बात नहीं मानी गई। विश्व हिंदू परिषद की बैठक में हम लगातार इन तीन मंदिरों की मांग करते रहे, क्योंकि ये हमारी आस्था के प्रमुख केंद्र हैं। अशोक सिंघल जैसा नेता हमारे बीच नहीं रहा। इसका कुछ असर पड़ा है।
हम विश्व हिंदू परिषद की अगली बैठक का इंतजार कर रहे हैं। देखते हैं, वहां क्या सहमति बनती है। उसी के हिसाब से आगे की नीति तय होगी। जाहिर है कि अगर वेदांती के बयान के गूढ़ मायने देखे जाएं तो वह केवल अयोध्या तक नहीं थमना चाहते हैं। हालांकि, वह मोहन भागवत के बयान का यह कहते हुए समर्थन करते हैं कि हम नहीं चाहते कि हिंदू-मुस्लिम आपस में लड़े। सभी मुसलमान आतंकी नहीं हैं। यह बात सच है। यह भी सच है कि मौजूदा समय के जो मुसलमान हैं, उन्होंने मंदिर नहीं तोड़ा। मंदिर तो आक्रांताओं ने तोड़ा था। ऐसे में उन पर आरोप भी नहीं होने चाहिए।
समाज को बांटने वालों को इशारा
इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया के चेयरमैन मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली आश्वस्त हैं कि मोहन भागवत के बयान का कुछ तो असर जरूर पड़ेगा। इतने बड़े संगठन के मुखिया का एक स्टैंड लेना माहौल में कुछ नरमी पैदा कर सकता है। इस बयान को उन्हें समझना चाहिए जो समाज को बांटना चाहते हैं। समाज कौन बांटना चाहता है यह सभी को पता है। उनके फॉलोअर्स को उनकी बात सुननी चाहिए।
‘कॉमन सिविल कोड का वक्त है’
अयोध्या की मनीराम छावनी के उत्तराधिकारी कमल नयन यह कहते हुए एक नई बहस छेड़ देते हैं कि यह भटकने का नहीं, कॉमन सिविल कोड का वक्त है। कभी ज्ञानवापी, कभी कुछ, इससे भटकाव होता है। प्रधानमंत्री राष्ट्र की रक्षा करना चाहते हैं, यह बिना समान संहिता के संभव नहीं है। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी संघ प्रमुख के इस नजरिए से इत्तेफाक नहीं रखते। ओवैसी साफ करते हैं कि वह (मोहन भागवत) बार-बार कहते हैं कि मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे। ऐसे में इनके आश्वासन का कोई मतलब नहीं है।
पीएम बयान दें कि उनकी सरकार 1991 के एक्ट को लागू करेगी…। ओवैसी का यह तर्क खुशवंत सिंह के एक बयान के बरक्स देखा जा सकता है। उनसे पूछा गया था कि इतने उदारवादी और प्रगतिशील होने के बावजूद सिख के प्रतीक के तौर पर पगड़ी भी पहनते हैं और कृपाण भी रखते हैं। इस पर उसने कहा था कि अगर मैं ऐसा नहीं करूंगा तो लोग मुझे भी हिंदू ही मान लेंगे।
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