लखनऊ: पहले खबर आई कि नाहिद हसन समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) से नाराज हैं। इसके बाद शहजिल इस्लाम की नाराजगी खुलकर सामने आ गई। इसके बाद आजम खान (Azam Khan) ने ऐसी नाराजगी दिखाई कि रामपुर से लेकर सीतापुर और लखनऊ तक की सियासत में गरमाहट बढ़ गई। यूपी की राजनीति में लंबे समय बाद पहली बार विधानसभा चुनाव 2022 दो ध्रुवीय हुआ। अमूमन, चुनावी मैदान में दो से अधिक दलों के बीच टक्कर होती थी। पिछले चार चुनावों को ही देखें तो भारतीय जनता पार्टी (Bhartiya Janata Party), समाजवादी पार्टी (Samajwadi party), बहुजन समाज पार्टी (BSP) और कांग्रेस (Congress) के बीच बंटवारा होता आया है। यूपी चुनाव 2022 (UP Election 2022) में स्थिति पूरी तरह से बदली दिखी। मुसलमानों (Muslim Vote Bank) ने एकमुश्त सपा को वोट किया और भाजपा के मुकाबले में लाकर खड़ा कर दिया। हालांकि, इसके विरोध में भाजपा भी अपनी गोलबंदी करने में कामयाब रही और एक बार फिर पूर्ण बहुमत से कहीं ज्यादा सीटें हासिल कर सत्ता में वापसी कर ली। इसके बाद स्थिति बदली है। अल्पसंख्यक समाज एक प्रकार के अनजाने डर के साये में दिखता है और उस डर ने यूपी की राजनीति में हलचल बढ़ा दी है।
नाहिद हसन हों, शहजिल इस्लाम हों या फिर आजम खान, इन नेताओं ने अल्पसंख्यक वोटों की नुमाइंदगी की है। इन चेहरों की बदौलत समाजवादी पार्टी चुनावी मैदान में अपने उम्मीदवारों के पक्ष में मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में करने में कामयाब रही। इसी ताकत की बदौलत नेताओं ने कई ऐसे कार्य कर दिए, जो सत्ता परिवर्तन के बाद उनके लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। योगी सरकार बनने के बाद से ही ऐसे नेता निशाने पर हैं। दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपराधी और माफिया के खिलाफ जो कार्रवाई शुरू की, उसके दायरे में सपा नेता भी आ गए। अपराध के मामलों में चल रही पुलिसिया कार्रवाई के बीच समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की खामोशी ने मुस्लिम वोट बैंक को सोचने पर मजबूर कर दिया है। जब उनके नुमाइंदों पर मुसीबत के समय नेता कुछ नहीं बोल रहे, फिर जब उनके ऊपर कोई परेशानी आई तो क्या होगा? इस सवाल ने मुस्लिम वोट बैंक की बेचैनी को बढ़ा दिया है।
मोहभंग या फिर मुश्किलों के बढ़ने का डर
मुसलमानों का अखिलेश से माहभंग हुआ है या फिर उन्हें मुश्किलों के बढ़ने का डर है। इस संबंध में राजनीतिक विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है। एक वर्ग का मानना है कि अखिलेश या समाजवादी पार्टी से मुस्लिम वर्ग का मोहभंग नहीं हुआ है। अभी कोई चुनाव नहीं है। चुनाव के समय में तो करीब 80 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी को गया। अब आगे के चुनाव में इस प्रकार के मामले नहीं आएंगे, इसकी क्या गारंटी है? दरअसल, अभी मुस्लिम समाज में एक डर का माहौल है कि उन्हें सरकारी योजनाओं से कहीं बाहर न रखा जाए। उचित सुविधाएं न मिल पाएं, इसलिए वे अपनी नाराजगी का खुलकर इजहार कर रहे हैं। वहीं, दूसरे वर्ग का कहना है कि मुसलमान वोट बैंक अब समझने लगा है कि उसे राजनीतिक टूल बना दिया गया है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, चुनाव के समय में तमाम तरह के वादे किए जाते हैं। सुरक्षा का भरोसा दिलाया जाता है, लेकिन जब उनके नेताओं के ठिकानों तक बुलडोजर पहुंचा तो कोई बचाने नहीं आया। कहीं, इसी प्रकार की स्थिति उनके सामने आई तो फिर कौन बचाने आएगा। इसलिए, यह वर्ग अब नए राजनीतिक ठिकाने की तलाश कर रहा है।
मुस्लिम ने खुलकर की थी सपा के पक्ष में वोटिंग
यूपी में मुस्लिमों की आबादी करीब 19.5 फीसदी है। इस वर्ग ने चुनाव में खुलकर समाजवादी पार्टी का समर्थन किया। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, लखनऊ के कवि सैफ बाबर का कहते हैं कि यूपी चुनाव के समय में भाजपा को टक्कर देने वाली पार्टी के रूप में हमें सपा ही नजर आई। इस कारण मेरे जैसे सपा विरोधी ने भी पार्टी को वोट दिया। उन्होंने कहा कि इसे आप समझदारी कहिए या फिर एक वर्ग में डर, बिना किसी नेता या मौलवी के कहे लोगों ने सपा को एकजुट होकर वोट दिया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। बाबर कहते हैं कि गैर-भाजपा दलों ने हमारे हितों की अनदेखी की। इसके बाद भी भाजपा को हराने में जो सबसे अधिक सक्षम दिखा, उसे वोट कर दिया। वे कहते हैं कि मुसलमान कभी भी किसी पार्टी को मेरिट के आधार पर वोट नहीं करते हैं।
सपा से मोहभंग होने की कही जा रही बात
मुसलमानों में गुस्सा आजम खान के प्रति सपा के रुख पर है। 26 माह से जेल में बंद आजम से मुलाकात करने अब तक न तो अखिलेश यादव गए हैं और न ही मुलायम सिंह यादव। आजम के सहयोगी शनि खान कहते हैं कि मुलायम तो आजम खान के काफी करीबी थे। दोस्त थे, लेकिन उन्होंने एक बार भी अपने दोस्त की सुधि नहीं ली। वे इटावा की लायन सफारी में घूमने जा सकते हैं, लेकिन 70 किलोमीटर दूर सीतापुर जेल में आजम खान से मिलने नहीं जा सकते। वे कहते हैं कि अखिलेश यादव की बात ही छोड़ दीजिए, वे तो अपने पिता की तरह सभी वर्गों को साथ लेकर चल ही नहीं सकते हैं। मुलायम हर वर्ग को लेकर साथ चलने की काबिलियत रखते थे, इसीलिए इतने सफल रहे। अखिलेश यादव ने चुनाव के दौरान भी कई ऐसे बयान दिए, जिससे हमें ठेस लगी। लेकिन, भाजपा को फायदा न हो जाए, इसलिए हमलोग चुप रहे।
मुसलमानों को बना दिया राजनीतिक अछूत
रामपुर के शनि खान का कहते हैं कि मुसलमान राजनीतिक अछूत हो गए हैं। हर कोई अपना वोट चाहता है लेकिन कोई उनका नाम भी नहीं लेना चाहता। वहीं, लॉ के शिक्षक और कासगंज के सपा प्रवक्ता अब्दुल हाफिज गांधी कहते हैं कि मुलसमानों में निराशा की भावना हावी हो गई है। मुस्लिम समाज को लगने लगा है कि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश की जा रही है। उनका मानना है कि जिन संस्थानों में वे न्याय की गुहार लगाने जाते हैं, वे उनके साथ निष्पक्ष नहीं हो सकते। मुस्लिम अब राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गए हैं। इस समुदाय को यह समझने के लिए मजबूर किया गया है कि वे सरकार के निशाने पर हैं।
लाउडस्पीकर हटाए जाने के अभियान की चर्चा करते हुए अब्दुल हाफिज कहते हैं कि योगी सरकार का फैसला हर धर्मस्थल से लाउडस्पीकर को हटाने का था। लेकिन, मुसलमानों का मानना है कि उनके धार्मिक स्थलों को निशाना बनाने के लिए यह अभियान चलाया गया। शहजिल इस्लाम के पेट्रोल पंप ढहाए जाने के मसले को उठाते हुए उन्होंने कहा कि पार्टी ने इस पर कुछ नहीं बोला। इन मामलों पर मुसलमानों में गुस्सा भड़का तो लखनऊ में अखिलेश यादव रोजा-इफ्तार पार्टियों में लाल टोपी लगाए नजर आए हैं।
टोपी रुमाल तक सीमित हैं पार्टियां
मुरादाबाद के आरटीआई कार्यकर्ता सलीम बेग का कहना है कि गैर भाजपा दल टोपी और रुमाल के जरिए भी मुसलमानों को खुश करती रही हैं। वास्तविक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर हमेशा उनकी चुप्पी झलकती है। वर्ष 2012 में मुसलमानों से 14 वादे कर समाजवादी पार्टी सत्ता में आई, लेकिन इन वादों को पूरा नहीं किया गया। तथाकथित सेक्युलर दलों को केवल मुस्लिम वोट चाहिए। मुसलमानों का वोट हासिल कर वे अपने समुदाय और रिश्तेदारो को तो बढ़ावा दे देते हैं, लेकिन मुसलमानों की शिक्षा और उनकी मूल समस्याओं पर उनका ध्यान नहीं रहता। दरअसल, यह वर्ग उनके लिए वोट बैंक से अधिक हैसियत ही नहीं रखता है।
नए विकल्प तलाशने होंगे
इन तमाम परिस्थितियों के बाद सवाल खड़ा हो रहा है कि मुस्लिम वर्ग की राजनीति के लिए आगे का रास्ता क्या है? क्या यह मोहभंग क्षणिक है और समय के साथ समाप्त हो जाएगा? इलाहाबाद हाई कोर्ट के सीनियर वकील एस. फरमान नकवी कहते हैं कि यहां के समुदाय को नया विकल्प बनाना होगा। हालांकि, यह सुनिश्चित नहीं है कि ऐसा करने के लिए उनके पास राजनीतिक विकल्प है या नहीं। हालांकि, इन तमाम मसलों के बीच एक वर्ग ऐसा भी है जो एआईएमआईएम को विकल्प के रूप में आगे ले जाने की बात करने लगा है।
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