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भारत माता आज शोकमग्न है, उसका लाडला राजकुमार खो गया, जब अटल ने पंडित नेहरू के निधन पर सबको रुला दिया था

लखनऊ
हर साल 25 दिसंबर को भारतीय राजनीत‍ि के युगपुरुष, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्‍मदिन मनाया जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी उस शख्सियत का नाम है जिनका सम्‍मान उनके धुर विरोधी भी करते थे। तीन बार देश के प्रधानमंत्री, हिंदी कवि, पत्रकार और प्रखर वक्ता के साथ अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को जन्म हुआ था। अटल जी के भाषण के मुरीद सब थे, फिर चाहे वे विपक्ष का नेता ही क्‍यों ना रहा हो। जवाहरलाल नेहरू भी उनसे खासा प्रभावित रहते थे।

एक बार नेहरू ने जनसंघ की आलोचना की तो अटल ने कहा, ‘मैं जानता हूं क‍ि पंडित जी रोजाना शीर्षासन करते हैं। वह शीर्षासन करें, मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन मेरी पार्टी की तस्‍वीर उल्‍टी ना देखें।’ यह सुनते ही जवाहर लाल नेहरू ठहाका मारकर हंस पड़ें।

भले ही नेहरू राजनीत‍ि में अटल के विरोधी रहे हों, लेकिन उनके मुरीद भी थे। किंगशुक नाग की किताब ‘अटल बिहारी वाजपेयी- ए मैन फॉर ऑल सीजन’ में ही ऐसे ही घटना का उल्‍लेख है। किस्‍सा यह है क‍ि एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, ‘इनसे मिलिए, ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं। हमेशा मेरी आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूंं।’

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इन दोनों नेताओं के आपसी संबंध भी हमेशा से अच्‍छे रहे। जनसंघ के नेता कहा करते थे क‍ि बलराज मधोक, सरदार वल्‍लभभाई पटेल की राह पर चलते हैं और अटल नेहरू की लाइन पर चल रहे हैं। इसे लेकर संघ में नाराजगी भी रहती थी।

विजय त्रिवेदी हार नहीं मानूंगा, एक अटल जीवन गाथा में लिखते हैं, ‘वर्ष 1961 में जब नेहरू ने राष्‍ट्रीय एकता परिषद का गठन किया तो उसमें वाजपेयी को शामिल किया जबक‍ि पर‍िषद में दिग्‍गज नेता और प्रत‍िष्ठित लोग शामिल थे। अटल उसमें सबसे युवा थे लोकसभा में चुनकर आये थे। लेकिन 1962 में परिषद की पहली बैठक होनी थी तब वे लोकसभा के सदस्‍य नहीं रह गये थे। इसके बाद जब वाजपेयी बलरामपुर से चुनाव लड़े तो नेहरू उनके खिलाफ प्रचार करने नहीं गये थे।

29 मई 1964 मई 1964 में नेहरू के निधन के बाद वाजपेयी ने जो श्रद्धांजलि नेहरू को दी, उसे अपने आप में एक यादगार भाषण कहा जाता है। उनके भाषण से पूरा सदन भावुक हो गया था।

अटल बिहारी वाजपेयी ने नेहरू को उस दिन जो कहा, उसे सबको पढ़ना चाहिए, क्‍यों पढ़ना चाहिए, यह आपको पढ़ने के बाद खुद ही पता चल जायेगा। भाषण का अंश….

अध्‍यक्ष महोदय,
एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूंगा हो गया, एक लौ थी जो अनंत में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूंज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अंधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।

मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह जरूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता आज शोकमग्न है –उसका सबसे लाडला राजकुमार खो गया।

मानवता आज खिन्न है –उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है –उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आंख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के सम्बंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडित जी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वह शांति के पुजारी, किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे, वे अहिंसा के उपासक थे, किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे।

वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।

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मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। किसी दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे।

महोदय, जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है। सम्पूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी। जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है। हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं। हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है। नेता चला गया, अनुयायी रह गए। सूर्य अस्त हो गया, तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूंढना है।

यह एक महान परीक्षा का काल है। यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अन्तर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे। संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा।

वह व्यक्तित्व, वह जिंदादिली, विरोधी को भी साथ ले कर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रामाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।

अटल विहारी वाजपेयी