सचिन त्यागी, बागपत
पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने वर्षों तक अपने खून पसीने की मेहनत से जो राजनीतिक किला खड़ा किया था, आज उस किले में एक भी सीट नहीं बची है। चौधरी चरण सिंह ने जीवन काल में विधानसभा से लेकर लोकसभा और प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया था, लेकिन उनके मरने के बाद अमेरिका से पढ़ाई और नौकरी कर लौटे उनके बेटे चौधरी अजीत सिंह उनकी विरासत को नहीं संभाल पाए।
विरासत में मिली पिता की ख्याति के कारण अजीत सिंह 1989 से 2014 तक केंद्र सरकार में मंत्री रहे, लेकिन 86 वर्ष की आयु में 2021 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके पास एक भी सीट नहीं थी, जिसे वह अपने बेटे जयंत चौधरी को दे पाते। 2022 के चुनाव के लिए एक बार फिर यह चौधरी परिवार अपनी विरासत को बचाने की जद्दोजहद में लगा है। जिसकी जिम्मेदारी किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह के पोते पर हैं।
चौधरी चरण सिंह के नाम से मिली छपरौली को पहचान
चौधरी चरण सिंह ने मोहनदास गांधी से प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में राजनीति में प्रवेश किया था। किसान मसीहा कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह छपरौली विधानसभा से वर्ष 1937 में पहली बार विधायक बने थे। उसके बाद वर्ष 1977 तक इस सीट से विधायक रहे। छपरौली सीट उनके ही नाम के करण देशभर में चर्चित रही है।
प्रधानमंत्री बनने का सफर
बागपत लोकसभा 1967 में अस्तित्व में आई थी। जिसके प्रथम सांसद रघुवीर सिंह शास्त्री भारतीय जनता पार्टी से विजयी हुए। चौधरी चरण सिंह ने 1977 में इस लोकसभा से भारतीय लोकदल से विजय हासिल की। जिसके बाद वह 1984 तक तीन बार सांसद रहे। इस बीच वह 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक प्रधानमंत्री के पद पर रहे। 29 मई 1987 को नई दिल्ली में उनका स्वर्गवास हो गया।
पार्टी बदलती रही, लेकिन विचार धारा नहीं
किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह ने जब कांग्रेस मंत्रिमण्डल से इस्तीफा दिया तो भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी। 1974 में उन्होंने इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया। इसके बाद जनता पार्टी में 1977 में इसका विलय हो गया। लगातार पार्टी का नाम बदलता रहा, लेकिन उनकी विचार धारा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मिट्टी से जुड़े चौधरी चरण सिंह किसानों की ही बात करते रहे। उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे अजीत सिंह ने राष्ट्रीय लोकदल से पार्टी को नयी पहचान दी।
कांग्रेस के खिलाफ बागपत की धरती से चौधरी चरण सिंह ने खोला था मोर्चा
1975 में देश में लगे आपात काल के बाद फैली अराजकता को शांत करने के लिए जेल में बंद नेताओ ने मोर्चा खोला था। जिसमें यूपी के बागपत से चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने वाले चौधरी चरण सिंह भी शामिल थे। 1977 में सभी गैर कांग्रेसी दलों ने मिलकर जनता पार्टी के नाम से साझा मोर्चा बनाया था। संयुक्त रूप से कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़ा। जिसमें भारतीय क्रांतिदल का विलय जनता पार्टी में हो गया। इसमें जनसंघ और अन्य दल भी शामिल थे। सभी ने मिलकर कांग्रेस को मात दी।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मिला किसान मसीह का दर्जा
चौधरी चरण सिंह जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कई अहम फैसले किसानों के हित में लिए, जिससे वह किसानों के दिल में बस गए। किसानों ने उनको किसान मसीहा की उपाधि दी। आज भी उत्तर प्रदेश में सभी राजीतिक पार्टियां किसानों के बीच उनका सम्मान करती है। उनके जन्मदिन 23 दिसंबर को भारत सरकार किसान दिवस के रूप में मनाती है और किसानों का सम्मान किया जाता है।
बेटे अजीत सिंह को मिली कमान
चौधरी चरण सिंह ने जिस लोकदल को इतना मजबूत किया था कि वह प्रधानमंत्री तक बने। वहीं, लोकदल अजीत सिंह को विरासत में 1989 में मिली, जब वह अपने पिता की बागपत सीट से भारी मतों से विजयी हुए। अजीत सिंह छह बार यहां से सांसद रहे। 2014 में वह तीसरे नंबर पर चले गए।
अजीत सिंह को विरासत में मिली थीं करीब 36 सीटें
अजीत सिंह को विरासत में अपने पिता से 36 सीटें मिली थी, लेकिन 2014 तक उनके पास अपनी भी सीट नहीं बची। अंजाम यह हुआ कि चौधरी परिवार की 1937 से शुरू हुई राजनीति आज केवल नाम की रह गई है। चौधरी चरण सिंह की राजनीति से बनाई गई राष्ट्रीय लोक दल महज एक पार्टी मात्र बची है।
चौधरी परिवार लड़ रहा अस्तित्व की लड़ाई
आज राष्ट्रीय लोक की कमान अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी के हाथों में है। जाट लैंड में जाट नेता रालोद में जान फूंकने के लिए प्रयास कर रहे हैं। जयंत चौधरी उनकी छवि एक जागरूक युवा व किसान मसीहा के पोते के रूप में जानी जाती है और लोग उनमें चौधरी चरण सिंह को देखते हैं। आज उनके पोते जयंत चौधरी 2022 के चुनाव में अस्तित्व बचाने की तैयारी के रहे।
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