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जब राजा भैया के सामने अड़ीं मायावती… और BJP ने कड़वी यादों को भुलाकर मुलायम को CM बनाने के लिए जान भिड़ा दिया

लखनऊ
कहते हैं कि राजनीति तो उत्तर प्रदेश की फिजाओं में घुली-मिली है। ब्रिटिश हुकूमत के खात्मे के बाद अपने वर्तमान स्वरूप और नाम में आया यह सूबा तमाम रंग देख चुका है। आजादी मिलने के पांच दशक के बाद यूपी में सियासत का अलग ही ढंग सामने आ रहा था। वो ठेठ पॉलिटिक्स का दौर था। जब चुनावों में जनता भी स्पष्ट बहुमत नहीं दिया करती थी और त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति हो जाती थी। राजनीति को वो रंग जिसमें सत्ता पाने का चाव ऐसा कि राजनीतिक मंच के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े दल भी साथ आ गए। तमाम मतभेद और कड़वी यादों को भुला दिया गया। उस दौर की राजनीति की यह अकल्पनीय सी लगी यह घटना राजनीति की सीढ़ी चढ़ने का ख्वाब देखने वालों को घोल कर पिला देनी चाहिए।

एक राजा था, एक रानी थी… लेकिन ये कहानी खत्म नहीं हुई, बल्कि सियासत में एक बड़ी लकीर खींच गई। राजा का नाम था रघुराज प्रताप सिंह, जिसके पास अपनी रियासत भी थी और उसने राजनीति में भी मुकाम हासिल कर लिया था। और दूसरी तरफ थीं मायावती, जिनका नाम हर दलित और वंचित की जुबान पर चढ़ा हुआ था। वह तीसरी बार मुख्यमंत्री का ताज पहन चुकी थीं। इससे पहले भाजपा जोड़-तोड़ और तीन अलग चेहरों की अगुवाई में सत्ता चला चुकी थी। लेकिन 2002 के विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नसीब नहीं हुआ। और यहीं पर मामला फंस गया।

जनता ने किसी को भी पूरा आशीर्वाद नहीं दिया
साल 2002 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 88, मायावती की बसपा को 98, मुलायम की सपा को 143, कांग्रेस को 25 और चौधरी अजित सिंह की रालोद को 14 सीटें हासिल हुईं। किसी भी दल के पास सरकार बनाने के लिए जरूरी मेजॉरिटी नहीं थी। मुलायम ने चुनाव में जमकर पसीना बहाया था और नतीजे में भी जनता का सबसे अधिक आशीर्वाद उन्हें ही मिला था। लेकिन दिक्कत यह थी कि बीजेपी और मायावती दोनों के साथ ही उनकी गाढ़ी राजनीतिक दुश्मनी थी। हाल यह था कि साथ आना तो दूर, नजरें भी मिला लेना गवारा नहीं था।

किसी के भी सत्ता बनाने के दावे की संभावना नहीं दिखी तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। लेकिन कुछ समय बाद ही मायावती ने मुस्लिम मतदाताओं की चिंता को दरकिनार करते हुए बीजेपी से हाथ मिला लिया। इन्हें रालोद का समर्थन भी हासिल हो गया। मायावती ने अपने समर्थकों और वोटर्स को भरोसा दिलाया कि वह सीएम बनेंगी और किसी भी अल्पसंख्यक को फिक्र करने की जरूरत नहीं है। फिर सरकार बनी और मायावती की कैबिनेट में शामिल लालजी टंडन, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह सरीखे दिग्गज नेता गठबंधन सरकार की गाड़ी खींचने लगे।

राजा भैया (फाइल फोटो)

राजा भैया पर ऐक्शन से खिंचीं तलवारें
लेकिन जब मन ही ना बैठे तो भेद होना ही था। 2003 में प्रतापगढ़ की कुंडा सीट से निर्दलीय विधायक राजा भैया को मायावती के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा। मायावती ने राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम यानी POTA (Prevention of Terrorism Act) लगा दिया। वह जेल में बंद कर दिए गए। मायावती की राजा भैया से खुन्नस यह थी कि वह उन चुनिंदा विधायकों में शामिल थे, जिन्होंने मायावती सरकार बर्खास्त करने की मांग की थी। कुछ साल पहले भी मायावती के समर्थन वापस लेने की सूरत में राजा ने कल्याण सिंह की सरकार बचाने में सहायता की थी। इसलिए अब मायावती ने मौका मिलने पर कसर पूरा करने का प्रयास किया।

…और पटरी से उतर गई गठबंधन सरकार
राजा भैया के खिलाफ ऐक्शन का बीजेपी ने विरोध कर दिया। लेकिन रिश्तों में कड़वाहट घुलने की एक और वजह ताज कॉरिडोर का मामला भी बना। उस वक्त देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन ने निर्माण में नियमों के पूरा नहीं होने को लेकर यूपी सरकार को कसूरवार ठहरा दिया। मायावती नाराज हो गईं। उन्होंने जगमोहन को हटाए जाने की मांग कर डाली। लोकसभा में भी हंगामा हुआ। ऐसे में सरकार की गाड़ी पटरी से उतर गई और मायावती ने राज्यपाल को इस्तीफा सौंप दिया।

कल्याण सिंह की ‘वो’ बिसात, मुलायम भी राजी…फिर सब बिखर गया!

यूपी का हर सियासी किरदार ऐक्टिव हो गया
26 अगस्त 2003 के उस दिन लखनऊ के सियासी गलियारों में हड़कंप मच गया। बीजेपी ने भी राज्यपाल से मिलकर समर्थन वापसी की जानकारी दी। विधानसभा भंग नहीं हुई और राष्ट्रपति शासन की आहट होने लगी। ऐसे में हर किरदार सक्रिय हो गया। उसी शाम मुलायम सिंह यादव ने बिना पर्याप्त विधायकों की संख्या के सरकार बनाने का दावा कर दिया। उन्होंने बसपा से 13 विधायकों को तोड़कर अपने खेमे में शामिल कर लिया। केंद्र की अटल सरकार भी अगले साल 2004 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटी थी। ऐसे में यूपी में फिर से राष्ट्रपति शासन लागू करवाने की हालत में नहीं थी।

बसपा ने बागी विधायकों की सदस्यता दलबदल कानून के तहत रद्द करने की मांग की। लेकिन बीजेपी मायावती के रवैये से खफा थी और विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने याचिका को खारिज कर दिया। मुलायम को बसपा के बागी विधायकों के साथ ही रालोद का समर्थन मिल गया। बीजेपी ने भी साथ दे दिया और मुलायम ने राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री के सामने 210 विधायकों के समर्थन के साथ सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया।

केंद्र में थी अटल सरकार

‘BJP तो मुलायम को रावण कहती थी….!’
उस वक्त मीडिया ने इस घटना को प्रमुखता से कवर किया। बीजेपी ने 1992 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने के लिए मुलायम को ‘रावण’ का दर्जा दे रखा था। 1999 में मुलायम के अड़ंगे की वजह से कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकी थी। अजित सिंह भी डेढ़ दशक से मुलायम विरोधी अभियान में जुटे थे। लेकिन मुलायम को सीएम बनाने के लिए सबने एक राग अलापा। सबके मेल-जोल से बनी इस सरकार में सबको खुश रखने की कोशिश भी लाजिमी थी। इस वजह से 98 मंत्रियों की कैबिनेट भी गठित हुई थी।

यह पूरा मामला न्यायालय की चौखट पर भी गया। लेकिन तारीख पर तारीख लगती रही और मुलायम सिंह यादव ने साढ़े 3 सालों तक कुर्सी पर बैठकर यूपी की बागडोर संभाली… तब तक, जब तक 2007 का अगला चुनाव नहीं आ गया और मायावती ने बहुमत के साथ पांच साल सरकार चलाया।