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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाना से बच्ची की कस्टडी की मांग करने वाली दादा-दादी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज कर दी है। याचिका खारिज
करते हुए न्यायमूर्ति डॉ. वाईके श्रीवास्तव ने कहा कि मामले के तथ्य यह संकेत नहीं देते हैं कि नाबालिग को उसके नाना के पास रखना किसी भी तरह से अवैध और अनुचित कस्टडी के समान है।
कोर्ट ने कहा कि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बच्ची बचपन से ही अपने नाना के साथ रह रही है। वहीं एक तथ्य यह भी है कि कस्टडी का दावा करने वाला पिता बच्ची की मां की मौत से संबंधित एक आपराधिक मामले में आरोपी है और यह एक प्रासंगिक कारक है। अन्य तथ्य, जो महत्वपूर्ण हैं, उनमें बच्ची को एक सुखद घर में प्यार और अच्छी देखभाल, मार्गदर्शन, अच्छे व दयालु संबंध प्रदान करना है, जो बच्ची के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बच्ची का कल्याण सर्वोपरि विचार होगा न कि पक्षकारों द्वारा संरक्षकता से संबंधित किए गए प्रतिस्पर्धी अधिकार। दादा-दादी ने बच्ची की कस्टडी की मांग करते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल की थी। वहीं बच्ची के पिता पर दहेज की मांग को लेकर उत्पीड़न और क्रूरता करने का आरोप लगाया गया है।
उसके खिलाफ दहेज हत्या की एफआईआर दर्ज कराई गई है। अधिवक्ता ने तर्क दिया कि बच्ची की मां की अनुपस्थिति में, उसके पिता अभिभावक हैं। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि नाना के पास बच्ची की कस्टडी अवैध है। विपक्षियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अनूप त्रिवेदी ने यह कहकर उक्त दावे का खंडन किया कि बच्ची उस समय से अपने नाना की कस्टडी में है, जब से उसकी मां को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था।
प्रताड़ना व क्रूरता के कारण उसकी मां की मृत्यु होने के बाद बच्ची अपने नाना की देखभालऔर कस्टडी में है। इसे किसी भी तरह से अवैध नहीं ठहराया जा सकता है। यह भी बताया गया कि दहेज हत्या की एफआईआर में दादा-दादी और पिता आरोपियों में शामिल हैं और वे आपराधिक मुकदमे का सामना कर रहे हैं।
ऐसे में याचियों को बच्ची की कस्टडी प्रदान करना पूरी तरह से बच्ची के हित के खिलाफ होगा। कोर्ट ने कहा कि अदालतों के लिए इन मामलों में बच्चे के सर्वोत्तम हित में क्या है, इसकी जांच करने के अलावा और आगे जाने की आवश्यकता नहीं होती और जब तक यह बच्चे के कल्याण के लिए प्रतीत न होता हो, उसे कस्टडी में भेजने का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
कोर्ट ने माना कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की एक रिट में संरक्षकता या कस्टडी के दावे को पूर्ण अधिकार नहीं माना जा सकता है और बच्चे के हित में जो प्रतीत होगा, वही किया जाएगा। ऐसे मामलों में, यह स्वतंत्रता का नहीं, बल्कि पालन-पोषण और देखभाल का सवाल है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाना से बच्ची की कस्टडी की मांग करने वाली दादा-दादी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज कर दी है। याचिका खारिज
करते हुए न्यायमूर्ति डॉ. वाईके श्रीवास्तव ने कहा कि मामले के तथ्य यह संकेत नहीं देते हैं कि नाबालिग को उसके नाना के पास रखना किसी भी तरह से अवैध और अनुचित कस्टडी के समान है।
कोर्ट ने कहा कि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बच्ची बचपन से ही अपने नाना के साथ रह रही है। वहीं एक तथ्य यह भी है कि कस्टडी का दावा करने वाला पिता बच्ची की मां की मौत से संबंधित एक आपराधिक मामले में आरोपी है और यह एक प्रासंगिक कारक है। अन्य तथ्य, जो महत्वपूर्ण हैं, उनमें बच्ची को एक सुखद घर में प्यार और अच्छी देखभाल, मार्गदर्शन, अच्छे व दयालु संबंध प्रदान करना है, जो बच्ची के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बच्ची का कल्याण सर्वोपरि विचार होगा न कि पक्षकारों द्वारा संरक्षकता से संबंधित किए गए प्रतिस्पर्धी अधिकार। दादा-दादी ने बच्ची की कस्टडी की मांग करते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल की थी। वहीं बच्ची के पिता पर दहेज की मांग को लेकर उत्पीड़न और क्रूरता करने का आरोप लगाया गया है।
उसके खिलाफ दहेज हत्या की एफआईआर दर्ज कराई गई है। अधिवक्ता ने तर्क दिया कि बच्ची की मां की अनुपस्थिति में, उसके पिता अभिभावक हैं। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि नाना के पास बच्ची की कस्टडी अवैध है। विपक्षियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अनूप त्रिवेदी ने यह कहकर उक्त दावे का खंडन किया कि बच्ची उस समय से अपने नाना की कस्टडी में है, जब से उसकी मां को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था।
प्रताड़ना व क्रूरता के कारण उसकी मां की मृत्यु होने के बाद बच्ची अपने नाना की देखभालऔर कस्टडी में है। इसे किसी भी तरह से अवैध नहीं ठहराया जा सकता है। यह भी बताया गया कि दहेज हत्या की एफआईआर में दादा-दादी और पिता आरोपियों में शामिल हैं और वे आपराधिक मुकदमे का सामना कर रहे हैं।
ऐसे में याचियों को बच्ची की कस्टडी प्रदान करना पूरी तरह से बच्ची के हित के खिलाफ होगा। कोर्ट ने कहा कि अदालतों के लिए इन मामलों में बच्चे के सर्वोत्तम हित में क्या है, इसकी जांच करने के अलावा और आगे जाने की आवश्यकता नहीं होती और जब तक यह बच्चे के कल्याण के लिए प्रतीत न होता हो, उसे कस्टडी में भेजने का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
कोर्ट ने माना कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की एक रिट में संरक्षकता या कस्टडी के दावे को पूर्ण अधिकार नहीं माना जा सकता है और बच्चे के हित में जो प्रतीत होगा, वही किया जाएगा। ऐसे मामलों में, यह स्वतंत्रता का नहीं, बल्कि पालन-पोषण और देखभाल का सवाल है।
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