इलाहााबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने प्रदेश की सात प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं का प्रांतीयकरण ( सरकार इन स्कूलों के सभी खर्चे उठाती है ) किए जाने के संबंध में सपा शासनकाल में जारी शासनादेश को निरस्त करने के मौजूदा सरकार के फैसले को सही ठहराया है। हाईकोर्ट ने कहा कि पिछली सरकार ने जिस प्रकार जल्दबाजी में शासनादेश जारी किया था, उससे वह संदेहास्पद हो गया। हाईकोर्ट ने यह तल्ख टिप्पणी भी की-‘ऐसा लगता है कि तत्कालीन विधानसभा चुनावों को देखते हुए कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया गया था।’
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान की एकल पीठ ने सुभाष कुमार व 78 अन्य समेत सैकड़ों अध्यापकों व कर्मचारियों की ओर से दाखिल अलग-अलग याचिकाओं को निर्णित करते हुए की। याचियों का कहना था कि 23 दिसंबर 2016 को राज्य सरकार ने सात निजी शिक्षण संस्थानों का प्रांतीयकरण करने का शासनादेश जारी किया था। इससे इन निजी शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों व कर्मचारियों को राजकीय कर्मचारियों का दर्जा मिल गया था। मौजूदा सरकार ने सत्ता संभालने के बाद 13 फरवरी 2018 को इस शासनादेश निरस्त कर दिया। याचीगण 23 दिसंबर 2016 को प्रांतीयकरण गए संस्थानों के अध्यापक तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। इन याचियों का कहना था कि बिना कोई तार्किक वजह बताए 23 दिसंबर 2016 का शासनादेश निरस्त कर दिया गया। एक निर्णय जो पिछली सरकार द्वारा लिया गया था और जिसे तत्कालीन मुख्यमंत्री से मंजूरी दी थी, उसे सिर्फ इसलिए नहीं निरस्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि नई सरकार भिन्न राजनीतिक दल की है। राज्य सरकार की ओर से यह कहते हुए इन याचिकाओं का विरोध किया गया कि किसी शिक्षण संस्थान का प्रांतीयकरण करने के लिए जरूरी विधिक कार्यवाहियां नहीं की गई थीं और जल्दबाजी में शासनादेश जारी कर दिया गया था।
न्यायालय ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के पश्चात पारित अपने निर्णय में कहा कि प्रांतीयकरण करने का आदेश जारी करने से पहले न तो पदों की स्वीकृति की गई और न ही वित्तीय मंजूरी ली गई। इस मामले में किसी अति आवश्यक परिस्थिति का उल्लेख भी नहीं किया गया है। इन परिस्थितियों को देखते हुए 23 दिसंबर 2016 का शासनादेश संदेहास्पद प्रतीत होता है। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ के प्रदेश मंत्री डॉ. महेन्द्र नाथ राय ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सही ठहराया है।
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