उत्तर भारत के करीब-करीब मध्य में स्थित होने के कारण प्रयागराज हर दौर में सत्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। मुगलों और अवध के नवाबों से लेकर अंग्रेजों तक सबने प्रयागराज को विशेष अहमियत दी तो इसलिए कि उन्हें यहां से उत्तर भारत के अन्य हिस्सों पर नियंत्रण करना आसान लगा। इतिहास के पन्नों में मराठाओं के प्रयागराज से रिश्ते की कहानी भी दर्ज है। लेकिन, नई पीढ़ी शायद ही इस कहानी से परिचित हो, जिसमें श्रद्धा भी है, आस्था भी है और सत्ता की आक्रामकता भी। यहां इस श्रृंखला में प्रयागराज के मराठों से रिश्तों को एक बार फिर खंगालने की कोशिश की जा रही है।
साल 1739। यह वह दौर था जब औरंगजेब को गुजरे 30 साल से ज्यादा हो चुके थे। यह वह दौर था जब 1732 में सआदत अली खान ने मुगलों की सत्ता को धता बताते हुए अवध में अपनी स्वतंत्र हुकूमत स्थापित कर ली थी। यह वह दौर था जब ईरान से आए नादिरशाह ने दिल्ली में कत्लेआम मचाया। उसने कभी कंधार तक राज करने वाले मुगलों को करनाल के एक छोटे से युद्ध में आसानी से हरा दिया।हालांकि नादिरशाह से भी ज्यादा निर्दयी अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले में अभी 20 साल बाकी थे। इतिहास में इलाहाबाद की प्रथम संधि के तौर पर दर्ज 1765 की शातिर क्लाइव, कमजोर मुगल शाह आलम द्वितीय और बंगाल के नवाब नजमुद्दौला के बीच की संधि अभी होनी शेष थी। लेकिन यह भी सच था कि कभी जहांगीर के दरबार में फर्शी सलाम बजाते हुए हिंदुस्तान में तिजारत की इजाजत मांगने वाले टॉमस रो के देश के बाशिंदे अब शातिराना चालों से धीरे-धीरे पूरे हिंदुस्तान को अपने कब्जे में ले रहे थे। …तो ठीक उथल-पुथल भरे इसी दौर में संगम नगरी एक नए संघात की साक्षी बन रही थी।
मुगल बादशाही कमजोर हो जाने के बाद मराठों के हौसले बुलंद थे। वह उत्तर को अपने कब्जे में लेकर पूरे हिंदुस्तान के स्वामी बनने की रणनीति पर काम कर रहे थे। उनकी इस हसरत का एक धार्मिक पहलू भी था। मराठों के मन में काशी, प्रयाग और मथुरा जैसे प्रमुख धार्मिक स्थलों वाले क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लेकर खुद को हिंदुत्व के शीर्षस्थ प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने का सपना तेजी से कुलाचें भर रहा था। इसी उद्देश्य को पूरा करने करने के लिए नागपुर के शासक राघोजी भोसले ने 1739 में इलाहाबाद पर हमला बोला।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं, उन दिनों अवध के शासक नवाब वजीर के प्रतिनिधियों के तौर पर शुजा खान के पास इलाहाबाद सूबे की जिम्मेदारी थी। बुंदेलखंड के रास्ते इलाहाबाद पहुंचे मराठों को रोकने की शुजा खान ने भरसक कोशिश की लेकिन वह कामयाब नहीं हुआ। शुजा खान मारा गया और जीत का सेहरा राघोजी के सिर बंधा। प्रो. चतुर्वेदी बताते हैं कि विजय हासिल करने के बाद मराठा सैनिक कुछ इस कदर बेकाबू हो गए कि उन्होंने सारे अनुशासन तोड़ दिए। इस पौराणिक नगरी को बुरी तरह से लूटा गया। जनहानि भी कम नहीं हुई।
इसके आगे की कहानी एक किवदंती से जुड़ती है
कहते हैं उत्पीड़न से दुखी इलाहाबाद के लोगों ने राघोजी भोसले को जमकर कोसा। राधोजी के लिए बुरे से बुरे की कामना की। सत्ताधीशों को इस तरह की लानत मलानत की आदत होती है। सत्ता की ताकत उन्हें इस कदर अंधा कर देती है कि वे आमतौर पर जनता के शापों की परवाह नहीं करते थे। लेकिन दुर्भाग्य से इलाहाबाद विजय के बाद नागपुर पहुंचने पर राघोजी भोसले गंभीर रूप से बीमार हो गए।बताते हैं कि उनको कुष्ठ रोग हो गया। तमाम जड़ी-बूटी और पूजा-प्रार्थना के बावजूद जब राघोजी की तबीयत ठीक नहीं हुई तो राजपुरोहित बुलाए गए। उनके राजपुरोहित ने मनौती मानी कि राजा रोगमुक्त हो जाएंगे तो वह दारागंज के नागवासुकि मंदिर का जीर्णोद्धार कराएंगे। और जैसा कि इस तरह की हर कहानी में होता है, राजा सचमुच रोगमुक्त हो गए। इसके बाद राजपुरोहित श्रीधर ने वादे के मुताबिक न केवल नागवासुकि मंदिर का जीर्णोद्धार कराया बल्कि गंगा किनारे पक्के घाट भी बनवाए।मंदिर के वर्तमान प्रधान पुजारी श्यामधर त्रिपाठी बताते हैं कि इस घटना के बाद राजा भोसले मंदिर के अनन्य भक्त हो गए। जब तक जीवित रहे मंदिर की देखरेख के लिए अनुदान सहित कई तरह से सहयोग करते रहे। पौराणिक महत्व का नागवासुकी मंदिर समय के थपेड़ों से जूझते हुए आज अगर अपना अस्तित्व महफूज रखने में कामयाब है तो इसका कुछ श्रेय राघोजी को देना ही होगा। कहानी के अंत में कहने का चलन है कि जैसे उनके दिन बहुरे, वैसे सबके दिन बहुरें। लेकिन कहानी नहीं यह इतिहास है। मराठों और प्रयागराज के रिश्तों की और कई कड़ियां जुड़ती हैं। इसलिए यह किस्सा यहां खत्म नहीं हुआ है। कल हम बात करेंगे वेणी माधव मंदिर और बाई के बाग की।
उत्तर भारत के करीब-करीब मध्य में स्थित होने के कारण प्रयागराज हर दौर में सत्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। मुगलों और अवध के नवाबों से लेकर अंग्रेजों तक सबने प्रयागराज को विशेष अहमियत दी तो इसलिए कि उन्हें यहां से उत्तर भारत के अन्य हिस्सों पर नियंत्रण करना आसान लगा। इतिहास के पन्नों में मराठाओं के प्रयागराज से रिश्ते की कहानी भी दर्ज है। लेकिन, नई पीढ़ी शायद ही इस कहानी से परिचित हो, जिसमें श्रद्धा भी है, आस्था भी है और सत्ता की आक्रामकता भी। यहां इस श्रृंखला में प्रयागराज के मराठों से रिश्तों को एक बार फिर खंगालने की कोशिश की जा रही है।
साल 1739। यह वह दौर था जब औरंगजेब को गुजरे 30 साल से ज्यादा हो चुके थे। यह वह दौर था जब 1732 में सआदत अली खान ने मुगलों की सत्ता को धता बताते हुए अवध में अपनी स्वतंत्र हुकूमत स्थापित कर ली थी। यह वह दौर था जब ईरान से आए नादिरशाह ने दिल्ली में कत्लेआम मचाया। उसने कभी कंधार तक राज करने वाले मुगलों को करनाल के एक छोटे से युद्ध में आसानी से हरा दिया।हालांकि नादिरशाह से भी ज्यादा निर्दयी अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले में अभी 20 साल बाकी थे। इतिहास में इलाहाबाद की प्रथम संधि के तौर पर दर्ज 1765 की शातिर क्लाइव, कमजोर मुगल शाह आलम द्वितीय और बंगाल के नवाब नजमुद्दौला के बीच की संधि अभी होनी शेष थी। लेकिन यह भी सच था कि कभी जहांगीर के दरबार में फर्शी सलाम बजाते हुए हिंदुस्तान में तिजारत की इजाजत मांगने वाले टॉमस रो के देश के बाशिंदे अब शातिराना चालों से धीरे-धीरे पूरे हिंदुस्तान को अपने कब्जे में ले रहे थे। …तो ठीक उथल-पुथल भरे इसी दौर में संगम नगरी एक नए संघात की साक्षी बन रही थी।
मुगल बादशाही कमजोर हो जाने के बाद मराठों के हौसले बुलंद थे। वह उत्तर को अपने कब्जे में लेकर पूरे हिंदुस्तान के स्वामी बनने की रणनीति पर काम कर रहे थे। उनकी इस हसरत का एक धार्मिक पहलू भी था। मराठों के मन में काशी, प्रयाग और मथुरा जैसे प्रमुख धार्मिक स्थलों वाले क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लेकर खुद को हिंदुत्व के शीर्षस्थ प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करने का सपना तेजी से कुलाचें भर रहा था। इसी उद्देश्य को पूरा करने करने के लिए नागपुर के शासक राघोजी भोसले ने 1739 में इलाहाबाद पर हमला बोला।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं, उन दिनों अवध के शासक नवाब वजीर के प्रतिनिधियों के तौर पर शुजा खान के पास इलाहाबाद सूबे की जिम्मेदारी थी। बुंदेलखंड के रास्ते इलाहाबाद पहुंचे मराठों को रोकने की शुजा खान ने भरसक कोशिश की लेकिन वह कामयाब नहीं हुआ। शुजा खान मारा गया और जीत का सेहरा राघोजी के सिर बंधा। प्रो. चतुर्वेदी बताते हैं कि विजय हासिल करने के बाद मराठा सैनिक कुछ इस कदर बेकाबू हो गए कि उन्होंने सारे अनुशासन तोड़ दिए। इस पौराणिक नगरी को बुरी तरह से लूटा गया। जनहानि भी कम नहीं हुई।
कहते हैं उत्पीड़न से दुखी इलाहाबाद के लोगों ने राघोजी भोसले को जमकर कोसा। राधोजी के लिए बुरे से बुरे की कामना की। सत्ताधीशों को इस तरह की लानत मलानत की आदत होती है। सत्ता की ताकत उन्हें इस कदर अंधा कर देती है कि वे आमतौर पर जनता के शापों की परवाह नहीं करते थे। लेकिन दुर्भाग्य से इलाहाबाद विजय के बाद नागपुर पहुंचने पर राघोजी भोसले गंभीर रूप से बीमार हो गए।बताते हैं कि उनको कुष्ठ रोग हो गया। तमाम जड़ी-बूटी और पूजा-प्रार्थना के बावजूद जब राघोजी की तबीयत ठीक नहीं हुई तो राजपुरोहित बुलाए गए। उनके राजपुरोहित ने मनौती मानी कि राजा रोगमुक्त हो जाएंगे तो वह दारागंज के नागवासुकि मंदिर का जीर्णोद्धार कराएंगे। और जैसा कि इस तरह की हर कहानी में होता है, राजा सचमुच रोगमुक्त हो गए। इसके बाद राजपुरोहित श्रीधर ने वादे के मुताबिक न केवल नागवासुकि मंदिर का जीर्णोद्धार कराया बल्कि गंगा किनारे पक्के घाट भी बनवाए।मंदिर के वर्तमान प्रधान पुजारी श्यामधर त्रिपाठी बताते हैं कि इस घटना के बाद राजा भोसले मंदिर के अनन्य भक्त हो गए। जब तक जीवित रहे मंदिर की देखरेख के लिए अनुदान सहित कई तरह से सहयोग करते रहे। पौराणिक महत्व का नागवासुकी मंदिर समय के थपेड़ों से जूझते हुए आज अगर अपना अस्तित्व महफूज रखने में कामयाब है तो इसका कुछ श्रेय राघोजी को देना ही होगा। कहानी के अंत में कहने का चलन है कि जैसे उनके दिन बहुरे, वैसे सबके दिन बहुरें। लेकिन कहानी नहीं यह इतिहास है। मराठों और प्रयागराज के रिश्तों की और कई कड़ियां जुड़ती हैं। इसलिए यह किस्सा यहां खत्म नहीं हुआ है। कल हम बात करेंगे वेणी माधव मंदिर और बाई के बाग की।
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