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चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि पर विशेष: सियासत के तूफान में फंसी विरासत की किश्ती को क्या निकाल पाएंगे जयंत चौधरी

सार
चौधरी चरण सिंह ने किसान जातियों का जो बड़ा सियासी वट वृक्ष तैयार किया था उसकी डालियां टूटकर बिखर चुकी हैं। मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादव जो कभी चरण सिंह के वैसे ही कट्टर सिपाही थे जैसे पश्चिम में जाट, अब रालोद के साथ नहीं मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और उनके पुत्र अखिलेश यादव के साथ हैं…

चौधरी चरण सिंह, अजित सिंह और जयंत चौधरी
– फोटो : Amar Ujala

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आजाद भारत में किसान राजनीति के जनक चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि 29 मई से महज कुछ दिन पहले उनके पौत्र जयंत चौधरी ने अपने पिता अजित सिंह के निधन के बाद राष्ट्रीय लोक दल की कमान संभाली है। जयंत ने यह कमान तब संभाली है जब उनके गृह राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अगले साल फरवरी-मार्च में होने वाले हैं। यह चुनाव जयंत के लिए पहली अग्निपरीक्षा होगी जिसे पार करना उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। अभी तक जयंत के सिर पर उनके पिता अजित सिंह का साया था और उनके दल राष्ट्रीय लोक दल की सफलता का सेहरा भी अजित सिंह के सिर बंधता था और विफलता का ठीकरा भी उनके सिर फूटता था। लेकिन अब सब कुछ जयंत के खाते में जाएगा, सफलता भी और विफलता भी। इसलिए अब जयंत चौधरी को अपने फैसले बेहद सूझबूझ से लेने होंगे और अपनी टीम बनाने में भी उन्हें सही-गलत की पहचान करनी होगी।जयंत चौधरी जिस राजनीतिक परिवार से हैं उत्तर भारत में उसकी विरासत कांग्रेस के प्रथम परिवार से कम नहीं थी। जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह पूरी हिंदी-पट्टी के किसानों के एकछत्र नेता रहे हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सहकारिता कृषि की नीति का उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए खुलकर विरोध तब किया था, जब पार्टी के भीतर ही नहीं बाहर भी नेहरू को चुनौती देने वाले बहुत कम नेता थे। आमतौर पर मौजूदा समय का मीडिया चरण सिंह को जाट नेता के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि हकीकत यह है कि चरण सिंह कभी भी खुद को जाट नेता कहलाना पसंद नहीं करते थे। वह सभी किसान जातियों के नेता थे।उन्होंने जाट, गुर्जर, यादव, कुर्मी, शाक्य, कोईरी, सैनी, कुशवाहा आदि तमाम उन जातियों को अपने झंडे के नीचे एकजुट किया था, जिनका खेती-किसानी और गांव-देहात की अर्थव्यवस्था से संबंध था। यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम किसान भी चरण सिंह को अपना नेता मानते थे और सहारनपुर से लेकर लोनी तक एक समय चरण सिंह के दल के टिकट पर दर्जनों मुसलमान विधानसभा और लोकसभा में चुनकर जाते थे। राजस्थान, हरियाणा ,उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में तो किसान जातियों के बीच चरण सिंह का सिक्का ही चलता था। उनकी लोकप्रियता महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और उड़ीसा जैसे दूरदराज के राज्यों के किसानों में भी थी।
समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के एकछत्र राज्य को चुनौती देने के लिए पिछड़ों और किसान जातियों के जिस राजनीतिक गठजोड़ का सिद्धांत दिया था, चरण सिंह ने उसे व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। भारतीय क्रांति दल की स्थापना से लेकर भारतीय लोक दल, जनता पार्टी, दलित मजदूर किसान पार्टी और लोक दल तक का उनका सियासी सफर पिछड़ों और किसान जातियों की सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई की ही कहानी है। उनकी इसी ताकत ने चरण सिंह को प्रधानमंत्री तक की कुर्सी तक पहुंचाया और किसान राजनीति को देश की सियासत में स्थापित किया।जैसे आज अजित सिंह के न रहने पर जयंत ने उनकी विरासत की कमान संभाली है, वैसे ही कभी चरण सिंह के स्वर्गवासी होने पर अजित सिंह को अपने पिता की किसान विरासत मिली थी। वह दौर था जब हरियाणा में चरण सिंह के ही शिष्य देवीलाल, अजित सिंह को न सिर्फ चुनौती दे रहे थे बल्कि उत्तर प्रदेश में चरण सिंह के दूसरे चेले मुलायम सिंह यादव और बिहार में लोहिया चरण सिंह के अनुयायी कर्पूरी ठाकुर को भी बड़े चौधरी की किसान विरासत को बांटने के लिए तैयार कर रहे थे। अजित सिंह को इतनी बड़ी विरासत उसी तरह अचानक मिली थी जैसे कि इंदिरा गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी को उनकी विशाल विरासत एकाएक मिल गई थी। फर्क ये था कि राजीव को विरासत के साथ साथ देश की सत्ता भी मिली थी, जबकि अजित को विरासत के साथ मिला था वह संघर्ष जो उन्हें अपनों से भी लड़ना था और दूसरों से भी।अजित सिंह ने अपने तरीके से ये लड़ाई लड़ी और कभी सफल हुए तो कभी विफल। अजित सिंह को जब अपने पिता की विरासत मिली थी तो राजनीति में उनका तजुर्बा न के बराबर था, लेकिन जयंत पिछले कई साल से राजनीति में हैं और वह लोकसभा के सांसद भी रह चुके हैं। पिछले करीब पांच सालों से अजित सिंह ने खुद को पीछे करके जयंत को आगे कर दिया था और राष्ट्रीय लोक दल के फैसले ज्यादातर जयंत ही लेते थे और उन पर अंतिम मुहर अजित सिंह लगाते थे। इसलिए जयंत राजनीति में वैसे नौसिखिया नहीं हैं जैसे कि कभी अपने शुरुआती दिनों में राजीव गांधी और अजित सिंह रहे थे जब उन्होंने अपने अपने परिवारों की राजनीतिक विरासत संभाली थी।
अजित सिंह को अपने पिता की लंबी चौड़ी राजनीतिक विरासत तो मिली थी, लेकिन साथ ही उस विरासत के कई कद्दावर दावेदार भी चुनौती बनकर खड़े थे जिनसे उन्हें सारी जिंदगी जूझना पड़ा। जबकि जयंत चौधरी को जो विरासत मिली है उसका दायरा अब बेहद सीमित है और उनके सामने उस विरासत का कोई दूसरा दावेदार फिलहाल नहीं है। आज राष्ट्रीय लोक दल का सियासी प्रभाव महज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद, मेरठ, बागपत, शामली, हापुड़, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, बुलंदशहर, आगरा, अलीगढ़, मथुरा औऱ फिरोजाबाद जिलों तक सीमित है। इन जिलों में भी पिछले विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में रालोद के जनाधार का बहुसंख्यक हिस्सा भाजपा के साथ चला गया था। जिसे वापस लाने की कड़ी चुनौती है।2019 के लोकसभा चुनावों में अपने दादा और पिता के गढ़ बागपत से खुद जयंत चौधरी और मुजफ्फरनगर से अजित सिंह तक चुनाव हार गए थे। हालांकि राजनीति में चुनाव हारने भर से ही किसी का सियासी सफर खत्म नहीं होता है। खुद चौधऱी चरण सिंह मुजफ्फरनगर से लोकसभा का चुनाव तब हार गए थे, जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे। लेकिन उसके बाद वह देश के गृह मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे। राममनोहर लोहिया, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, मेनका गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कई दिग्गज भी चुनावी हार के बावजूद न रुके न थके न झुके।चौधरी चरण सिंह ने किसान जातियों का जो बड़ा सियासी वट वृक्ष तैयार किया था उसकी डालियां टूटकर बिखर चुकी हैं। मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादव जो कभी चरण सिंह के वैसे ही कट्टर सिपाही थे जैसे पश्चिम में जाट, अब रालोद के साथ नहीं मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और उनके पुत्र अखिलेश यादव के साथ हैं। गुर्जर, कुर्मी, सैनी, मौर्य, कुशवाहा, शाक्य आदि किसान जातियां भी वैसे ही बंट कर कहीं भाजपा तो कहीं सपा तो कहीं बसपा या अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ हो गई हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में चरण सिंह जमाने में गांवों में जो जाट-मुस्लिम समीकरण रालोद की जीत की गारंटी हुआ करता था 2013 के मुजफ्फरनगर जिले में हुए भीषण दंगों ने उसे भी तार-तार कर दिया। अपनी तमाम कोशिशों से भी अजित सिंह उसे दोबारा जोड़ नहीं सके थे।
अजित को जब लोकदल की कमान मिली थी तो क्षेत्रीय विस्तार के साथ-साथ उसका सांगठनिक विस्तार भी खासा व्यापक था। कई बड़े दिग्गज नेता तब लोक दल में थे जिनके अपने-अपने राज्यों क्षेत्रों में जनाधार थे। इनमें से कई आगे चलकर अजित सिंह का साथ छोड़ गए और कई को रालोद की भीतरी राजनीति ने बाहर जाने को मजबूर कर दिया। इससे भी रालोद की ताकत कमजोर हुई। चरण सिंह के हरियाणा और राजस्थान के जनाधार में देवीलाल ने सेंध लगा दी, जबकि मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव उसे अपने साथ ले गए तो बिहार में कर्पूरी ठाकुर और आगे चलकर लालू यादव और नीतीश कुमार उस राजनीति के वाहक बन गए। एक दौर था जब अजित सिंह जनता दल में विश्वनाथ प्रताप सिंह, देवीलाल, चंद्रशेखर, रामकृष्ण हेगड़े, बीजू पटनायक, एच.डी. देवेगौड़ा, मुफ्ती सईद, जार्ज फर्नांडीस, रामविलास पासवान, सत्यपाल मलिक, रामनरेश यादव, केसी त्यागी, शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव जैसे दिग्गज साथ थे और उनकी गिनती जनता दल में चोटी के चार नेताओं विश्वनाथ प्रताप सिंह चंद्रशेखर और देवीलाल के साथ होती थी।जयंत के लिए तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कुछ बातें बेहद सकारात्मक हैं। पहली बात तो यह कि जयंत के लिए रालोद में वैसी कोई चुनौती नहीं है जैसी कि अजित को लोकदल में थी। इसलिए जयंत के सामने आगे बढ़ने का खुला मैदान है। उन्हें सबसे पहले अपने जनाधार क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ना होगा। इसके लिए उनके दादा चरण सिंह के अनुयायी और पिता अजित सिंह के सहयोगी रहे त्रिलोक त्यागी जैसे विचार और परिवार के प्रति वफादार नेताओं पर भरोसा करके उनकी सलाह और मदद लेनी होगी। क्योंकि रालोद में अब त्रिलोक त्यागी की वरिष्ठता का कोई अन्य नेता होगा जिसे पार्टी और परिवार की तीनों पीढ़ियों के साथ काम करने का अनुभव हो। इसी तरह उन्हें अपने दूसरे ऐसे सहयोगियों को आगे बढ़ाना होगा जो न सिर्फ उनके प्रति बल्कि चौधरी चरण सिंह के विचारों के प्रति भी वफादार हों। क्योंकि व्यक्तिगत निष्ठा और विचार निष्ठा के बीच बेहद पतली सीमा रेखा है और अकसर बड़े नेता निजी वफादारी को विचार निष्ठा मान लेते हैं या निजी वफादारी को ज्यादा तरजीह देते हैं। लेकिन चापलूसों की निजी वफादारी में स्थायित्व नहीं होता और संकट के समय या ज्यादा प्रलोभन मिलने पर ऐसे चापलूस साथ छोड़ देते हैं या विरोधियों के लिए उन्हें खरीदना आसान होता है, जबकि विचार निष्ठा वाले भले ही स्पष्ट बोल कर कुछ देर के लिए तकलीफ दे सकते हैं लेकिन उनका साथ दूरगामी और स्थाई होता है।संकट के समय वही साथ रहते हैं और विरोधी उन्हें प्रलोभन देकर खरीद नहीं पाते हैं। यह बिडंबना ही है कि जयंत के पिता अजित सिंह ने इस फर्क को बहुत देर से समझा और तब तक वह अपनी सियासी जमीन काफी हद तक खो चुके थे। जयंत को यह गलती दोहरानी नहीं चाहिए। इसके साथ ही जयंत को उन पुराने नेताओं को जो कभी चरण सिंह और अजित सिंह के साथ रहे थे और किन्हीं कारणों से उनसे अलग हो गए, जिनमें कुछ घर बैठ गए तो कुछ दूसरे दलों में चले गए लेकिन उनके दिलों में आज भी चरण सिंह और उनके विचार जिंदा है, के साथ संवाद कायम करना होगा। इनमें जो उनके साथ फिर आ सकें उन्हें सम्मान देकर वापस लाना चाहिए और जो न आ सकें तो उनसे समय समय पर सलाह और सुझाव लेते रहना चाहिए।
जयंत की ताजपोशी ऐसे समय हुई है जब दिल्ली की सीमाओं पर किसान महीनों से डेरा डाले हुए हैं। इनमें ज्यादातर किसान पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के हैं। 26 जनवरी को लालकिले में हुए हंगामे के बाद जब किसान आंदोलन टूटने और बिखरने की कगार तक पहुंच गया था, तब गाजीपुर बार्डर पर बैठे भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत के आंसुओं को सबसे पहले अजित सिंह ने ही फोन करके पोछने और उनका हौसला बढ़ाने का काम किया था। यही नहीं अजित सिंह ने फोन करके रालोद के सभी पदाधिकारियों को किसानों का साथ देने को कहा और जयंत को उनके बीच भेजा। जयंत ने गाजीपुर पहुंचकर किसानों का दिल भी जीता और उसके बाद लगातार कई किसान पंचायतें करके उन्होंने किसानों का जनाधार वापस भाजपा से रालोद की तरफ करने की कोशिश की है।अब जयंत को इस मौके का फायदा उठाते हुए इस इलाके के जाट औऱ मुस्लिम किसानों के बीच जो दरार 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से पैदा हुई थी, उसे भरने का काम करना होगा। अगर जयंत इसमें कामयाब हो गए तो निश्चित रूप से वह खुद को और रालोद को राजनीति में प्रांसगिक बना सकेंगे। कोरोना संकट से जूझती केंद्र और प्रदेश सरकार और गांवों में कोरोना के कहर से भाजपा के प्रति जो नाराजगी बढ़ रही है, गन्ना किसानों का भुगतान का मुद्दा और ऐसे ही अन्य मुद्दों को लेकर जयंत अगर रालोद को किसी केंद्रीय भूमिका में ला पाते हैं तो निश्चित रूप से वह जनअसंतोष को रालोद के पक्ष में समर्थन का रूप दे सकते हैं।समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ जयंत के रिश्ते अच्छे हैं और दोनों ने मिलकर कई किसान पंचायतों को संबोधित भी किया और पंचायत चुनावों में भी साथ मिलकर लड़े। यह दोनों के लिए ही अच्छा है क्योंकि इन दोनों के पिता अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के सियासी झगड़े ने ही चरण सिंह की विरासत को बंटने और बिखरने का मौका दिया। अब अगर ये दोनों मिलकर चलते हैं तो उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर बदल सकती है।

विस्तार

आजाद भारत में किसान राजनीति के जनक चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि 29 मई से महज कुछ दिन पहले उनके पौत्र जयंत चौधरी ने अपने पिता अजित सिंह के निधन के बाद राष्ट्रीय लोक दल की कमान संभाली है। जयंत ने यह कमान तब संभाली है जब उनके गृह राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अगले साल फरवरी-मार्च में होने वाले हैं। यह चुनाव जयंत के लिए पहली अग्निपरीक्षा होगी जिसे पार करना उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। अभी तक जयंत के सिर पर उनके पिता अजित सिंह का साया था और उनके दल राष्ट्रीय लोक दल की सफलता का सेहरा भी अजित सिंह के सिर बंधता था और विफलता का ठीकरा भी उनके सिर फूटता था। लेकिन अब सब कुछ जयंत के खाते में जाएगा, सफलता भी और विफलता भी। इसलिए अब जयंत चौधरी को अपने फैसले बेहद सूझबूझ से लेने होंगे और अपनी टीम बनाने में भी उन्हें सही-गलत की पहचान करनी होगी।

जयंत चौधरी जिस राजनीतिक परिवार से हैं उत्तर भारत में उसकी विरासत कांग्रेस के प्रथम परिवार से कम नहीं थी। जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह पूरी हिंदी-पट्टी के किसानों के एकछत्र नेता रहे हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सहकारिता कृषि की नीति का उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए खुलकर विरोध तब किया था, जब पार्टी के भीतर ही नहीं बाहर भी नेहरू को चुनौती देने वाले बहुत कम नेता थे। आमतौर पर मौजूदा समय का मीडिया चरण सिंह को जाट नेता के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि हकीकत यह है कि चरण सिंह कभी भी खुद को जाट नेता कहलाना पसंद नहीं करते थे। वह सभी किसान जातियों के नेता थे।

उन्होंने जाट, गुर्जर, यादव, कुर्मी, शाक्य, कोईरी, सैनी, कुशवाहा आदि तमाम उन जातियों को अपने झंडे के नीचे एकजुट किया था, जिनका खेती-किसानी और गांव-देहात की अर्थव्यवस्था से संबंध था। यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम किसान भी चरण सिंह को अपना नेता मानते थे और सहारनपुर से लेकर लोनी तक एक समय चरण सिंह के दल के टिकट पर दर्जनों मुसलमान विधानसभा और लोकसभा में चुनकर जाते थे। राजस्थान, हरियाणा ,उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में तो किसान जातियों के बीच चरण सिंह का सिक्का ही चलता था। उनकी लोकप्रियता महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और उड़ीसा जैसे दूरदराज के राज्यों के किसानों में भी थी।

समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस के एकछत्र राज्य को चुनौती देने के लिए पिछड़ों और किसान जातियों के जिस राजनीतिक गठजोड़ का सिद्धांत दिया था, चरण सिंह ने उसे व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। भारतीय क्रांति दल की स्थापना से लेकर भारतीय लोक दल, जनता पार्टी, दलित मजदूर किसान पार्टी और लोक दल तक का उनका सियासी सफर पिछड़ों और किसान जातियों की सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई की ही कहानी है। उनकी इसी ताकत ने चरण सिंह को प्रधानमंत्री तक की कुर्सी तक पहुंचाया और किसान राजनीति को देश की सियासत में स्थापित किया।जैसे आज अजित सिंह के न रहने पर जयंत ने उनकी विरासत की कमान संभाली है, वैसे ही कभी चरण सिंह के स्वर्गवासी होने पर अजित सिंह को अपने पिता की किसान विरासत मिली थी। वह दौर था जब हरियाणा में चरण सिंह के ही शिष्य देवीलाल, अजित सिंह को न सिर्फ चुनौती दे रहे थे बल्कि उत्तर प्रदेश में चरण सिंह के दूसरे चेले मुलायम सिंह यादव और बिहार में लोहिया चरण सिंह के अनुयायी कर्पूरी ठाकुर को भी बड़े चौधरी की किसान विरासत को बांटने के लिए तैयार कर रहे थे। अजित सिंह को इतनी बड़ी विरासत उसी तरह अचानक मिली थी जैसे कि इंदिरा गांधी के मरने के बाद राजीव गांधी को उनकी विशाल विरासत एकाएक मिल गई थी। फर्क ये था कि राजीव को विरासत के साथ साथ देश की सत्ता भी मिली थी, जबकि अजित को विरासत के साथ मिला था वह संघर्ष जो उन्हें अपनों से भी लड़ना था और दूसरों से भी।अजित सिंह ने अपने तरीके से ये लड़ाई लड़ी और कभी सफल हुए तो कभी विफल। अजित सिंह को जब अपने पिता की विरासत मिली थी तो राजनीति में उनका तजुर्बा न के बराबर था, लेकिन जयंत पिछले कई साल से राजनीति में हैं और वह लोकसभा के सांसद भी रह चुके हैं। पिछले करीब पांच सालों से अजित सिंह ने खुद को पीछे करके जयंत को आगे कर दिया था और राष्ट्रीय लोक दल के फैसले ज्यादातर जयंत ही लेते थे और उन पर अंतिम मुहर अजित सिंह लगाते थे। इसलिए जयंत राजनीति में वैसे नौसिखिया नहीं हैं जैसे कि कभी अपने शुरुआती दिनों में राजीव गांधी और अजित सिंह रहे थे जब उन्होंने अपने अपने परिवारों की राजनीतिक विरासत संभाली थी।

अजित सिंह को अपने पिता की लंबी चौड़ी राजनीतिक विरासत तो मिली थी, लेकिन साथ ही उस विरासत के कई कद्दावर दावेदार भी चुनौती बनकर खड़े थे जिनसे उन्हें सारी जिंदगी जूझना पड़ा। जबकि जयंत चौधरी को जो विरासत मिली है उसका दायरा अब बेहद सीमित है और उनके सामने उस विरासत का कोई दूसरा दावेदार फिलहाल नहीं है। आज राष्ट्रीय लोक दल का सियासी प्रभाव महज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद, मेरठ, बागपत, शामली, हापुड़, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, बुलंदशहर, आगरा, अलीगढ़, मथुरा औऱ फिरोजाबाद जिलों तक सीमित है। इन जिलों में भी पिछले विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में रालोद के जनाधार का बहुसंख्यक हिस्सा भाजपा के साथ चला गया था। जिसे वापस लाने की कड़ी चुनौती है।2019 के लोकसभा चुनावों में अपने दादा और पिता के गढ़ बागपत से खुद जयंत चौधरी और मुजफ्फरनगर से अजित सिंह तक चुनाव हार गए थे। हालांकि राजनीति में चुनाव हारने भर से ही किसी का सियासी सफर खत्म नहीं होता है। खुद चौधऱी चरण सिंह मुजफ्फरनगर से लोकसभा का चुनाव तब हार गए थे, जब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे। लेकिन उसके बाद वह देश के गृह मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे। राममनोहर लोहिया, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, मेनका गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कई दिग्गज भी चुनावी हार के बावजूद न रुके न थके न झुके।चौधरी चरण सिंह ने किसान जातियों का जो बड़ा सियासी वट वृक्ष तैयार किया था उसकी डालियां टूटकर बिखर चुकी हैं। मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में यादव जो कभी चरण सिंह के वैसे ही कट्टर सिपाही थे जैसे पश्चिम में जाट, अब रालोद के साथ नहीं मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और उनके पुत्र अखिलेश यादव के साथ हैं। गुर्जर, कुर्मी, सैनी, मौर्य, कुशवाहा, शाक्य आदि किसान जातियां भी वैसे ही बंट कर कहीं भाजपा तो कहीं सपा तो कहीं बसपा या अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ हो गई हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में चरण सिंह जमाने में गांवों में जो जाट-मुस्लिम समीकरण रालोद की जीत की गारंटी हुआ करता था 2013 के मुजफ्फरनगर जिले में हुए भीषण दंगों ने उसे भी तार-तार कर दिया। अपनी तमाम कोशिशों से भी अजित सिंह उसे दोबारा जोड़ नहीं सके थे।

अजित को जब लोकदल की कमान मिली थी तो क्षेत्रीय विस्तार के साथ-साथ उसका सांगठनिक विस्तार भी खासा व्यापक था। कई बड़े दिग्गज नेता तब लोक दल में थे जिनके अपने-अपने राज्यों क्षेत्रों में जनाधार थे। इनमें से कई आगे चलकर अजित सिंह का साथ छोड़ गए और कई को रालोद की भीतरी राजनीति ने बाहर जाने को मजबूर कर दिया। इससे भी रालोद की ताकत कमजोर हुई। चरण सिंह के हरियाणा और राजस्थान के जनाधार में देवीलाल ने सेंध लगा दी, जबकि मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव उसे अपने साथ ले गए तो बिहार में कर्पूरी ठाकुर और आगे चलकर लालू यादव और नीतीश कुमार उस राजनीति के वाहक बन गए। एक दौर था जब अजित सिंह जनता दल में विश्वनाथ प्रताप सिंह, देवीलाल, चंद्रशेखर, रामकृष्ण हेगड़े, बीजू पटनायक, एच.डी. देवेगौड़ा, मुफ्ती सईद, जार्ज फर्नांडीस, रामविलास पासवान, सत्यपाल मलिक, रामनरेश यादव, केसी त्यागी, शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव जैसे दिग्गज साथ थे और उनकी गिनती जनता दल में चोटी के चार नेताओं विश्वनाथ प्रताप सिंह चंद्रशेखर और देवीलाल के साथ होती थी।जयंत के लिए तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कुछ बातें बेहद सकारात्मक हैं। पहली बात तो यह कि जयंत के लिए रालोद में वैसी कोई चुनौती नहीं है जैसी कि अजित को लोकदल में थी। इसलिए जयंत के सामने आगे बढ़ने का खुला मैदान है। उन्हें सबसे पहले अपने जनाधार क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ना होगा। इसके लिए उनके दादा चरण सिंह के अनुयायी और पिता अजित सिंह के सहयोगी रहे त्रिलोक त्यागी जैसे विचार और परिवार के प्रति वफादार नेताओं पर भरोसा करके उनकी सलाह और मदद लेनी होगी। क्योंकि रालोद में अब त्रिलोक त्यागी की वरिष्ठता का कोई अन्य नेता होगा जिसे पार्टी और परिवार की तीनों पीढ़ियों के साथ काम करने का अनुभव हो। इसी तरह उन्हें अपने दूसरे ऐसे सहयोगियों को आगे बढ़ाना होगा जो न सिर्फ उनके प्रति बल्कि चौधरी चरण सिंह के विचारों के प्रति भी वफादार हों। क्योंकि व्यक्तिगत निष्ठा और विचार निष्ठा के बीच बेहद पतली सीमा रेखा है और अकसर बड़े नेता निजी वफादारी को विचार निष्ठा मान लेते हैं या निजी वफादारी को ज्यादा तरजीह देते हैं। लेकिन चापलूसों की निजी वफादारी में स्थायित्व नहीं होता और संकट के समय या ज्यादा प्रलोभन मिलने पर ऐसे चापलूस साथ छोड़ देते हैं या विरोधियों के लिए उन्हें खरीदना आसान होता है, जबकि विचार निष्ठा वाले भले ही स्पष्ट बोल कर कुछ देर के लिए तकलीफ दे सकते हैं लेकिन उनका साथ दूरगामी और स्थाई होता है।संकट के समय वही साथ रहते हैं और विरोधी उन्हें प्रलोभन देकर खरीद नहीं पाते हैं। यह बिडंबना ही है कि जयंत के पिता अजित सिंह ने इस फर्क को बहुत देर से समझा और तब तक वह अपनी सियासी जमीन काफी हद तक खो चुके थे। जयंत को यह गलती दोहरानी नहीं चाहिए। इसके साथ ही जयंत को उन पुराने नेताओं को जो कभी चरण सिंह और अजित सिंह के साथ रहे थे और किन्हीं कारणों से उनसे अलग हो गए, जिनमें कुछ घर बैठ गए तो कुछ दूसरे दलों में चले गए लेकिन उनके दिलों में आज भी चरण सिंह और उनके विचार जिंदा है, के साथ संवाद कायम करना होगा। इनमें जो उनके साथ फिर आ सकें उन्हें सम्मान देकर वापस लाना चाहिए और जो न आ सकें तो उनसे समय समय पर सलाह और सुझाव लेते रहना चाहिए।

जयंत की ताजपोशी ऐसे समय हुई है जब दिल्ली की सीमाओं पर किसान महीनों से डेरा डाले हुए हैं। इनमें ज्यादातर किसान पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के हैं। 26 जनवरी को लालकिले में हुए हंगामे के बाद जब किसान आंदोलन टूटने और बिखरने की कगार तक पहुंच गया था, तब गाजीपुर बार्डर पर बैठे भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत के आंसुओं को सबसे पहले अजित सिंह ने ही फोन करके पोछने और उनका हौसला बढ़ाने का काम किया था। यही नहीं अजित सिंह ने फोन करके रालोद के सभी पदाधिकारियों को किसानों का साथ देने को कहा और जयंत को उनके बीच भेजा। जयंत ने गाजीपुर पहुंचकर किसानों का दिल भी जीता और उसके बाद लगातार कई किसान पंचायतें करके उन्होंने किसानों का जनाधार वापस भाजपा से रालोद की तरफ करने की कोशिश की है।अब जयंत को इस मौके का फायदा उठाते हुए इस इलाके के जाट औऱ मुस्लिम किसानों के बीच जो दरार 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से पैदा हुई थी, उसे भरने का काम करना होगा। अगर जयंत इसमें कामयाब हो गए तो निश्चित रूप से वह खुद को और रालोद को राजनीति में प्रांसगिक बना सकेंगे। कोरोना संकट से जूझती केंद्र और प्रदेश सरकार और गांवों में कोरोना के कहर से भाजपा के प्रति जो नाराजगी बढ़ रही है, गन्ना किसानों का भुगतान का मुद्दा और ऐसे ही अन्य मुद्दों को लेकर जयंत अगर रालोद को किसी केंद्रीय भूमिका में ला पाते हैं तो निश्चित रूप से वह जनअसंतोष को रालोद के पक्ष में समर्थन का रूप दे सकते हैं।समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ जयंत के रिश्ते अच्छे हैं और दोनों ने मिलकर कई किसान पंचायतों को संबोधित भी किया और पंचायत चुनावों में भी साथ मिलकर लड़े। यह दोनों के लिए ही अच्छा है क्योंकि इन दोनों के पिता अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के सियासी झगड़े ने ही चरण सिंह की विरासत को बंटने और बिखरने का मौका दिया। अब अगर ये दोनों मिलकर चलते हैं तो उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर बदल सकती है।