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बाहुबलियों की कहानी: बृजेश, मुख्तार दोनों राजनीतिक संरक्षण में गैंगवार को अंजाम देकर बन गए माफिया डॉन, देखती रही सरकार

ब्रजेश सिंह और मुख्तार अंसारी
– फोटो : Amar Ujala

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पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपराध जगत की बात हो और गोरखपुर के हरिशंकर तिवारी से शुरुआत न हो तो कहानी अधूरी रहेगी। हरिशंकर तिवारी के प्रतिद्वंदी थे वीरेन्द्र प्रताप शाही। ब्राह्मण बनाम ठाकुर के समीकरण पर दोनों का साम्राज्य कायम था। रेलवे के ठेके दोनों के लिए अहम थे। हरिशंकर तिवारी ने धीरे-धीरे राजनीति में कदम बढ़ा दिया। यहां से राजनीति और अपराध में कुछ ज्यादा घुलमिल गए। इसी रास्ते पर गाजीपुर में दबंगई का रास्ता चुनकर अपराध और गैंगवार तक पहुंचे मुख्तार अंसारी ने भी चलना ठीक समझा। हालांकि मुख्तार का परिवार दादा के जमाने से भारतीय राजनीति में काफी रसूखदार था।
राजनीति बना रही है बाहुबलियों को ताकतवर
मुख्तार को मिले राजनीतिक संरक्षण ने उन्हें बाहुबली बना दिया। इसी राजनीति में मुख्तार के जानी दुश्मन बृजेश सिंह को भी भविष्य सुरक्षित नजर आया। पहले उनके भाई उदयभान सिंह, भतीजे सुशील सिंह, बृजेश की पत्नी अन्नपूर्णा सिंह और अंत में बाहुबली बृजेश सिंह ने भी उत्तर प्रदेश विधान परिषद में जगह ले ली। राजनीति की अहमियत को उत्तर प्रदेश और बिहार के माफिया अच्छी तरह से समझने लगे हैं। बिहार में दर्जनों माफिया राजनीति में पर्दापण कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश में भी अभय सिंह, धनंजय सिंह, विनीत सिंह, विजय मिश्रा जैसे तमाम माफिया ने एंट्री लेकर अपनी जगह बना ली है। प्रतापगढ़ के रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया भी अपनी तरह के बाहुबली हैं। मुख्तार अंसारी, बड़े भाई अफजाल अंसारी, मोहम्मद अतीक सब राजनीति में हैं। मुख्तार ने अपने बेटे अब्बास अंसारी को भी चुनाव में उतारा। उनके रिश्ते में चाचा कहे जाने वाले हामिद अंसारी देश के उपराष्ट्रपति रह चुके हैं और दादा मुख्तार अहमद अंसारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय स्तर के नेता रहे थे।
बात मुख्तार और बृजेश सिंह की
80 के दशक में अपराध जगत में कदम रखने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के दोनों माफिया डॉन ने 90 के दशक में गैंगवार के रूप में खुली चुनौती देनी शुरू कर दी। मुख्तार अंसारी ने अपने गुर्गों, सहयोगियों के जरिए जहां दुश्मन को घेरकर गोलियों से छलनी करने की रणनीति अपनाई, वहीं धरहरा के बृजेश सिंह ने अंडरग्राउंड रहकर शूटरों, सहयोगियों के सहारे मुख्तार को चुनौती दी। मुख्तार और बृजेश की इस जानी दुश्मनी में साल दर साल खून खराबा चलता रहा। बृजेश सिंह के बारे 2008 में उनके आत्म समर्पण करने के पहले तक दो चीजें आम थी। पहली यह कि चौबेपुर थाना या वाराणसी पुलिस के पास उनकी कोई तस्वीर नहीं है। दूसरे बृजेश चालाक, फुर्तीला, भेष बदलने में माहिर और दुश्मन को बड़े सलीके से ठिकाने लगाता है। यहां तक कि मुख्तार को अपना शिकार बनाने के लिए वह जेल के दरवाजे तक पहुंच चुका था। इतना ही नहीं कोयला, रेलवे, पीडब्ल्यूडी, दूरसंचार समेत अन्य सरकार विभाग में ठेकों आदि के जरिए बृजेश सिंह गैंग ने महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखंड, बिहार तक अपना विस्तार कर लिया था। वहीं मुख्तार ने गाजीपुर, लखनऊ, दिल्ली और जेल में रहकर कोयला, मछली पालन, पीडब्ल्यूडी, समेत अन्य ठेका वसूली आदि के जरिए अपना बड़ा साम्राज्य बना लिया।
90 के दशक में कहीं अधिक घातक हो गए मुख्तार अंसारी
मुख्तार गिरोह में 90 के दशक में मुन्ना बजरंगी जैसा शूटर शामिल हुआ। कहा जाता है कि बागपत जेल में मारे गए मुन्ना के हाथ अपने दुश्मनों पर गोलिया बरसाने में कभी नहीं कांपते थे। इसकी पहली बानगी जौनपुर का रामपुर तिराहा का हत्याकांड है। इसमें मुन्ना बजरंगी ने स्वचालित हथियार से कैलाश दूबे, छात्र नेता राजकुमार सिंह और एक अन्य को गोलियों से छलनी कर दिया था। दूसरी बड़ी वारदात ने उसे हार्डकोर शूटर में बदल दिया। नवंबर 2005 में मुन्ना बजरंगी ने मुख्तार गिरोह के शूटरों के साथ तत्कालीन विधायक कृणानंद राय की हत्या की। कहा जाता है कि इसमें लाइट मशीनगन तक का उपयोग किया गया। इसे मुख्तार ने अपने पूर्व गनर के सहारे उसके सेना के भगोड़े फौजी भाई से बरामद किया था।इस हत्याकांड में सात लोग मारे गए थे और कृष्णानंद राय के शरीर से 60 से अधिक गोलिया बरामद हुई थीं। 400 से अधिक गोलियां चली थी और कारतूस के खोखे इकट्ठा करने में काफी समय लग गया था। जब यह शूट आउट चल रहा था, उस दौरान मुख्तार और फैजाबाद के अभय सिंह के बीच में बातचीत के टेप सामने आए। हालांकि इस हत्याकांड में आरोपी बनाए गए मुख्तार को सबूतों, गवाहों के अभाव में संदेह का लाभ देकर सीबीआई अदालत ने बरी कर दिया है। मामला उच्च न्यायालय में चल रहा है। कहा यह भी जाता मुख्तार पर इससे पहले जानलेवा हमला हुआ था। इस हमले में बाल-बाल बचे मुख्तार ने अपनी दहशत कायम करने के लिए कृष्णानंद राय पर भयानक हमले की साजिश रची थी। खैर, दोनों (मुख्तार और बृजेश) के बीच तीन दशक तक चले गैंगवार में दोनों तरफ के अब तक 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं।
मुख्तार से कहीं भी 19 नहीं है बृजेश का गैंग
बृजेश सिंह (दूसरा नाम अरुण कुमार सिंह) के बारे में कहा जाता है कि होनहार छात्र थे, लेकिन पिता रवीन्द्र सिंह 27 अगस्त 1984 को हत्या कर दी गई। कहा जाता है कि इस हत्या में गांव के हरिहर सिंह और पांचू सिंह और उनके साथियों का नाम आया। बताते हैं इसके बाद बृजेश बदला लेने की आग में झुलसने लगा। करीब एक साल बाद उसके पिता के हत्यारे दिनदहाड़े मारे गए जिनकी हत्या का आरोप उस पर लगा। यह बृजेश पर पहला अपराधिक् मामला था और वह फरार हो गया। 1986 में बृजेश को साथियों के साथ वाराणसी के सिकरौरा गांव में पिता की हत्या में शामिल अन्य पांच लोगों की हत्या में नामजद किया गया। पुलिस ने गिरफ्तार किया और जेल भेज दिया। जेल में बृजेश की मुलाकात त्रिभुवन सिंह से हुई और आगे का सफरनामा दबंगई, माफियागिरी की तरफ बढ़ चला। आगे की कहानी में कितना सच है, वह बृजेश के अलावा कम लोगों को मालुम है। लेकिन कहा जाता है कि बृजेश ने फिर फरारी के दौरान मुंबई का रुख किया। मुंबई में कुख्यात डॉन दाऊद इब्राहिम के संपर्क में आया। बृजेश ने दाऊद के जीजा की हत्या का बदला लेने के लिए डाक्टर के भेष में मुंबई के जेजे अस्पताल में साथियों के साथ एंट्री ली। वहां पुलिस मौजूद थी और पुलिस की मौजूदगी में गवली गिरोह के चार लोगों को गोलियों से भून दिया गया। उसकी चालाकी और फुर्ती से भरी यह वारदात दाऊद को भी दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर कर गई।
कैसे आए दाऊद और बृजेश आमने-सामने
बृजेश सिंह ने गाजीपुर के त्रिभुवन सिंह के साथ मिलकर गिरोह बंदी शुरू की थी। आर्थिक साम्राज्य के लिए रेशम, कोयला, सरकारी विभाग के ठेके अहम थे। दोनों इसे हथियाने में लग गए। बनारस की मशहूर चंदासी कोयला मंडी में भी दबदबा बनाने की होड़ शुरू हो गई। यह वह दौर था जब कोयले की खाफी मांग थी। ईंट-भट्ठे से लेकर हर जगह यह कारोबार फूल रहा था। इसी कारोबार पर वर्चस्व की जंग में सामना मुख्तार अंसारी से हुआ। मुख्तार के पास राजनीतिक रसूख अच्छी खासी थी। इसके चलते संरक्षण भी। बताते हैं दबंगई के इस खेल में मुख्तार भारी पड़ने लगा। यहां से दोनों के बीच में एक दूसरे को देख लेने का दौर शुरू हुआ। अभी तक जारी है। अभी भी यह कहने में गुरेज नहीं है कि मिर्जापुर से लेकर गोरखपुर तक बाहुबल के क्षेत्र में जितने भी नाम चर्चा में हैं उनमें अधिकांश इन दो गुटों से ही जुड़े हैं। प्रयागराज (इलाहाबाद) परिक्षेत्र में मोहम्मद अतीक ने दहशतगर्दी का साम्राज्य बना रखा है, तो बरेली से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंक का पर्याय बने मुख्तार से जुड़े संजीव माहेश्वरी उर्फ जीवा की भी दहशत रहती है।
कहां ठन गई योगी और मुख्तार में
मुख्तार गाजीपुर से बैठकर पूर्वांचल में अपना दबंगई का सिक्का चलाते हैं। दूसरी तरफ 90 के दशक से 2017 के पहले तक गोरक्षापीठ के महंत योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर मंडल में अपना सियासी दबदबा चल रहा था। इस बीच दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक आजमगढ़ के सिवली कालेज की घटना और दूसरी भी इस तरह से थी। तब सांसद योगी आदित्यनाथ ने इसे धर्म की रक्षा से जोड़कर गोरखपुर से कूच किया था। क्षेत्र के जानकार बताते हैं कि इन दोनों घटनाओं में और कुछ और भी ऐसे प्रकरण रहे, जहां  मुख्तार और उनके सहयोगी रास्ते में बाड़ की तरह खड़े हो गए थे। कुछ इसी तरह का आरोप मुख्तार अंसारी से जुड़े लोग भी लगाते हैं। इन सभी लोगों को लग रहा है कि अब योगी आदित्यनाथ राज्य के मुख्यमंत्री हैं। वह मुख्तार के जरिए एक बड़ी सामाजिक, राजनीतिक लड़ाई छेड़कर माफिया मुख्तार पर शिकंजा कसने जा रहे हैं। योगी की यह पहल राज्य के कई बाहुबलियों को बहुत अच्छी लग रही है। समझा जा रहा है कि बांदा जेल में मुख्तार के पहुंचने के बाद अब एक बार फिर नए सिरे से नई लड़ाई शुरू हो सकती है।
न गवाह होता है और न मुकदमे चल पाते हैं
उत्तर प्रदेश के किसी भी बाहुबली नेता को ले लीजिए। अपराध के बाद मुकदमे दर्ज होते हैं, आरोपी भी बनाए जाते हैं। जेल जाते हैं और छूट जाते हैं। तमाम आरोपों में बरी हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी का कहना है कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं बोलना है। लंबे समय तक पुलिस का काम इन अपराधियों का बचाव करना ही रहा है। अपराधी तो पुलिस की जेल से भी अपना नेटवर्क चलाते हैं।सूत्र का कहना है कि राजनीति के संरक्षण और जटिल अदालती प्रक्रिया ने उत्तर प्रदेश में माफियागिरी को बढ़ाया है। न गवाह होता है और न ही सबूतों के अभाव में मुकदमे चल पाते हैं। अपराधी छूट जाता है। उत्तर प्रदेश के ही पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह के अनुसार पूरा सिस्टम सड़ चुका है। यह बिना ठोस राजनीतिक इच्छा शक्ति के अच्छा नहीं हो सकता। गैंगवार, माफियागिरी पर बारीकी से नजर रखने वाले श्याम नारायण पांडे कहते हैं कि अपराध करना, गिरफ्तार होना, जेल जाना और जेल से जमानत पर बाहर आना, बाहर आकर मुकदमे को कमजोर करके खत्म करा देना बहुत आसान है। जब ऐसा है तो आखिर अपराध और अपराधी कैसे काबू में रहेंगे? पांडे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के हर डीएम, एसपी को पता है कि कहां अवैध वसूली और कैसे हो रही है। लेकिन न वह इसे रोकना चाहते हैं और न ही रोकने का कोई उपक्रम होता है।

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पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपराध जगत की बात हो और गोरखपुर के हरिशंकर तिवारी से शुरुआत न हो तो कहानी अधूरी रहेगी। हरिशंकर तिवारी के प्रतिद्वंदी थे वीरेन्द्र प्रताप शाही। ब्राह्मण बनाम ठाकुर के समीकरण पर दोनों का साम्राज्य कायम था। रेलवे के ठेके दोनों के लिए अहम थे। हरिशंकर तिवारी ने धीरे-धीरे राजनीति में कदम बढ़ा दिया। यहां से राजनीति और अपराध में कुछ ज्यादा घुलमिल गए। इसी रास्ते पर गाजीपुर में दबंगई का रास्ता चुनकर अपराध और गैंगवार तक पहुंचे मुख्तार अंसारी ने भी चलना ठीक समझा। हालांकि मुख्तार का परिवार दादा के जमाने से भारतीय राजनीति में काफी रसूखदार था।

राजनीति बना रही है बाहुबलियों को ताकतवर
मुख्तार को मिले राजनीतिक संरक्षण ने उन्हें बाहुबली बना दिया। इसी राजनीति में मुख्तार के जानी दुश्मन बृजेश सिंह को भी भविष्य सुरक्षित नजर आया। पहले उनके भाई उदयभान सिंह, भतीजे सुशील सिंह, बृजेश की पत्नी अन्नपूर्णा सिंह और अंत में बाहुबली बृजेश सिंह ने भी उत्तर प्रदेश विधान परिषद में जगह ले ली। राजनीति की अहमियत को उत्तर प्रदेश और बिहार के माफिया अच्छी तरह से समझने लगे हैं। बिहार में दर्जनों माफिया राजनीति में पर्दापण कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश में भी अभय सिंह, धनंजय सिंह, विनीत सिंह, विजय मिश्रा जैसे तमाम माफिया ने एंट्री लेकर अपनी जगह बना ली है। प्रतापगढ़ के रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया भी अपनी तरह के बाहुबली हैं। मुख्तार अंसारी, बड़े भाई अफजाल अंसारी, मोहम्मद अतीक सब राजनीति में हैं। मुख्तार ने अपने बेटे अब्बास अंसारी को भी चुनाव में उतारा। उनके रिश्ते में चाचा कहे जाने वाले हामिद अंसारी देश के उपराष्ट्रपति रह चुके हैं और दादा मुख्तार अहमद अंसारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय स्तर के नेता रहे थे।

बात मुख्तार और बृजेश सिंह की
80 के दशक में अपराध जगत में कदम रखने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश के दोनों माफिया डॉन ने 90 के दशक में गैंगवार के रूप में खुली चुनौती देनी शुरू कर दी। मुख्तार अंसारी ने अपने गुर्गों, सहयोगियों के जरिए जहां दुश्मन को घेरकर गोलियों से छलनी करने की रणनीति अपनाई, वहीं धरहरा के बृजेश सिंह ने अंडरग्राउंड रहकर शूटरों, सहयोगियों के सहारे मुख्तार को चुनौती दी। मुख्तार और बृजेश की इस जानी दुश्मनी में साल दर साल खून खराबा चलता रहा। बृजेश सिंह के बारे 2008 में उनके आत्म समर्पण करने के पहले तक दो चीजें आम थी। पहली यह कि चौबेपुर थाना या वाराणसी पुलिस के पास उनकी कोई तस्वीर नहीं है। दूसरे बृजेश चालाक, फुर्तीला, भेष बदलने में माहिर और दुश्मन को बड़े सलीके से ठिकाने लगाता है। यहां तक कि मुख्तार को अपना शिकार बनाने के लिए वह जेल के दरवाजे तक पहुंच चुका था। इतना ही नहीं कोयला, रेलवे, पीडब्ल्यूडी, दूरसंचार समेत अन्य सरकार विभाग में ठेकों आदि के जरिए बृजेश सिंह गैंग ने महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखंड, बिहार तक अपना विस्तार कर लिया था। वहीं मुख्तार ने गाजीपुर, लखनऊ, दिल्ली और जेल में रहकर कोयला, मछली पालन, पीडब्ल्यूडी, समेत अन्य ठेका वसूली आदि के जरिए अपना बड़ा साम्राज्य बना लिया।

90 के दशक में कहीं अधिक घातक हो गए मुख्तार अंसारी
मुख्तार गिरोह में 90 के दशक में मुन्ना बजरंगी जैसा शूटर शामिल हुआ। कहा जाता है कि बागपत जेल में मारे गए मुन्ना के हाथ अपने दुश्मनों पर गोलिया बरसाने में कभी नहीं कांपते थे। इसकी पहली बानगी जौनपुर का रामपुर तिराहा का हत्याकांड है। इसमें मुन्ना बजरंगी ने स्वचालित हथियार से कैलाश दूबे, छात्र नेता राजकुमार सिंह और एक अन्य को गोलियों से छलनी कर दिया था। दूसरी बड़ी वारदात ने उसे हार्डकोर शूटर में बदल दिया। नवंबर 2005 में मुन्ना बजरंगी ने मुख्तार गिरोह के शूटरों के साथ तत्कालीन विधायक कृणानंद राय की हत्या की। कहा जाता है कि इसमें लाइट मशीनगन तक का उपयोग किया गया। इसे मुख्तार ने अपने पूर्व गनर के सहारे उसके सेना के भगोड़े फौजी भाई से बरामद किया था।इस हत्याकांड में सात लोग मारे गए थे और कृष्णानंद राय के शरीर से 60 से अधिक गोलिया बरामद हुई थीं। 400 से अधिक गोलियां चली थी और कारतूस के खोखे इकट्ठा करने में काफी समय लग गया था। जब यह शूट आउट चल रहा था, उस दौरान मुख्तार और फैजाबाद के अभय सिंह के बीच में बातचीत के टेप सामने आए। हालांकि इस हत्याकांड में आरोपी बनाए गए मुख्तार को सबूतों, गवाहों के अभाव में संदेह का लाभ देकर सीबीआई अदालत ने बरी कर दिया है। मामला उच्च न्यायालय में चल रहा है। कहा यह भी जाता मुख्तार पर इससे पहले जानलेवा हमला हुआ था। इस हमले में बाल-बाल बचे मुख्तार ने अपनी दहशत कायम करने के लिए कृष्णानंद राय पर भयानक हमले की साजिश रची थी। खैर, दोनों (मुख्तार और बृजेश) के बीच तीन दशक तक चले गैंगवार में दोनों तरफ के अब तक 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं।

मुख्तार से कहीं भी 19 नहीं है बृजेश का गैंग
बृजेश सिंह (दूसरा नाम अरुण कुमार सिंह) के बारे में कहा जाता है कि होनहार छात्र थे, लेकिन पिता रवीन्द्र सिंह 27 अगस्त 1984 को हत्या कर दी गई। कहा जाता है कि इस हत्या में गांव के हरिहर सिंह और पांचू सिंह और उनके साथियों का नाम आया। बताते हैं इसके बाद बृजेश बदला लेने की आग में झुलसने लगा। करीब एक साल बाद उसके पिता के हत्यारे दिनदहाड़े मारे गए जिनकी हत्या का आरोप उस पर लगा। यह बृजेश पर पहला अपराधिक् मामला था और वह फरार हो गया। 1986 में बृजेश को साथियों के साथ वाराणसी के सिकरौरा गांव में पिता की हत्या में शामिल अन्य पांच लोगों की हत्या में नामजद किया गया। पुलिस ने गिरफ्तार किया और जेल भेज दिया। जेल में बृजेश की मुलाकात त्रिभुवन सिंह से हुई और आगे का सफरनामा दबंगई, माफियागिरी की तरफ बढ़ चला। आगे की कहानी में कितना सच है, वह बृजेश के अलावा कम लोगों को मालुम है। लेकिन कहा जाता है कि बृजेश ने फिर फरारी के दौरान मुंबई का रुख किया। मुंबई में कुख्यात डॉन दाऊद इब्राहिम के संपर्क में आया। बृजेश ने दाऊद के जीजा की हत्या का बदला लेने के लिए डाक्टर के भेष में मुंबई के जेजे अस्पताल में साथियों के साथ एंट्री ली। वहां पुलिस मौजूद थी और पुलिस की मौजूदगी में गवली गिरोह के चार लोगों को गोलियों से भून दिया गया। उसकी चालाकी और फुर्ती से भरी यह वारदात दाऊद को भी दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर कर गई।

कैसे आए दाऊद और बृजेश आमने-सामने
बृजेश सिंह ने गाजीपुर के त्रिभुवन सिंह के साथ मिलकर गिरोह बंदी शुरू की थी। आर्थिक साम्राज्य के लिए रेशम, कोयला, सरकारी विभाग के ठेके अहम थे। दोनों इसे हथियाने में लग गए। बनारस की मशहूर चंदासी कोयला मंडी में भी दबदबा बनाने की होड़ शुरू हो गई। यह वह दौर था जब कोयले की खाफी मांग थी। ईंट-भट्ठे से लेकर हर जगह यह कारोबार फूल रहा था। इसी कारोबार पर वर्चस्व की जंग में सामना मुख्तार अंसारी से हुआ। मुख्तार के पास राजनीतिक रसूख अच्छी खासी थी। इसके चलते संरक्षण भी। बताते हैं दबंगई के इस खेल में मुख्तार भारी पड़ने लगा। यहां से दोनों के बीच में एक दूसरे को देख लेने का दौर शुरू हुआ। अभी तक जारी है। अभी भी यह कहने में गुरेज नहीं है कि मिर्जापुर से लेकर गोरखपुर तक बाहुबल के क्षेत्र में जितने भी नाम चर्चा में हैं उनमें अधिकांश इन दो गुटों से ही जुड़े हैं। प्रयागराज (इलाहाबाद) परिक्षेत्र में मोहम्मद अतीक ने दहशतगर्दी का साम्राज्य बना रखा है, तो बरेली से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंक का पर्याय बने मुख्तार से जुड़े संजीव माहेश्वरी उर्फ जीवा की भी दहशत रहती है।

कहां ठन गई योगी और मुख्तार में
मुख्तार गाजीपुर से बैठकर पूर्वांचल में अपना दबंगई का सिक्का चलाते हैं। दूसरी तरफ 90 के दशक से 2017 के पहले तक गोरक्षापीठ के महंत योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर मंडल में अपना सियासी दबदबा चल रहा था। इस बीच दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक आजमगढ़ के सिवली कालेज की घटना और दूसरी भी इस तरह से थी। तब सांसद योगी आदित्यनाथ ने इसे धर्म की रक्षा से जोड़कर गोरखपुर से कूच किया था। क्षेत्र के जानकार बताते हैं कि इन दोनों घटनाओं में और कुछ और भी ऐसे प्रकरण रहे, जहां  मुख्तार और उनके सहयोगी रास्ते में बाड़ की तरह खड़े हो गए थे। कुछ इसी तरह का आरोप मुख्तार अंसारी से जुड़े लोग भी लगाते हैं। इन सभी लोगों को लग रहा है कि अब योगी आदित्यनाथ राज्य के मुख्यमंत्री हैं। वह मुख्तार के जरिए एक बड़ी सामाजिक, राजनीतिक लड़ाई छेड़कर माफिया मुख्तार पर शिकंजा कसने जा रहे हैं। योगी की यह पहल राज्य के कई बाहुबलियों को बहुत अच्छी लग रही है। समझा जा रहा है कि बांदा जेल में मुख्तार के पहुंचने के बाद अब एक बार फिर नए सिरे से नई लड़ाई शुरू हो सकती है।

न गवाह होता है और न मुकदमे चल पाते हैं
उत्तर प्रदेश के किसी भी बाहुबली नेता को ले लीजिए। अपराध के बाद मुकदमे दर्ज होते हैं, आरोपी भी बनाए जाते हैं। जेल जाते हैं और छूट जाते हैं। तमाम आरोपों में बरी हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी का कहना है कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं बोलना है। लंबे समय तक पुलिस का काम इन अपराधियों का बचाव करना ही रहा है। अपराधी तो पुलिस की जेल से भी अपना नेटवर्क चलाते हैं।सूत्र का कहना है कि राजनीति के संरक्षण और जटिल अदालती प्रक्रिया ने उत्तर प्रदेश में माफियागिरी को बढ़ाया है। न गवाह होता है और न ही सबूतों के अभाव में मुकदमे चल पाते हैं। अपराधी छूट जाता है। उत्तर प्रदेश के ही पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह के अनुसार पूरा सिस्टम सड़ चुका है। यह बिना ठोस राजनीतिक इच्छा शक्ति के अच्छा नहीं हो सकता। गैंगवार, माफियागिरी पर बारीकी से नजर रखने वाले श्याम नारायण पांडे कहते हैं कि अपराध करना, गिरफ्तार होना, जेल जाना और जेल से जमानत पर बाहर आना, बाहर आकर मुकदमे को कमजोर करके खत्म करा देना बहुत आसान है। जब ऐसा है तो आखिर अपराध और अपराधी कैसे काबू में रहेंगे? पांडे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के हर डीएम, एसपी को पता है कि कहां अवैध वसूली और कैसे हो रही है। लेकिन न वह इसे रोकना चाहते हैं और न ही रोकने का कोई उपक्रम होता है।