विश्वविद्यालयों व डिग्री कॉलेजों में राजनीतिक पार्टियों के बढ़ते दखल को देखते हुए कुछ शिक्षाविदों और समाज के विभिन्न तबकों के जानकारों ने छात्रसंघ पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की वकालत की है। इसके लिए वह तर्क देते हैं कि यदि छात्रसंघ पर पाबंदी लगेगी तो छात्र पूरी तरह से अपने अध्ययन पर फोकस करेंगे और उनमें अनुशासन की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जो किसी भी संस्थान में शिक्षा ग्रहण करने का मूलभूत उद्देश्य होता है।इसी को लेकर ने छात्रों से संवाद किया तो उन्होंने इसके ठीक विपरीत अपने विचार रखे। छात्रों का कहना है कि लोकतांत्रिक परिसर के लिए छात्रसंघ बुनियादी मूल्यों में से एक है। मगर, दुर्भाग्य की बात है कि आज देशभर के संस्थानों में गौरवशाली इतिहास समेटे छात्रसंघों को इस तर्क पर बंद किया जा रहा है कि छात्र राजनीति के कारण कैंपस में अराजकता व हिंसा बढ़ती है। छात्रों ने कहा कि समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया, चंद्रशेखर, लोक नायक जयप्रकाश आदि भी छात्रसंघ की वकालत करते थे। लोहिया कहते थे कि अगर सड़कें सूनी हो जाएंगी तो संसद आवारा हो जाएगी। कुछ इसी तरह इविवि के छात्रों का मानना है कि यदि छात्रसंघ नहीं होगा तो देश की राजनीति दिशाहीन हो जाएगी। अराजकता बढ़ जाएगी।
ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज के शोध छात्र रत्नेश कुमार का कहना है कि हमारे देश में छात्रसंघ एवं छात्र संगठनों की गौरवशाली परंपरा रही है, जिसकी झलक भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में भी साफ दिखाई देती है। इसके अलावा आजादी के समय से लेकर अबतक के तमाम राष्ट्रीय आंदोलनों में छात्रसंघ की भूमिका रही है। इसलिए यह कहना कि छात्रसंघ व इसके चुनावों की वजह से विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में शैक्षणिक माहौल खराब होता है पूरी तरह से आधारहीन और मनगढ़ंत है।इविवि के छात्र जय प्रकाश का कहना है कि साल 2019 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ को प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके पहले भी कई बार छात्रसंघ कभी आंशिक तो कभी पूर्ण रूप से बैन किया जा चुका है। इसका तर्क हर बार यही दिया जाता रहा है कि छात्र राजनीति के कारण अराजकता व हिंसा बढ़ जाती है। जेपी का मानना है कि यदि छात्रसंघ नहीं होगा तो आवारा नेता पैदा होंगे। हालांकि, विश्वविद्यालय में प्रशासन द्वारा छात्रसंघ की जगह छात्र परिषद लाया गया है।
विश्वविद्यालय के कई छात्रों ने कहा कि आखिरकार बार-बार छात्रसंघ को बैन करने के पीछे प्रशासन व हुक्मरानों की इतनी दिलचस्पी क्यों है। इसे समझने के लिए पहले लोगों को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास को समझना होगा। इविवि में छात्रसंघ की नींव आजादी के 24 वर्ष पूर्व 1923-24 में ही रख दी गई थी। 100 साल के खासकर उत्तर भारत के राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक इतिहास को उठा कर देखेंगे तो आप पाएंगे कि इविवि का छात्रसंघ आंदोलनों का हमेशा केंद्र बिंदु रहा है। आजादी के आंदोलन के समय इसी विश्वविद्यालय का ही छात्रसंघ था जो लगभग पूरे उत्तर भारत को राजनैतिक दिशा प्रदान कर रहा था।
खासकर नौजवानों को संगठित करने व स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने के लिए यहां के छात्र अग्रणी भूमिका में थे। भारत छोड़ो आंदोलन के समय इविवि के तीन छात्र शहीद हुए थे जिनमें शहीद लाल पद्मधर का नाम आज भी छात्रों के लिए प्रेरणा स्रोत है। यहां के छात्रसंघ ने देश को तीन प्रधानमंत्री, एक राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, मंत्री के साथ साथ सैकड़ों प्रशासनिक अधिकारी व साहित्यकार दिए हैं। शिक्षाविद डीएस कोठारी, संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप और न जाने कितने विद्वान और मेधावी इविवि में पढ़ाई के दौरान बढ़ चढ़कर छात्र राजनीति में हिस्सा लेते थे और छात्रसंघ के शीर्ष पदों पर भी रहे। बाद में एकेडमी में चले गए। इसलिए यह कहना कि छात्रसंघ की वजह से शैक्षणिक गतिविधियां प्रभावित होती हैं बिल्कुल ही गलत है।
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