कोरोना संक्रमण के बाद से लोग आपने स्वास्थ्य और खानपान को लेकर काफी सजग हुए हैं। ऐसे में स्वास्थ्य के लिए गुणकारी तिल की मांग बाजार में लगभग 25 प्रतिशत तक बढ़ी है। इसे देखते हुए बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) के कुलपति डाॅ. ओंकार नाथ सिंह ने तिल के बेहतर गुणवत्ता, कम समय में ज्यादा उपज देने वाले जीनोम के विकास पर कार्य करने की सलाह दी है।
उन्होंने कहा है कि तिल पर शोध और इसकी खेती को बढ़ावा देकर हम किसानों को बेहतर आय श्रोत से जुड़ने में मदद कर सकते हैं। ऐसे में जल्द ही बीएयू इस पर शोध का काम शुरू करने वाला है। इस शोध की धनराशि आइसीएआर और वर्ल्ड बैंक की कृषि संबंधित फंड से इकट्ठा की जाएगी। इसके लिए प्रस्ताव बनाया जा रहा है। हालांकि विवि में वर्तमान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आइसीएआर) के सौजन्य से संचालित अखिल भारतीय समन्वित तिल व रामतिल (सरगुजा) परियोजना चल रही है।
अखिल भारतीय समन्वित तिल व रामतिल (सरगुजा) परियोजना के तहत विगत 5 वर्षो से खूंटी जिले के तोरपा प्रखंड रेडुम, डोरमा, कोनकारी, पुत्कलटोली, हेसल व चुरगी गांव तथा रांची जिले के कांके प्रखंड के सेमलबेरा गांव के 20 जनजातीय किसानों तथा लोहरदगा एवं हजारीबाग जिले के किसानों के खेतों में अग्रिम पंक्ति प्रत्यक्षण के माध्यम से तिल की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। परियोजना अन्वेंशक डा सोहन राम बताते हैं कि खरीफ मौसम की विषम परिस्थिति में तिल को सबसे उपयुक्त वैकल्पिक फसल कहा जाता है।
तिलहन में इस समय प्रदेश के किसान मूंगफली और तिल दोनों की खेती कर सकते हैं। तिल फसल की उपज को कम लागत व कम पानी में करीब 80-85 दिनों की कम अवधि में ली जा सकती है। बीएयू द्वारा विकसित किस्म कांके सफ़ेद, पंजाब में विकसित किस्म टीसी-25 तथा पंतनगर में विकसित शेखर किस्म प्रदेश के लिए उपयुक्त है। इनमें कांके सफ़ेद की उपज क्षमता 6-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और सर्वाधिक 50 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है।
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