Jaipal Singh Munda: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन में कई ऐसे नेता हुए, जिन्होंने अपने विचारों और संघर्षों से एक अलग पहचान बनाई. लेकिन जब आदिवासी नेतृत्व की बात आती है, तो जयपाल सिंह मुंडा का नाम अग्रणी रूप से उभरता है. वे केवल एक राजनेता नहीं थे, बल्कि भारतीय आदिवासी समाज के पहले सशक्त आवाज़ थे, जिन्होंने अपनी पहचान को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में रखा.
जयपाल सिंह मुंडा भारतीय राजनीति (Jaipal Singh Munda Politics) और आदिवासी आंदोलन के वह नायक थे, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई. उन्होंने महात्मा गांधी की तरह जन आंदोलन नहीं किया, बल्कि एक संगठित राजनीतिक रणनीति के तहत आदिवासी हकों के लिए संघर्ष किया. उनका जीवन राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा से अलग था, लेकिन उनके विचार और संघर्ष ने भारतीय राजनीति को एक नया दृष्टिकोण दिया. वे पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने नेहरू को आदिवासी अधिकारों पर झुकने को मजबूर किया, गांधी से अलग राह चुनी और अंबेडकर से वैचारिक टकराव किया, लेकिन अंततः अपनी पत्नी से हार गए.
गांधी से अलग राह
जयपाल सिंह मुंडा का आदिवासी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग लेकिन समानांतर रूप से आगे बढ़ा. महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब राष्ट्रीय कांग्रेस ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष कर रही थी, तब मुंडा आदिवासियों के लिए एक अलग पहचान और अधिकारों की मांग कर रहे थे. जब 1940 में गांधी रांची आए, तब मुंडा ने उनके दौरे का विरोध किया. वे लिखते हैं, “गांधी जी रांची आए. मैंने उनके दौरे के विरोध में हड़ताल का आयोजन किया था. सभी दुकानें बंद थीं. उनका स्वागत करने के लिए कोई भीड़ नहीं थी. उन्होंने मुझे कभी माफ नहीं किया.”
गांधी जी के विरोध के बावजूद, मुंडा ने अपने आदिवासी आंदोलन को जारी रखा और कांग्रेस के खिलाफ एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे. उन्होंने कांग्रेस को पहली बार राजनीतिक चुनौती दी और रांची एवं सिंहभूम के जिला परिषद चुनावों में बड़ी जीत हासिल की.
महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य चेहरा थे, लेकिन उनकी विचारधारा और कार्यशैली सभी के लिए अनुकूल नहीं थी. विशेष रूप से, आदिवासी समाज को लेकर गांधी का दृष्टिकोण परंपरागत हिंदू समाज के भीतर सुधार का था, जबकि जयपाल सिंह मुंडा ने इसे पूरी तरह खारिज किया.
मुंडा ने अपने आंदोलन को कांग्रेस से अलग रखा (Jaipal Singh Munda struggle with Gandhi) और आदिवासी समाज के लिए एक स्वतंत्र पहचान की मांग की. वे मानते थे कि आदिवासी समुदाय को कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाकर उसका शोषण किया जा रहा है. जयपाल सिंह मुंडा ने स्पष्ट रूप से गांधी को बताया कि आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए खुद लड़ना होगा, न कि कांग्रेस की छत्रछाया में रहना होगा.
नेहरू को झुकाया
नेहरू की आधुनिक भारत की परिकल्पना में आदिवासी समाज एक पिछड़ा वर्ग था, जिसे मुख्यधारा में लाने की जरूरत थी. लेकिन जयपाल सिंह मुंडा इसे एक अन्याय मानते थे. वे नेहरू से सीधे टकराए और संसद में झारखंड राज्य की मांग उठाई.
पंडित जवाहरलाल नेहरू भारतीय राजनीति में आदिवासियों के अधिकारों को लेकर स्पष्ट विचार नहीं (Jaipal Singh Munda Tussle with Nehru) रखते थे. उनका झुकाव मुख्यतः समाजवादी आर्थिक नीतियों और औद्योगीकरण की ओर था. मुंडा ने 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष झारखंड को एक अलग राज्य बनाने की मांग रखी. उनका कहना था, “आदिवासी क्षेत्र को बिहार से अलग करना जरूरी है, क्योंकि बिहार सरकार आदिवासियों के विकास में रुचि नहीं रखती. हमारा क्षेत्र आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ है और हमें हमारी संस्कृति, भाषा और परंपराओं को बचाने के लिए एक अलग राज्य की आवश्यकता है.”
1952 के चुनाव में उनकी झारखंड पार्टी ने बिहार में कांग्रेस को भारी झटका दिया और विधानसभा की 32 सीटें जीत लीं. इससे कांग्रेस की सत्ता में हलचल मच गई. नेहरू ने उन्हें कांग्रेस में शामिल करने का प्रस्ताव दिया, लेकिन मुंडा ने इसे अस्वीकार कर दिया. हालांकि, बाद में 1963 में जब उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला किया, तो यह उनके राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी गलती साबित हुई. उनकी जीवनी लिखने वाले लेखकों ने कहा है कि यह निर्णय उनकी दूसरी पत्नी के कारण लिया गया था.
जयपाल सिंह मुंडा अलग आदिवासी राज्य की मांग के लिए भी सदैव लड़ते रहे हालांकि नेहरू इस मांग को लगातार टालते रहे. लेकिन मुंडा के निरंतर संघर्ष और झारखंड पार्टी की लोकप्रियता ने उन्हें इस पर ध्यान देने को मजबूर कर दिया. तत्कालीन सरकार ने उनकी मांगों को ठुकरा दिया, जिससे वे निराश हुए.
अंबेडकर से वैचारिक टकराव
डॉ. भीमराव अंबेडकर दलित समाज के उद्धारक थे और उन्होंने जातिवादी भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी (Jaipal Singh Munda difference with Ambedkar). लेकिन जब संविधान सभा में आदिवासियों के लिए अलग प्रावधानों की मांग उठी, तब अंबेडकर और मुंडा के बीच मतभेद उभर आए. अंबेडकर दलितों के लिए विशेष आरक्षण और सामाजिक न्याय की बात कर रहे थे, जबकि मुंडा आदिवासियों के लिए अलग संवैधानिक व्यवस्था चाहते थे.
मुंडा ने संविधान सभा में कहा कि अनुसूचित जनजाति क्या होता है? हम अलग जाति व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं. उन्होंने कहा, “आदिवासी समाज दलितों से अलग है. हम किसी भी धार्मिक या जातिगत व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं. हमारी समस्याएँ और समाधान अलग हैं. हमें हमारे जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान चाहिए.”
अंबेडकर इस विचार से सहमत नहीं थे और उन्होंने आदिवासियों को भी अनुसूचित जातियों की तरह ही विशेष सुविधाएँ देने का सुझाव दिया. लेकिन मुंडा अपने विचारों पर अडिग रहे. जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में आदिवासियों के लिए अलग राजनीतिक और सामाजिक पहचान की मांग उठाई. उन्होंने अंबेडकर से कहा था कि दलितों और आदिवासियों की समस्याएं अलग-अलग हैं और इन्हें एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. यह टकराव इस बात को दर्शाता है कि वे आदिवासी पहचान को किसी भी अन्य पिछड़े वर्ग में मिलाने के पक्ष में नहीं थे.
पत्नी का वह निर्णय जिसने मुंडा की राजनीति समाप्त कर दी
जयपाल सिंह मुंडा की पत्नी से हार की कहानी के लिए थोड़ा इतिहास में चलना पड़ेगा. इसका सारा संदर्भ अश्विनी कुमार पंकज द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी से लिया गया है. दरअसल आजादी के बाद जयपाल सिंह मुंडा चार बार संसद सदस्य चुने गए और आदिवासी समुदाय के पहले उपमुख्यमंत्री बने. आजादी के बाद उन्होंने अपने आदिवासी आंदोलन को आगे बढ़ाया. लेकिन सरकार द्वारा उठाए गए कदमों ने उन्हें हताश कर दिया क्योंकि उनकी सभी मांगों को सरकार ने नजरअंदाज कर दिया. इसके बाद उन्होंने झारखंड पार्टी नामक अपनी राजनीतिक पार्टी बनाई जो आदिवासी महासभा का ही एक रूपांतर थी. इस पार्टी ने आदिवासी आंदोलन को एक राजनीतिक चेहरा दिया. मुंडा राजनीति में बहुत सक्रिय हो गए और उनके लिए समान अधिकारों की मांग की. अब उन्होंने अपनी पार्टी के दरवाजे गैर-आदिवासी लोगों के लिए खोल दिए.
झारखंड पार्टी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खिलाफ बड़ी सीटें जीतीं. इसने 1952 में विधानसभा की बत्तीस सीटें और संसद की चार सीटें जीतीं और 1957 में विधानसभा की चौंतीस सीटें और संसद की पांच सीटें जीतीं और 1962 में विधानसभा की बाईस सीटें और संसद की पांच सीटें जीतीं. उन्होंने चार बार संसद में अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया और हमेशा आदिवासियों के साथ खड़े रहे. जयपाल सिंह मुंडा ने 1954 में आदिवासियों के लिए झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग भी रखी थी. उनकी मांग के पीछे मुख्य कारण बिहार को आवंटित सरकारी धन का अनुचित निवेश था.
1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग ने मामले की जांच के लिए एक समिति बिहार भेजी. आयोग ने उन्हें ठगा हुआ महसूस कराया और उनकी मांगों को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया. अंततः 1963 में जयपाल सिंह मुंडा ने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला किया और वे स्वतंत्र भारत में आदिवासी समुदाय से बिहार के पहले उपमुख्यमंत्री बने. लेकिन इसने उनका जीवन बर्बाद कर दिया क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी की सहमति के बिना यह फैसला लिया. इससे आदिवासियों के बीच उनकी लोकप्रियता कम हुई. वे खुद इसके लिए शर्मिंदा थे.

उनके आदिवासी आंदोलन के कारण उन्हें अपनी पहली पत्नी से अलग होना पड़ा. उनकी दूसरी पत्नी इस कदम के लिए जिम्मेदार लगती हैं क्योंकि वह उनकी पहली पत्नी जितनी वफादार नहीं थीं, ऐसा लेखकों ने लिखा है. वे अपने आखिरी चुनाव और उसके बाद अपने परिवार की प्रतिक्रिया का वर्णन करते हैं: बिहार में मध्यावधि चुनाव मेरे झारखंड नेतृत्व के लिए एक गंभीर चुनौती थे, मेरे अधिकांश पूर्व सहयोगियों ने मुझे छोड़ दिया और कहा कि उन्होंने झारखंड पार्टी को पुनर्जीवित किया है.
चौथाई सदी तक मैं कांग्रेस पार्टी से सफलतापूर्वक लड़ता रहा और आदिवासियों का सामना करना मेरे लिए कठिन काम था, जिन्हें मैंने अपना दुश्मन बना लिया था. उन्होंने मुझसे कहा, ‘इतने सालों तक आपने हमें कांग्रेस के खिलाफ वोट देने के लिए कहा, अब, आप हमसे 50 को इसके लिए वोट देने के लिए कहते हैं.’ मैं भाग नहीं सकता था. मुझे अपने पूर्व सहयोगियों की चुनौती का सामना करना था. औसतन, मैं हर दिन दो सौ पचास मील मोटर से यात्रा करता था और पाँच सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करता था. प्रधानमंत्री, पर्यटन मंत्री, रेल मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष ने भी झारखंड का दौरा किया और मुझे पहले दो का अनुरक्षण करना पड़ा. परिणाम बहुत अच्छे नहीं थे.
जयपाल सिंह मुंडा एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व थे. उन्होंने एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का नेतृत्व किया और उसे अपना पहला स्वर्ण पदक दिलाया. दूसरे वे एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षक थे और अंत में उन्होंने अमेरिका में स्वतंत्रता भाषण दिया था. अपने साथियों की नाराजगी के कारण वे अमेरिका चले गए. वहां उन्होंने आदिवासियों की स्थिति और मुद्दों पर विदेशों में कई विश्वविद्यालयों को संबोधित किया उन्होंने लिखा है कि वे नियाग्रा फॉल्स देखने गए थे. अमेरिका में उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर का सम्मान मिला. यह उनके जीवन का सबसे अच्छा समय था.
इस घटना के बारे में वे लिखते हैं कि, “ओक्लाहोमा सिटी में मेरे लिए सबसे बड़ा आश्चर्य इंतजार कर रहा था. हवाई अड्डे पर गार्ड ऑफ ऑनर था. होटल तक मुझे छह मोटर साइकिलों द्वारा ले जाया गया. सारा ट्रैफिक रोक दिया गया था. कंट्री क्लब में दोपहर का भोजन दिया गया, जहां मुझे एक महंगा रेड इंडियन हेडगियर भेंट किया गया और चिकासाव राष्ट्र का मानद पेलिची (प्रमुख) बनाया गया. आठ मील दूर नॉर्मन में मुझे महिला मेयर ने शहर की आजादी दी. अमेरिकी वास्तव में उदार हो सकते हैं. अंत में उन्होंने घोषणा की कि वे अधिक ऊर्जा और नए विचारों के साथ आदिवासी आंदोलन में फिर से शामिल होंगे. उन्हें अपनी पत्नी की साजिश के बारे में भी पता था. वे छुट्टी मिलने के बाद यूरोप घूमने चले गए.”
वहां से लौटने के बाद वे बीमार रहने लगे तो उनकी दूसरी पत्नी जहांआरा ने उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया. वह अपनी दूसरी पत्नी के साथ अंतिम समय के बारे में लिखते हैं कि, “मेरी शारीरिक स्थिति ने मेरी पत्नी को चिंतित कर दिया. उसने मुझे कलकत्ता नर्सिंग होम में रखने की व्यवस्था की. मैं वहाँ एक पूरा महीना रहा और किसी को भी, यहाँ तक कि बम्बई में मेरे बेटे या मेरे भतीजे, एक जिला मजिस्ट्रेट को भी मुझे देखने की अनुमति नहीं थी. मुझे नर्सिंग होम पसंद नहीं था, लेकिन डॉक्टरों के साथ मेरी पत्नी की ऐसी साज़िश थी कि मैं भाग नहीं सकता था. किसी को नहीं बताया गया कि मैं कहाँ हूँ; किसी को भी मुझे देखने की ज़रूरत नहीं थी!
मेरे ऑक्सफोर्ड के साथी, भारत के मेट्रोपॉलिटन ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल को फोन करके पूछा कि मैं कलकत्ता में कहाँ हूँ. पुलिस ने मुझे खोज लिया. मेट्रोपॉलिटन एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के साथ आया और मुझे नर्सिंग होम से बचाया और मुझे 51 चौरंगी ले गया, जिसे 1918 तक महल के रूप में जाना जाता था. मैं वहाँ कई बार रहा और मेट्रोपॉलिटन ने मुझे मोटा करने के लिए सब कुछ किया. मेरी पत्नी हैरान थी.”
अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि जहाँआरा ने जयपाल सिंह मुंडा को उनके दोस्तों और राजनेताओं से क्यों छुपाया? झारखंड के प्रसिद्ध लेखक राम दयाल मुंडा लिखते हैं कि, “जयपाल सिंह मुंडा का दूसरा विवाह करने का निर्णय गलत था और यह उनके असफल जीवन का कारण बना.” इसके अलावा, उनकी जीवनी लिखने वाले अश्विनी कुमार पंकज इस विवाह को एक नया नाम देते हैं. वे इस विवाह के बारे में लिखते हैं, “यह ‘नेहरू की जहांआरा नीति’ थी जो इतनी फैली कि जयपाल सिंह और झारखंड आंदोलन खत्म हो गया. जहांआरा ने अपने जीवन के अंत तक इसका लाभ उठाया. वह 1966 से 1972 तक कांग्रेस पार्टी की ओर से कैबिनेट मंत्री रहीं.”
आखिर में, जयपाल सिंह मुंडा अपनी पहली पत्नी तारा से मिलने कलकत्ता गए. लेकिन मुलाकात के अगले ही दिन 20 मार्च 1970 को अज्ञात परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई. उनकी सबसे बड़ी मांग नवंबर 2000 में पूरी हुई जब झारखंड एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया वे हमेशा आदिवासी अधिकारों और उनके जल, जंगल और जमीन के लिए खड़े रहे. लेकिन वे उनके प्राकृतिक संसाधनों को नहीं बचा सके. वे हमेशा आदिवासियों के साथ खड़े रहेंगे, क्योंकि जयपाल सिंह मुंडा न केवल एक व्यक्ति का नाम थे, बल्कि आदिवासी चेतना और विचारधारा का नाम भी थे. उनका जीवन राष्ट्र के सामने एक बड़ा सवाल छोड़ गया.
जयपाल सिंह मुंडा न केवल एक राजनीतिज्ञ थे, बल्कि एक विचारधारा थे. उन्होंने आदिवासी पहचान को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया, स्वतंत्र आदिवासी राज्य की मांग की, और आदिवासी समाज के लिए नई दिशा दी. वे नेहरू, गांधी और अंबेडकर जैसे नेताओं से टकराए, लेकिन अपने निजी जीवन में खुद को संभाल नहीं सके. जयपाल सिंह मुंडा एक असाधारण व्यक्तित्व थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति और आदिवासी आंदोलन में एक अमिट छाप छोड़ी. उन्होंने महात्मा गांधी से अलग राह चुनी, नेहरू को आदिवासी अधिकारों पर झुकने को मजबूर किया और अंबेडकर से वैचारिक टकराव किया. लेकिन उनका निजी जीवन उथल-पुथल भरा रहा और अंततः वे अपनी पत्नी की राजनीति में फंसकर कमजोर पड़ गए. उनकी सबसे बड़ी मांग, झारखंड राज्य, उनकी मृत्यु के 30 साल बाद 2000 में पूरी हुई. वे केवल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक विचारधारा थे, जो आदिवासी चेतना और संघर्ष की प्रतीक बन गए.
संदर्भ: अश्वनी पंकज की किताब Marang Gomke Jaipal Singh Munda, Lo Bir Sendra द्वारा प्रभात खबर पब्लिकेशन और हरियाणा केंद्रीय विश्विद्यालय का शोध पत्र
आदिवासी नायक जयपाल सिंह मुंडा : ऑक्सफोर्ड के स्कॉलर और भारत के संविधान निर्माता, जिन्होंने बदल दिया इतिहास