Holi Traditions in Jharkhand| गुमला, दुर्जय पासवान : गुमला जिले के डुमरी प्रखंड आदिवासी बहुल क्षेत्र है. यहां होली में रंग खेलने का उत्साह रहता है. बदलते समय के साथ होली खेलने की कई परंपरा यहां विलुप्त हो गयी. ग्रामीण आनंद प्रसाद गुप्ता और अनिल ताम्रकर कहते हैं कि हमारे समय में होली में सामूहिक रूप से बैठकर होली गीत गाना, दूसरों के घरों में कीचड़ भरा घड़ा टांगना या फोड़ना, होलिका दहन के लिए चोरी करके लकड़ी जमा करना, होली के माह में प्रत्येक सप्ताह में एक या दो दिन बैठकर होली गीत और भजन करने जैसी परंपरा थी. पर्व के दिन एक-दूसरे को अपने घर में आने का न्योता देते थे. अब ये परंपराएं बदल गयीं हैं. जीवित है, तो बड़ों से आशीर्वाद लेने की परंपरा.
होती थी कपड़ा फाड़ और कीचड़ वाली होली
उन्होंने कहा कि होली में अब लोग अपने तक ही सिमट कर रह गये हैं. वर्तमान समय में बच्चों द्वारा ही घर-घर जाकर बड़ों को गुलाल-अबीर लगाने की परंपरा बची है. हमलोगों के समय में होली की तैयारी एक माह पहले से शुरू हो जाती थी. युवाओं में होली का उमंग और उत्साह रहता था. 2-4 युवा कहीं मिलते, तो चोरी छुपे एक-दूसरे पर रंग डालते या सिर पर अंडा फोड़ देते थे. कपड़ा फाड़ और कीचड़ वाली होली होती थी.
होलिका दहन में शामिल नहीं होने वालों के साथ होता था ऐसा
बुजुर्ग कहते हैं कि होलिका दहन के दिन जिस घर से लोग होलिका दहन में शामिल नहीं होते थे, उनके घर में पुराने घड़े में कीचड़ भरकर घर के द्वार पर लोग टांग देते थे या फोड़ देते थे. फिर जोर से दरवाटा पाटकर वहां से भाग जाते थे. उस समय अचानक घर का कोई सदस्य बाहर आता, तो कीचड़ भरे घड़े से टकराकर पूरा आंगन कीचड़मय हो जाता था. फिर वह घड़ा टांगने वाले को खूब खरी-खोटी सुनाता था. कुछ लोग गाली-गलौच तक करने लगते थे. हालांकि, ऐसा करने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था. मगर उसके गाली गलौज से कोई फर्क नहीं पड़ता था. सब मिलकर कह उठते थे- बुरा न मानो, होली है.
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कामडारा में आज भी जीवित है ये परंपरा
कामडारा प्रखंड में होलिका दहन की रात कीचड़ से भरे घड़े को घर के दरवाजे के पास पटकने का प्रचलन अब भी कायम है. मजाक करने वाले रिस्ते जैसे देवर-भाभी, नाती-पोता द्वारा नानी या दादी के दरवाजे या आंगन में कीचड़ से भरा घड़ा फोड़ने का प्रचलन है. इस प्रचलन के बाद सामूहिक रूप से फगुवा गीत गाते हुए होलिका दहन किया जाता है. फागुन कटना (सेमल की डाली को पुआल से मनुष्य की शक्ल बनायी जाती है) को गांव के पाहन महतो द्वारा गांव के ग्राम देवता से गांव में अमन-चैन बना रहे, इसके लिए पूजा की जाती है. गांव के बड़ाइक द्वारा उस सेमल की डाली को आग जलाने के बाद काटा जाता है. आज भी कामडारा और आसपास के क्षेत्रों में यह रिवाज चलता है.
चैत प्रतिपदा में होली मनाते हैं गांव के लोग
इस रिवाज को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है. गांव वाले दूसरे दिन चैत प्रतिपदा में होली मनाते हैं. एक-दूसरे पर अबीर गुलाल लगाकर खुशी का इजहार करते हैं. होली में पारंपरिक रिवाज भी देखने को मिलते हैं. लोग अपने पूर्वजों की याद में लाल रंग के मुर्गे की बलि देने का भी रिजाज है. इस बाबत शल्य कुमार साहू, अलाउद्दीन खान और नरेंद्र सिंह कहते हैं कि पहले होली का उमंग कुछ और था. सभी समुदाय के लोग आपस में मिलकर होली खेलते थे. अब वह बात नहीं रही. महिलाएं भी महिलाओं के साथ होली खेलती थीं. किसी प्रकार का गिला-शिकवा नहीं होता था. उस दौर में फरसा फूल का रंग इस्तेमाल किया जाता था. एक सप्ताह पूर्व से ही गांव के बुजुर्ग फगुवा गीत का अभ्यास करते थे. अब गीत गाने की परंपरा खत्म हो रही है.
पालकोट में होलिका दहन के बाद करते हैं शिकार
पालकोट प्रखंड के आदिवासियों ने आज भी होलिका दहन के बाद शिकार की परंपरा को जिंदा रखा है. होलिका दहन के बाद दूसरे दिन आदिवासी समाज के लोग अहले सुबह जंगल में शिकार करने निकल जाते हैं. सियार, खरगोश, गिलहरी या अन्य जंगली जानवरों का सामूहिक शिकार करने के बाद गांव लौटकर सभी उसकी मीट का बंटवारा करते हैं. जो शिकार करता है, उसे डबल हिस्सा मिलता है.
विलुप्त होती परंपरा को बचाने की हो रही है कोशिश
बंगरू पंचायत के पतराटोली गांव निवासी कमलेश बारला, जितेंद्र उरांव, दुर्गा उरांव, पहान सुना पाहन, श्याम उरांव ने बताया कि पंरपरा लुप्त होने की कगार पर है. हालांकि, इसे बचाने की पहल की जा रही है. ग्रामीणों ने बताया कि गांव में किसी प्रकार की दुख तकलीफ न हो, इसके लिए पाहन के उपवास के बाद गांव में कोई खेती-खलिहानी नहीं करता. कोई गांव का व्यक्ति नियम तोड़ने का प्रयास करता है, तो वह दंड का भागीदारी होता है. आदिवासी समुदाय बैठक कर जुर्माना वसूलता है.
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