Vijay Kumar Gope
Ranchi : ”मन नहीं लगता, लेकिन मन लगाना पड़ता है”, ”जब उनको हमारी याद नहीं आती तो हम क्यों याद करें”…ये बोल हमारे नहीं, बल्कि घर और परिवार होने के बावजूद अस्पताल की चहारदीवारी में गुमनामी का जीवन गुजार रहे उनलोगों के हैं, जो इलाज के बाद अब पूरी तरह ठीक हो गये हैं. ये सभी राजधानी रांची के कांके स्थित केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान- सीआईपी में हैं. यहां लगभग 50 ऐसे मरीज हैं, जो पहले बीमार जरूर थे, मगर अब पूरी तरह स्वस्थ हैं. ये सभी महिला और पुरुष वार्ड में भर्ती हैं. लेकिन अब उनके परिवार वाले उनकी कोई सुध नहीं लेते. लेने आने की बात तो दूर, मिलने तक नहीं आते. संस्थान की ओर से उनके ओर से दिये गये पते और मोबाइल नंबर पर फोन करने पर या तो नंबर गलत बताता है या फिर पता फर्जी निकलता है. लगातार मीडिया (शुभम संदेश) की टीम ऐसे लोगों की कहानी बताने जा रही है, जिन्हें परिवार के लोग बोझ समझकर छोड़ गये हैं. क्या उन्हें अपने परिवार के लोगों के साथ आम लोगों की तरह जीवन जीने का अधिकार नहीं है, यह सवाल हम और आप सब के लिए है ?
ससुराल वालों ने दहेज के लिए छोड़ा, बीमार होने पर घरवालों ने यहां लाकर छोड़ दिया
मैं घर में सबसे बड़ी थी. पापा-मम्मी, तीन बहनें और दो भाई कानपुर में एक छोटा सा खुशहाल परिवार था. मैं बीए की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. पापा को मेरी शादी की चिंता सता रही थी. उत्तर प्रदेश में दहेज का प्रचलन ज्यादा होने के कारण पापा मेरी शादी उत्तर प्रदेश में नहीं करना चाहते थे. मेरी शादी मध्यप्रदेश के जबलपुर में तय कर दी गयी. शादी की सारी तैयारियां कर ली गयी. बारात घर पहुंची और शादी के रस्मों के लिए मंडप में बैठी, तभी लड़के के पिता मोटरसाइकिल की मांग करने लगे. पापा ने किसी तरह से समझाया और मेरी शादी हो गयी. शादी के बाद ससुराल में दहेज को लेकर मेरी प्रताड़ना शुरू हुई और मुझे मायके लाकर छोड़ दिया गया. उसके बाद से मैं खुद को इस चहारदीवारी के अंदर बंद पायी. डॉक्टरों से पता चला कि मैं मानसिक रूप से बीमार थी. मेरे भाई ने 1996 में लाकर मुझे यहां भर्ती कराया था. एक दो बार मिलने भी आया, लेकिन उसके बाद से अब किसी का कोई पता नहीं है? पति के नंबर पर फोन करने पर पता चला कि मेरा तलाक हो चुका है. 24 साल की उम्र में यहां भर्ती कराया गया था. पूरी जवानी पागलखाने में गुजर गयी है. मन तो नहीं लगता लेकिन मन लगाना पड़ता है. आज भी आंखें अपने को देखने के लिए तरस रही हैं. परिवार के लोगों की बहुत याद आती है. यह कहकर फफक- फफक कर रोने लगती हैं. यह कहानी मानसिक रोग से पीड़ित एक महिला मरीज की है.
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मां की मौत के बाद डिप्रेशन में चला गया और घरवालों ने 28 साल पहले यहां छोड़ दिया
ऐसी ही कहानी शक्तिनगर हरियाणा के रहने वाले का भी है. वे बताते हैं कि मैं घर में सबसे बड़ा भाई था. दो छोटी बहनें, एक छोटा भाई, बाबूजी-मां थी. बीए इकोनॉमिक्स ऑनर्स फर्स्ट क्लास पास होने के बाद मैं घर परिवार के भरण पोषण के लिए नौकरी की तलाश में जुट गया. उसी दरमियान मां की मृत्यु हो गयी. उसके बाद मैं डिप्रेशन में चला गया. मुझे याद है 4 मई 1994 को घूमने-फिराने के नाम से परिवार वालों ने मुझे यहां लाकर भर्ती करा दिया. उसके बाद से फिर किसी ने भी मुड़कर मुझे नहीं देखा. उस समय शक्तिनगर बिहार का हिस्सा था. बाबूजी का चौराहे पर चांद छापरिया की दुकान थी. दुकान में भी मैं पिताजी के काम में हाथ बंटाने के लिए जाता था. अगर मां जिंदा होती तो शायद ऐसा नहीं होता. अब तो ऐसा लगता है जैसे यही चहारदीवारी के अंदर ही मेरा घर है. यहीं पर 28 साल बीत गये हैं. अब मेरी उम्र 56 साल है. परिवार वालों को याद करके क्या फायदा. ”जब उनको हमारी याद नहीं आती तो हम क्यों याद करें.” यहीं पर रहता हूं और यही पर काम करता हूं. काम के बदले कुछ पैसे भी हम मरीजों को दिये जाते हैं.
अब भर्ती के समय वेरिफिकेशन करना जरूरी हो गया है : निदेशक
सीआईपी में देश के विभिन्न राज्यों से मरीज अपने मानसिक चिकित्सीय लाभ लेने के लिए पहुंचते हैं. वर्तमान में लगभग 600 मरीज इस संस्थान में भर्ती हैं. जिनका चिकित्सीय उपचार किया जा रहा है. वैश्विक महामारी के कारण मरीजों में थोड़ी सी वृद्धि हुई थी, अब धीरे-धीरे हालत सामान्य हो रही है. संस्थान के निदेशक वासुदेव दास बताते हैं कि इलाज के लिए देश के साथ-साथ विदेशों से भी लोग आते हैं. वर्तमान में झारखंड, असम, बिहार, दिल्ली, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, बंगाल, सिक्किम, राजस्थान, नगालैंड, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के मरीज भर्ती हैं, जिनका इलाज यहां हो रहा है. पहले पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद भी घर परिवार के लोग नहीं ले जाने के कारण यहां ठीक हो चुके मरीजों की संख्या लगभग 100 थी. उनमें से कई की मृत्यु हो गयी. वर्तमान में ऐसे लोगों की संख्या महिला और पुरुष वार्ड में मिलाकर लगभग 50 है. ये सभी अब पूरी तरह से ठीक हो गये हैं लेकिन उनके परिवार वाले उन्हें लेने नहीं आते हैं. उनके फोन और पते पर संपर्क करने पर उसे गलत बताया जाता है. परिवार के लोग छुटकारा पाने के कारण ही यहां पर छोड़ जाते हैं और वापस नहीं ले जाते हैं. कई लोग तो संपत्ति के बंटवारे के कारण भी नहीं ले जाते हैं. वर्ष 2000 से पहले मरीजों को भर्ती को लेकर काफी समस्या थी. लोग गलत पता लिखा देते थे, उसका वेरिफिकेशन नहीं हो पाता था, लेकिन अब सरल हो गया है. अब मरीज को भर्ती लेने से पहले संबंधित थाना, झालसा और डालसा से भी मदद ली जाती है. ठीक होने के बाद फिर उन्हें सूचना दी जाती है.
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