उधर जम्बूद्वीपे भारतखण्डे की जनता “शेर पालने की कीमत” चुकाने के मजे लेते हए कराह रही है। इधर टाइगर अपने जिन्दा होने का शोर मचाते हुए मध्यप्रदेश के जंगल राज में शिकार करता छुट्टा घूम रहा है।
शेर पालने वाला जुमला बढ़ती महँगाई, बेलगाम बेरोजगारी और सरकारी सम्पत्तियों की धुँआधार बिक्री, सौ दिन से ज्यादा के किसान आंदोलन और आठों दिशाओं में खड़े केन्द्र सरकार की विफलताओं के पहाड़ों से उपजी बेचैनी का जवाब देने के लिए आरएसएस-मोदी और भाजपा की आईटी सैल तथा उनके मातहत मीडिया ने गढ़ा है। इस जुमले का आशय यह है कि यदि नरेन्द्र मोदी जैसा शेर प्रधानमंत्री चाहिए, तो ये सब पेट्रोल, डीजल, खाने के ते
ल की महंगी कीमतों जैसी “छोटी-मोटी” सांसारिक आफ़तें तो झेलनी ही पड़ेंगी। हालांकि इस जुमले में शेर को “पालने” वाली बात कुछ ज्यादा त्रासद और विडम्बनात्मक है, क्योंकि यह दुनिया जानती है कि इस शेर को पालने का काम जनता नहीं, अडानी-अम्बानी जैसे कारपोरेट कर रहे हैं।
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