यह एक विडंबना है कि 60 हजार वेतन पाने वाले सरकारी शिक्षक अपने बच्चों को उन प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं जहां शिक्षक 15 हजार रुपये महीने पर पढ़ाते हैं। सरकारी शिक्षा नीति की ऐसी दुर्दशा पहले कभी नहीं थी। उस समय के राष्ट्र नायकों में से कोई भी प्राइवेट स्कूल या कॉलेज से डिग्री लेकर नहीं आया था। लेकिन आजादी के बाद, प्राइवेट स्कूल और कॉलेज इतने बढ़ गए कि सरकारी कर्मचारी भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने लगे।
आज से दस साल पहले, 18 अगस्त 2015 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने फैसला दिया था कि राज्य के सभी सरकारी कर्मचारियों, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों आदि को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाना चाहिए। उन्होंने इसे अनिवार्य करने को कहा था।
हालांकि, उस समय के मुख्यमंत्री ने इस सलाह को टाल दिया। जस्टिस अग्रवाल का मानना था कि जब सरकारी कर्मचारी और विधायक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएंगे तो स्कूलों में सुधार होगा। अगर उनकी बात मान ली जाती, तो आज सरकारी स्कूलों की यह दुर्दशा नहीं होती। अब, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रदेश के कई प्राथमिक स्कूलों को बंद करने की योजना बना रहे हैं, जिसके पीछे प्राइवेट स्कूलों का एकाधिकार है।
सरकारी स्कूल नहीं होंगे तो अभिभावक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजेंगे ही। प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा का स्तर कोई बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन वे प्रबंधन और शिक्षकों के माध्यम से बच्चों को अनुशासित रखते हैं, और इतना होमवर्क देते हैं कि बच्चे को पढ़ना ही पड़ता है।
स्वास्थ्य सेवाओं की भी यही स्थिति है। हर जिले में सरकारी अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, लेकिन डॉक्टर नहीं मिलते और दवाएं भी उपलब्ध नहीं होतीं। कई टेस्ट बाहर कराने पड़ते हैं। ऐसे में लोग मरीजों को प्राइवेट अस्पतालों में ले जाते हैं, जहाँ मरीजों से फालतू टेस्ट कराए जाते हैं और उनकी जेब खाली हो जाती है। सरकार कहती है कि उसने गरीबों के लिए आयुष्मान स्वास्थ्य कार्ड बनाए हैं, लेकिन उसने कभी यह जांच नहीं की कि अधिकांश प्राइवेट अस्पताल आयुष्मान कार्ड स्वीकार नहीं करते हैं। प्राइवेट अस्पतालों में भी बेहतर इलाज की कोई गारंटी नहीं है। मरीज वहाँ भी लूटता है और खाली हाथ लौटता है। प्राइवेट अस्पतालों में प्रबंधन में मानवीय गरिमा की कमी होती है।
दुनिया भर में लोक कल्याणकारी सरकारें मरीजों को मुफ्त इलाज देती हैं, भले ही उनके वेतन पर भारी टैक्स लगता हो। अगर इलाज और शिक्षा मुफ्त हो तो नागरिक 51% तक टैक्स देने में संकोच नहीं करेंगे। पड़ोसी देश भूटान अपने नागरिकों को मुफ्त चिकित्सा प्रदान करता है। कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, नॉर्वे, स्पेन, ताइवान और क्यूबा में भी इलाज मुफ्त है। ब्राजील में विदेशी नागरिक भी मुफ्त इलाज करा सकते हैं। अमेरिका में स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त नहीं हैं, लेकिन वहां इलाज महंगा है और विश्वसनीय है। अमेरिका चिकित्सा शिक्षा में नंबर एक है।
भारत में, डॉक्टर तो बहुत हैं, लेकिन इलाज के मामले में खराब स्थिति है। इलाज महंगा है, और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि डॉक्टर सही इलाज कर रहा है या नहीं। सरकारी अस्पतालों पर पहले भरोसा था क्योंकि अस्पताल में प्रबंधन की नहीं, डॉक्टर की चलती थी, जिन्हें मानवीय गरिमा सिखाई जाती थी।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान स्वागत योग्य है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं और अब सेवा के बजाय व्यवसाय के रूप में चलाई जा रही हैं। उनके अनुसार, हमारे देश में शिक्षा केंद्र और अस्पताल बहुत हैं, लेकिन वे सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर हैं। उनकी यह चिंता जायज है, लेकिन इन सेवाओं को बेहतर बनाने का काम कौन करेगा, क्योंकि देश में सरकार तो बीजेपी की ही है।
कांग्रेस अब बीजेपी पर आक्रामक हो गई है, लेकिन यह परस्पर दोषारोपण का मामला नहीं है। हर राजनीतिक दल इन सेवाओं के व्यवसायीकरण में खुद पहल करता रहा है। राजस्थान में अशोक गहलोत ने चिरंजीवी स्वास्थ्य योजना लागू कर राज्य के हर व्यक्ति को 25 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज प्रदान किया था। इसमें ईडब्ल्यूएस परिवारों को कोई प्रीमियम नहीं देना पड़ता था। हालांकि, सरकार बदलते ही योजना बंद हो गई।
केंद्र सरकार को ऐसी योजनाएं लागू करनी चाहिए जिनसे पूरे देश को लाभ हो सके, भले ही इसके लिए अतिरिक्त कर लिया जाए। इससे शिक्षा का स्तर समान होगा। निजी विद्यालय और अस्पताल चलते रहें क्योंकि 141 करोड़ लोगों को मुफ्त शिक्षा और अस्पताल उपलब्ध नहीं कराए जा सकते। लेकिन सरकार दो काम कर सकती है: निजी क्षेत्र की इन सेवाओं की निगरानी और सरकारी सेवाओं की बहाली, और किसी भी शिकायत पर त्वरित जांच।