गाने की ये पंक्तियाँ, ‘गांव में पीपल, पीपल की छइयां… छइयां में पनघट…’, पुराने समय के भारतीय गाँवों की पहचान बताने के लिए काफी हैं. लेकिन शोले में न केवल डाकुओं की पोशाक बदली, बल्कि गांव का नज़ारा भी पूरी तरह बदल दिया गया. यहाँ न तो पीपल या बरगद के पेड़ थे और न ही ऐसे खेत थे जहाँ मक्के की फसलें खड़ी दिखें या पीले सरसों खिले नज़र आएं. यह ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा हुआ था, सड़कें पथरीली थीं, चारों ओर बंजर था, फिर भी शोले का रामगढ़ एक आदर्श गांव का मॉडल था. इसे आज के ज़माने का स्मार्ट विलेज कहें तो गलत नहीं होगा।
हालांकि, शोले रिलीज़ के पचास साल बाद भी रामगढ़ की कई बातें हिंदुस्तान के कोने-कोने के तमाम गांवों के लिए जैसे सपना ही लगती हैं. पूरा इलाका चट्टानों से भरा है, लेकिन जब गब्बर सिंह गिरोह के डाकू गांव में वसूली करने आते हैं, तो गांव वाले शंकर और धौलिया अपने-अपने घरों से बोरे के बोरे अनाज निकालते हैं. डाकू पूछता है – ‘क्या लाये शंकर?’ तो वह कहता है- ‘ज्वार लाया हूं माई बाप.’ वाकई यह एक जादुई दुनिया लगती है. ऐसा लगता है कि रामगढ़ को किसी जादूगर ने बसाया होगा.
आखिर कौन था वह जादूगर और क्यों उसने ऐसी अनोखी दुनिया बसाई, ये सब जानने की कोशिश करेंगे. आपमें से बहुतों ने शोले फिल्म ज़रूर देखी होगी, एक-एक डायलॉग भी याद होगा. फिल्म के एक-एक सीन को याद कीजिए. वह ऊंची-ऊंची चट्टानों से घिरा हुआ है. चट्टानों को काटकर रास्ते बनाए गए हैं. चट्टानों के बीच बने रास्तों को देखने पर ऐसा लगता है कि यहां भी कोई माउंटेन मैन दशरथ मांझी जैसा जुझारू आशिक रहा होगा, जिसने यह ऐतिहासिक कारनामा कर दिखाया.
यहीं एक पुल भी है, जहां जय (अमिताभ बच्चन) गोलीबारी में घायल होते हैं. वाकई शोले का रामगढ़ किसी आशिक और जादूगर का ही कारनामा था. रामगढ़ के जादूगर थे – फिल्म के आर्ट डायरेक्टर राम येडेकर और आशिक थे – डायरेक्टर रमेश सिप्पी और प्रोड्यूसर जीपी सिप्पी, जिन्हें सिनेमा से प्यार था. उनके सिर पर जुनून सवार था कि कुछ अलग करना है. भारत में उस कैनवस की फिल्म बनानी है जो आमतौर पर विदेशों में दिखती है.
रमेश सिप्पी ने एक बातचीत में फिल्मी रामगढ़ को लेकर कहा था- ‘पहले डाकुओं वाली फिल्मों की शूटिंग ज्यादातर चंबल और उसके आसपास होती थी. गंगा जमुना, मुझे जीने दो, मेरा गांव मेरा देश जैसी फिल्में देखें तो यही लगता है. ये सभी शोले से पहले बनी फिल्में हैं. इन फिल्मों में बार-बार एक ही लोकेशन देखने के बाद हमने कुछ नया करने की ठानी. सोचा, क्या डाकू चंबल के बाहर नहीं होते होंगे?’
शोले के लोकेशन की तलाश को लेकर रमेश सिप्पी और आर्ट डायरेक्टर राम येडेकर के बीच बातचीत हुई. रमेश सिप्पी ने उनसे कुछ अलग-सा ऐसा लोकेशन खोजने के लिए कहा जो कि वेस्टर्न सिनेमा के लोकेशन से मिलता जुलता हो और हिंदी की फिल्मों में दिखाए गए डाकुओं की दुनिया जैसा न हो. राम येडेकर ने कहा- वह एक ऐसी जगह के बारे में जानते हैं. इसके बाद वह बैंगलुरू गए. वहां से करीब 70-80 किलोमीटर दूर रामनगरम में जाकर लोकेशन की खूब फोटोग्राफी की.
डायरेक्टर रमेश सिप्पी ने आगे बताया कि ‘उन्होंने करीब-करीब आधे रामनगरम की फोटोग्राफी करके प्रिंट निकालकर हमारे सामने टेबल पर बिछा दिया. उन तस्वीरों में खुला लोकेशन देखकर मैं तो दंग रह गया. हमें देश में ही मनचाहा लोकेशन मिल गया. इसके बाद रामगढ़ बसाने की पूरी जिम्मेदारी उन्होंने और उनकी टीम ने संभाली. ऐसा गांव बनाया जो आज एक मिसाल बन गया. कर्नाटक का रामनगरम शोले के रामगढ़ के नाम से फेमस हो गया, फिल्म टूरिज्म का डेस्टिनेशन बन गया.’
अब शोले के रामगढ़ गांव की कुछ उन बड़ी बातों पर गौर करते हैं, जो इसे सबसे अनोखा बनाता है. ऐसा गांव जो आज भी हिंदुस्तान में खोजना बहुत ही मुश्किल है. शोले फिल्म देखते समय रामगढ़ के लोकेशन को गौर से देखते जाइए. गांव में ठाकुर तो है, लेकिन ठाकुर का कुआं नहीं है. यहां पानी की एक टंकी है, जिस टंकी से पूरे गांव की प्यास बुझती है. यानी यहां कोई छुआछूत नहीं है. इसी टंकी पर वीरू यानी धर्मेंद्र चढ़कर दारू के नशे में नौटंकी करते हैं – इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है, आदि आदि… यानी पानी की टंकी मजनूं के टीले से कम नहीं – गांव में एक लव पॉइंट.
सन् 1975 के ज़माने में भारत के गांव में पानी की टंकी विकास की ऊंची मीनार से कम नहीं लगती. रामगढ़ में बिजली का अता-पता नहीं है, न ही वायर दिखता है, न ही खंभे या ट्रांसफार्मर. क्योंकि ठाकुर की छोटी बहू राधा यानी जया बच्चन देर रात होने के बाद बार-बार लैंप को बुझाती नज़र आती है. और दूसरी तरफ उसकी बालकनी से दिखते गेस्टहाउस के बरामदे पर जय यानी अमिताभ बच्चन माउथ ऑर्गन बजाते हुए दिखते हैं. प्रकाश और संगीत का अनोखा संबंध निखर उठता है. पूरा सीन संवेदना से भर जाता है. उसमें एक संभावना महसूस करते हैं.
शोले का रामगढ़ सामाजिक छुआछूत से ही मुक्त नहीं है, बल्कि यहां भाईचारे की भावना भी खूब दिखती है. यहां होली के दिन सबके दिल खिल जाते हैं और दुश्मन भी गले लग जाते हैं. यहां एक ओर शिव मंदिर है और दूसरी तरफ मस्जिद भी. शिव मंदिर में बसंती यानी हेमा मालिनी पूजा की थाली लेकर जाती है. और मंदिर के पीछे छिपकर उसका आशिक वीरू यानी धर्मेंद्र उसके साथ हंसी ठिठोली करते हैं. मस्जिद की सीढ़ियों से बुजुर्ग इमाम साहब यानी एके हंगल जब भी उतरते हुए दिखाई देते हैं, बसंती उनका हाथ थाम लेती है. क्योंकि इमाम साहब देख पाने में सक्षम नहीं हैं, लाठी टेक-टेककर चलते हैं.
ये वही रहीम चाचा इमाम साहब हैं जिनके बेटे अहमद यानी सचिन पिलगांवकर की गब्बर सिंह जब हत्या कर देता है तो उसके जनाज़े के पास खड़े होकर वह गम और गुस्से में कहते हैं- ‘आज पूछूंगा खुदा से, मेरे दो-तीन और बेटे क्यों नहीं हुए जो इस गांव के काम आते.’ शोले में उनके दो संवाद गब्बर और ठाकुर के मुकाबले ही काफी प्रसिद्ध हुए. उन्होंने कहा था- ‘जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा बोझ क्या होता है, बाप के कंधे पर बेटे का जनाजा.’ उन्होंने ही गांववालों को सीख दी कि- ‘जिल्लत की ज़िंदगी से कहीं बेहतर इज़्ज़त की मौत.’ इसके बाद रामगढ़ वाले जय और वीरू को गांव में रहने की इजाज़त देते हैं.
गांव में अकेली खूबसूरत कन्या बसंती है. वह घोड़ी धन्नो और मौसी के साथ-साथ अपने पेट की खातिर तांगा चलाती है. रोज़ रेलवे स्टेशन से आस-पास के गांवों तक सवारी लाती पहुंचाती है. पूरे इलाके में पचास-पचास कोस दूर गांवों में गब्बर सिंह का खौफ है. बच्चा भी गब्बर सिंह का नाम सुनकर चुप हो जाता है, लेकिन बसंती बेखौफ तांगा चलाती है. यकीनन, उस गांव में बसंती महिला सशक्तिकरण का प्रतीक लगती है. वह वीरू से बातचीत करते हुए कहती है- ‘धन्नो घोड़ी होकर तांगा खींच सकती है तो बसंती लड़की होकर तांगा क्यों नहीं चला सकती.’ इस प्रकार वह महिला सशक्तिकरण ही नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता का भी प्रतीक बन जाती है.
इस तरह रामगढ़ एक मिनी हिंदुस्तान जैसा हो जाता है. हर किस्म के कारोबार, रोज़गार यहां दिखाई देते हैं. जबकि यह गांव आज से पचास साल पहले बसाया गया था. यहां सब लोग मिलजुल कर रहते थे और साथ मिलकर विकास करते थे. चलो रे साथ, चलो सहेली गाते हुए एक-दूसरे का पर्व-त्योहार मनाते हैं. छुआछूत से मुक्त और भाईचारे वाला खुशहाल गांव आज देश में एक आदर्श है.