28-jan-2021
देश की राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के दिन किसानों ने लाल किले पर जाकर जो अराजकता फैलाई है, उससे देश के लोकतंत्र के प्रति अपनी श्रद्धा रखने वालों को तगड़ा झटका लगा है। वहीं इस मुद्दे पर किसानों का समर्थन करने वालों और उनके इस कुकृत्य को उनकी नादानी बताने वालों का भी एक दोगला चेहरा सामने आ गया है। कृषि कानूनों के प्रति विरोध को लेकर ट्रैक्टर रैली के नाम पर अराजकता फैलाने और लाल किले पर धार्मिक झंडा फहराने की घटना को कुछ बुद्धिजीवी भटके हुए किसान की करतूत बताकर उनका बचाव करने लगे हैं, जबकि किसी संवैधानिक जगह पर इस तरह का धार्मिक झंडा लगाना पूर्ण रूप से गृहयुद्ध जैसी स्थिति को पैदा करने वाला है। ऐसे में सरकार द्वारा किसी भी कार्रवाई से बचने के लिए वामपंथी और किसान के नेता तरह-तरह की सफाई देने लगे हैं।
दिल्ली में ट्रैक्टर रैली जब प्रस्तावित हुई थी तभी ये आशंकाए जताई जाने लगी थीं, कि हो न हो किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी यानि कि राष्ट्रीय पर्व के दिन दिल्ली में अराजकता फैलाई जाएगी, और हुआ भी कुछ ऐसा ही। इन तथाकथित किसानों ने पहले ट्रैक्टर रैली के लिए बनाए गए सारे प्रस्तावित नियम तोड़े और फिर देश के धरोहर लाल किले पर निशान साहेब का धार्मिक झंडा लहरा दिया, जो कि एक बेहद ही आपत्तिजनक घटना थी। इसको लेकर ये खबरें भी फैलाई गई कि वो खालिस्तान का झंडा था जिस पर एक अलग ही विवाद है। इस दौरान सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों पर भी आंदोलनकारियों ने हमला किया।
लाल किले पर हुई इस अशोभनीय घटना के लिए जितने जिम्मेदार वहां अराजकता फैलाने वाले किसान थे, उतने ही बड़े जिम्मेदार इस किसान आंदोलन और ट्रैक्टर रैली को आयोजित करने वाले संयुक्त किसान मोर्चे के नेता भी थे, लेकिन जब उनसे इस मुद्दे पर सवाल पूछे गए तो वो किसानों का ही बचाव करन लगे।
भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा, ‘उन अनपढ़ और गरीब किसानों को रास्ता ही नहीं पता था और वो लोग मार्ग से भटककर लालकिले पहुंच गए, लेकिन खास बात ये है कि वो सभी वहां अपना विरोध जता कर वापस आ गए।’ उन्होंने इस पूरी घटना के लिए केन्द्र सरकार और दिल्ली पुलिस को ही जिम्मेदार ठहरा दिया है। ऐसा करने के पीछे निसंदेह क़ानूनी कार्रवाई से इन फेक किसानों को बचाने की मंशा नजर आती है।
लाल किले में खालिस्तानी झंडे को लेकर गिद्ध पत्रकारिता करने वाले राजदीप सरदेसाई ने कहा कि किसानों ने तिरंगे का अपमान नहीं किया और वहां पर परिसर में निशान साहब का झंडा लगाया गया है, जो कि धार्मिक है। इस सफाई में कोई साधारण लोग नहीं, बल्कि एनडीटीवी और द क्विंट जैसे वामपंथी न्यूज पोर्टल्स के पत्रकार भी शामिल हैं जो कि किसानों के बचाव में बेतुके बयान दे रहे हैं।
स्पष्ट है कि ये लोग अब किसानों के कुकृत्यों के बचाव में उतर आए हैं। इन लोगों का सांकेतिक रूप से ये कहना है कि जब वो एक धार्मिक झंडा था तो इस मुद्दे को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए, ये वास्तव में शर्मनाक है। हद तो तब हो गई जब कथित किसानों द्वारा पुलिसकर्मियों पर हुए हमले को रविश कुमार जैसे पत्रकार छुपाने का प्रयास करते हुए पकड़े गये।
लाल किले पर कथित किसानों की शर्मनाक हरकत और उसको लेकर वामपंथियों द्वारा मिल रही अलग-अलग सफाईयों पर सवाल तो उठता ही है। जहां पर देश के प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय धव्ज फहराते हैं वहां एक धार्मिक झंडा लगाना कहां तक उचित है? क्या अपनी मांग के लिए देश के राष्ट्रीय ध्वज़ का अपमान करना उचित है? यकीनन ये एक शर्मनाक घटना थी। इस घटना को जो लोग किसानों की अनभिज्ञता बताकर नजरंदाज करने की बात कर रहे हैं असल में वो लोग हिंसात्मक घटना को अंजाम देने वालों का बचाव कर रहे हैं। साथ ही झंडे को धार्मिक बताकर इस मुद्दे पर किसानों को खुली छूट दे रहे हैं, साफ है कि ये एक ऐसी सांप्रदायिक हिंसा को जन्म देने की कवायद है जो देश को गृहयुद्ध की स्थिति में झोंक सकती है।
सरकार को इस मामले की गहराई में जाकर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इसके साथ ही इस हिंसात्मक आंदोलन को हवा देने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।
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