November 17, 2018
मुंह में राम बगल में छुरी वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए हर चुनाव में एलायंस बदलने व यू टर्न लेने में माहिर चंद्र बाबू नायडू चले हैं २०१९ के लिये कांग्रेस को लेकर महागठबंधन बनाने को। यह तीन टंगड़ी दौड़ का क्या हश्र होगा?
चंद्र बाबू नायडू आंध्र के मुख्यमंत्री भाजपा को साथ लेकर बने। अब वे पूरे भारत में परिवारवादी विपक्षी दलों का गठबंधन कहिये या ठगबंधन बनाने की कवायद कर रहे हैं। आंध्र में ही वे भाजपा के विरूद्ध गठबंधन नहीं बना सके हैं। वाईआरएस और उनके बीच ३६ का आंकड़ा है।
यही हाल तेलंगाना का है। आंध्र के पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव तीसरे मोर्चे की कवायद २०१९ के लिये कर रहे थे वह टाय–टाय फिस्स हो चुकी है।
तेलंगाना में भी कांग्रेस और चंद्र बाबू नायडू की टीडीपी चुनाव लड़ रही है चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस के विरूद्ध। यहॉ भी भाजपा के विरूद्ध महागठबंधन फैल है।
अविभाजित आंध्रा के निवासी अर्थात वर्तमान के तेलंगाना और विभाजित आंध्रा की जनता अच्छी तरह से वाकिफ है किस प्रकार से हथौड़ो से पीट–पीटकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की मूर्तिर्यों को तोड़कर सड़क पर फेंका गया था।
नायडू की दौड़ इसके बाद हुई है ममता बैनर्जी के दरबार में। ममता बैनर्जी की टीएमसी और कम्युनिस्ट पार्टियों की दुश्मनी विख्यात है। वहॉ भाजपा के बढ़ते प्रभाव से ममता बैनर्जी भयभीत है। बावजूद इसके क्या कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां ममता के साथ भाजपा के विरूद्ध आ सकेंगी।
नायडू की दौड़ प्रधानमंत्री बनने के महत्वकांक्षा पाने शरद पवार और फारूख अब्दुल्ला से शुरू हुई थी। अभी तक यह दौड़ उत्तरप्रदेश नहीं पहुंच सकी है जहॉ पर की लोकसभा की ८० सीटें हैं।
लोकशक्ति के इसी अंक के प्रथम पृष्ठ में मायावती और अखिलेश यादव के वक्तव्य प्रकाशित हैं। दोनों ही कांग्रेस और भाजपा को एक को नागनाथ तो दूसरे को सांपानाथ समझकर २०१९ की रणनीति बना रहे हैं। इसके अलावा राजा भैय्या ने भी वहॉ अलग पार्टी बनाकर अखिलेश की कमर तोड़ दी है।
साल 1996 में कर्नाटक के नेता एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री पद तक पहुँचाने के लिए जिस सेक्युलर मोर्चे को श्रेय दिया जाता है उसमें तमाम अलग–अलग पार्टियों को एकजुट करने का अहम काम नायडू ने ही किया था.
इसके महज दो साल बाद ही नायडू ने जबरदस्त यू–टर्न लेते हुए दक्षिणपंथी विचारधारा वाले दल बीजेपी के साथ मिलकर देश की पहली एनडीए सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई जिसके चलते अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने.
साल 2004 में जब उनकी पार्टी को आंध्र प्रदेश में हार का सामना करना पड़ा और उसके बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को भी हार मिली तो नायडू ने इस हार का ठीकरा साम्प्रदायिक छवि वाली बीजेपी और गुजरात दंगों पर फोडऩे में जऱा सी भी देर नहीं लगाई.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) साथ में है. दोनों पार्टियां मिलकर तेलंगाना विधानसभा चुनाव लड़ रही हैं. अगले साल आंध्र प्रदेश विधानसभा और लोक सभा चुनाव भी मिलकर लडऩे पर इनके बीच सहमति बनी है. फिर भी सूत्रों के हवाले से द इकॉनॉमिक टाइम्स जो ख़बर दी है उसकी मानें तो चंद्रबाबू नायडू को लेकर कांग्रेस पूरी तरह आश्वस्त नहीं है. बल्कि कुछ चिंतित ही है. ख़ास तौर पर कांग्रेस की आंध्र इकाई में नायडू को लेकर दोहराय है.
अख़बार के मुताबिक कांग्रेस की चिंता का विषय चंद्रबाबू नायडू की अतिसक्रियता है. पहले वह ये मान रही थी कि नायडू ने संभवत: कांग्रेस के साथ आकर ग़ैर–भाजपाई गठबंधन में उसका नेतृत्व स्वीकार कर लिया है. लेकिन अब यह धारणा हिलती दिख रही है क्योंकि नायडू कांग्रेस के साथ–साथ दूसरे दलों से भी लगातार मेल–जोल बढ़ा रहे हैं. इससे यह आभास होने लगा है कि वे विपक्षी गठबंधन की अगुवाई करने के लिए देर–सबेर कांग्रेस नेतृत्व के समानांतर अपनी दावेदारी भी पेश कर सकते हैं.
चंद्रबाबू नायडूृ स्वयं परिवारवादी पार्टी के संचालक हैं। वे जिन पार्टियों का गठबंधन मना रहे हैं वे भी अलगाववादी सोच वाली परिवारवादी पार्टियां हैं जो देश को टुकड़े–टुकड़े विभाजित सत्ता की लालसा में करने को आतुर हैं।
कर्नाटक कांग्रेस की सरकार ने तो कर्नाटक के लिये अगल झण्डे का प्रारूप भी पेश कर लिया था। ममता बैनर्जी ने कलकत्ता में टोल प्लाजा में सेना के हरवर्ष के जैसे अभ्यास को भी तख्तापलट की संज्ञा दी थी। इसी प्रकार से आज उसी ममता बैनर्जी का अनुकरण करते हुए आंध्रा के चंद महीनों के मुख्यमंत्री नायडू ने यह घोषणा की है कि वे भारत की संवैधानिक स्वतंत्र संस्था सीबीआई को घ्ुासने नहीं देंगे। इस प्रकार की सोच वाले अलगाववादी, देश को टुकड़े–टुकड़े में विभाजित करने वाली सत्ता लोलुप परिवारवादी पार्टियोंं को जनता का समर्थन किस हद तक प्राप्त होगा?
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