30 June 2020
भारत चीन विवाद का मुख्य कारण है मोदी सरकार का अर्थात भारत का चीन के चंगुल में न फंसना। चीन वन बेल्ट वन रोड क्चक्रढ्ढ के माध्यम से एशिया के देशों को ही नहीं बल्कि इटली जैसे यूरोपियन देशों को भी अपने जाल में फंसा चुका है।
जिबुती, किर्गिस्तान, लाओस, मालदीव, मंगोलिया, मोन्टेनेग्रो, पाकिस्तान और तजाकिस्तान.
चीन के इशारे पर नृत्य करते गुलाम?
चीन के जाल में फंसा था मालद्वीव, 10 हजार करोड़ देकर मोदी ने था उबारा। हिंद महासागर की सुरक्षा के लिए अहम है मालदीव।
भारत ही एक ऐसा देश है जिसने चीन के वन बेल्ट वन रोड को स्वीकार नहीं किया है।
>> चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत की कांग्रेस पार्टी के साथ रूश किया और उस पर राहुल गांधी ने २००८ में हस्ताक्षर किया। कांंग्रेस के नेताओं को अपने जाल में फंसाने अपने इशारे पर चीन के हित में कार्य करने के लिये चीन की एम्बेसी और चीन की सरकार ने राहुल गांधी फांडेशन और उससे संंबंधित राहुल गांधी इस्टीट्यूट फॉर कंटेम्पे्रररी क्रछ्वढ्ढष्टस्न को भी दान दिया। इसे दान न कहकर कांगे्रस विरोधी घूंस भी कह रहे हैं।
आलोचकों का कहना है कि उत्सुकता से, चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा उसके बाद शुरू होता है। चीन के साथ समग्र व्यापार घाटा 33 गुना बढ़ गया, यानी 2003-04 में 1.1 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2013-14 में 36.2 बिलियन डॉलर, यूपीए के तहत।
>> यूपीए शासनकाल में चीन सीमा बार्डर पर भारत ने सड़क पुल आदि का निर्माण कार्य रोके रखा। ठीक इसके विपरीत प्रारंभ से ही चीन रु्रष्ट के एक तरफ निर्माण कार्य पूरी गति से चालू रखते रहा।
मोदी सरकार ने चीन की चालबाजी को समझते हुए उसकी ब्लैक मेलिंग में न आने के लिये भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिये सीमा पर सड़क- पुल आदि का निर्माण कार्य चालू रखा। इससे चीढ़कर भी चीन ने सीमा विवाद पैदाकर गलवान घाटी में एक सोची समझी साजिश के तहत हिंसात्मक कार्रवाई की। हमारे २० जवान शहीद हुए परंतु उन्होंने चीन के भी ४०-५० सैनिकों और उनके कमांडर को भी ढ़ेर कर दिया। इससे चीन सदमे में है और उसकी तथा उसकी सेना की पोल विश्व में खुल गई है।
>> २८ जून २०२० के संपादकीय में मैंने लिखा था कि मोदी सरकार ने रुड्डष् पर हुए १९९३, ९६,२००५ के समझौते को गलवान घाटी की झड़प के बाद तलाक दे दिया है। अतएव अब कांग्रेस को भी चाईना को तलाक दे देना चाहिये।
>> आज का समाचार है कि ९० वर्षीय अलगाववादी नेता गिलानी ने खुद को हुर्रियत कांफ्रेंस से अलग कर इस संबंध में सभी सदस्यों को पत्र लिखा है। स्वतंत्रता के बाद की नेहरू-कांग्रेस की बागडोर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के हाथ में है। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर कहा था कि गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता कांंग्रेस की बागडोर सम्हाले। परंतु सोनिया गांधी ने सत्ता छोडऩे के त्याग की घोषणा के बाद बैक डोर से कांगे्रस और संबंधित सरकार को संचालित करते रही है। अब राहुल गांधी उसी प्रकार का त्याग का नाटक करने के बाद पुन: कांग्रेस की बागडोर सम्हालने के लिये ललाईत हैं। अच्छा तो यही होगा कि गांधी परिवार कांगे्रस को अपने से मुक्त कर दे और स्वतंत्रता पूर्वक उसे फलने-फूलने का पूरा मौका दे।
>> चीन के कर्ज तले आधी से ज्यादा दुनिया दब चुकी है। भारत में भी चीन का निवेश गांधी फांउंडेशन द्वारा चीन सरकार से दान लेने और २००८ मेें राहुल गांधी द्वारा रूश साईन करने के बाद से बढ़ा है। 2003-04 में 1.1 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2013-14 में 36.2 बिलियन डॉलर, यूपीए के तहत।
>> २९ जून २०२० के संपादकीय में मैंने लिखा था : अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार को खत्म करने के लिए वैश्विक लड़ाई के नेता के रूप में उभरे हैं , ट्रम्प द्वारा खाली की गई भूमिका को संभालने के लिए, : अमेरिका स्थित ब्रेइटबार्ट समाचार की रिपोर्ट ।
आत्म निर्भर भारत की ओर बढ़ते हुए आज भी मोदी सरकार ने एक बहुत बड़ा कदम उठाया है।
केन्द्र सरकार की चीन पर डिजिटल स्ट्राईक
चाइनीज टिक टॉक और यूसी ब्राउजर समेत 59 ऐप्स पर मोदी सरकार का प्रतिबंध।
कोरोना को चीन ने विश्व में फैलाकर विश्व के सभी देशों से दुश्मनी मोल ले ली है। प्रधानमंत्री मोदी जिस प्रकार से जिस प्रकार से पाक प्रायोजित ग्लोबल टेररिज्म के विरूद्ध लड़ाई के लिये विश्व को एकत्रित किया उसी प्रकार से अब हमारे देश के प्रधानमंत्री विश्व के सभी देशोंं जिसमें कोरोना से पीडि़त संपन्न देश ही नहीं बल्कि दुनिया के कर्ज से डूबे आधे से अधिक देशों को भी चीन की विस्तार वादी नीति के विरूद्ध एकत्रित करने में सफलता प्राप्त कर रहे हैं।
जिस प्रकार से ब्रिटिश ने अपना साम्राज्य विश्व में फैलाया और इस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत में फैलाया अब चीन भी चाहता है कि वह पूरे विश्व में अपना साम्राज्य विस्तारवादी नीति पर चलकर स्थापित करे। परंतु चीन को सोचना चाहिये कि सास भी कभी बहु थी । अर्थात एक समय था जब ब्रिटिश साम्राज्य का ही एक हिस्सा चीन भी था। १९४९ में वह स्वतंत्र हुआ। उसे सोचना चाहिये कि १९४७ में भारत की क्या स्थिति थी और चीन की क्या स्थिति थी।
चीन का कर्ज बन सकता है दुनिया के लिये मर्ज।
चीन का कर्ज बन सकता है दुनिया के लिए मर्ज
नई दिल्ली. चीन का कर्ज पूरी दूनिया के लिए सिरदर्द बन सकता है क्योंकि यह अगली वैश्विक मंदी को जन्म दे सकता है.
आईएमएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “समीक्षा के बाद चीन की अर्थव्यवस्था मजबूत नजर आती है और रिकवरी वाली अर्थव्यवस्था नजर आतीह है, मगर पब्लिक और प्राइवेट कर्ज की लगातार बढ़ती लागत के कारण अर्थव्यवस्था मध्यावधि में नीचे की ओर जा सकती है. चीन की अर्थव्यवस्था में कर्ज बड़ा हिस्सा बन चुका है.”
कर्ज लेकर तेजी से विकास करने वाले दूसरे देशों के अनुभवों का संज्ञान लेते हुए आईएमएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि कर्ज लेने चीन की मौजूदा रफ्तार ‘खतरनाकÓ है.
आईएमएफ के आंकड़ों के अनुसार, चीन के कर्ज में जबरदस्त इजाफा हुआ है. 2015-16 में 5 ट्रिलियन (5 लाख करोड़) रेनमिंबी की वृद्धि के लिए चीन ने 20 ट्रिलियन (20 लाख करोड़) रेनमिंबी का कर्ज लिया. रेनमिंबी चीन का करेंसी सिस्टम है।
>> विश्व के शांतिप्रिय सभी देशों को समझ जाना चाहिये कि जिस प्रकार से आर्थिक स्थिति कमजोर होने से रूस का साम्राज्य स्स्क्र समाप्त हो गया था उसी प्रकार से चीन का साम्राज्याद, विस्तारवाद का सपना भी पूरी दुनिया में छा जाने का चकनाचून हो जायेगा।
चीन के चक्रव्यूह में फंसी दुनिया के लिये भारत ही एक आशा की किरण
चीन के चक्रव्यूह में फंसी दुनिया के लिये भारत ही एक आशा की किरणजर्मनी की कील यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से लेकर 2018 के बीच देशों पर चीन का कर्ज 500 अरब डॉलर से बढ़कर 5 ट्रिलियन डॉलर हो गई. आज के हिसाब से 5 ट्रिलियन डॉलर 375 लाख करोड़ रुपए होते हैं.
अमेरिका की हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू की रिपोर्ट कहती है कि चीन की सरकार और उसकी कंपनियों ने 150 से ज्यादा देशों को 1.5 ट्रिलियन डॉलर यानी 112 लाख 50 हजार करोड़ रुपए का कर्ज भी दिया है. इस समय चीन दुनिया का सबसे बड़ा कर्ज देने वाला देश है. इतना कर्ज अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और वल्र्ड बैंक ने भी नहीं दिया है. दोनों ने 200 अरब डॉलर यानी 15 लाख करोड़ रुपए का कर्ज दिया है
डेट-ट्रैप डिप्लोमेसी
चीन की ये नई कूटनीति है. इसके जरिए चीन पहले छोटे देश को इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कर्ज देता है. उसे अपना कर्जदार बनाता है और फिर बाद में उसकी संपत्ति को अपने कब्जे में ले लेता है. चीन कर्ज के जाल में दुनिया के देशों को फंसाता जा रहा है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दुनियाभर की जीडीपी का 6 प्रतिशत के बराबर कर्ज चीन ने दूसरे देशों को दिया है.
अमेरिका की हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू की रिपोर्ट
2005 में चीन ने 50 से ज्यादा देशों को उनकी जीडीपी का 1त्न या उससे भी कम कर्ज दिया था, लेकिन 2017 के आखिर तक चीन उनकी जीडीपी का 15त्न से ज्यादा तक कर्ज देने लगा. इनमें से जिबुती, टोंगा, मालदीव, कॉन्गो, किर्गिस्तान, कंबोडिया, नाइजर, लाओस, जांबिया और मंगोलिया जैसे करीब दर्जन भर देशों को चीन ने उनकी जीडीपी से 20त्न से ज्यादा कर्ज दिया. इनमें पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका से लेकर कई अफ्रीकी देश शामिल हैं.
कर्ज देने में दुनिया में चीन पहली पसंद अफ्रीकी देश हैं. वजह है ज्यादातर अफ्रीकी देश गरीब और छोटे हैं. अक्टूबर 2018 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल के कुछ सालों में अफ्रीकी देशों ने चीन से ज्यादा कर्ज लिया है.
2010 में अफ्रीकी देशों पर चीन का 10 अरब डॉलर यानी करीब 75 हजार करोड़ रुपए का कर्ज था, जो 2016 में बढ़कर 30 अरब डॉलर यानी 2.25 लाख करोड़ रुपए हो गया. अफ्रीकी देश जिबुती पर चीन का सबसे ज्यादा कर्ज है. जिबुती पर अपनी जीडीपी का 80त्न से ज्यादा विदेशी कर्ज है. जिबुती के कर्ज का 77त्न हिस्सा अकेले चीन का है.
नेपाल सहित हमारे सारे पड़ोसी देशों को चीन हमारे खिलाफ करने में जी-जान से लगा है। वह अमेरिका से दुनिया के दारोगा की जंग में भी पूरी तरह मुब्तिला है। और 15 पड़ोसियों के साथ वर्षों से उसका विवाद चला आ रहा है
चीन नहीं बदला। भारत के साथ गलवान घटी में हुई हिंसक झड़प के एक हफ्ते बाद भी वह अपने हताहत सैनिकों का ठीक-ठीक ब्यौरा नहीं दे रहा। वहां के आधिकारिक सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म वीबो पर ढेरों बेचैन परेशान पोस्ट्स हैं। इनमें सैनिकों के परिजन भी हैं, जिन्हें अपनों की कोई खैर-खबर नहीं है। लेकिन ड्रैगन को ऐसी बेचैनियां कुचल देने की आदत है।
वो तो अब भी बारिश के दिनों में प्रतीकात्मक तौर पर पुरे चीन में आयोजित होने वाले ड्रैगन-डांस की तरह ही लहराता-झूमता मुंह से आग की लपटें निकालता नाच रहा है। ये लपटें भारत के सबसे करीब ज़रूर हैं, पर ड्रैगन का मुंह और देह कभी भी किसी ओर चले जाते हैं।
स्प्रैटली द्वीपसमूह पर स्वामित्व को लेकर वह ताइवान, वियतनाम, फिलीपींस और मलयेशिया पर गुर्रा रहा है। पिछले एक साल में इंडोनेशिया, मलयेशिया, वियतनाम और फिलीपींस के हिस्से वाले सागर क्षेत्रों पर अपना दावा मजबूत करने के लिए चीन ने अपनी नौसेना का इस्तेमाल किया है। वह तो इस जल राशि के 80 फ़ीसदी हिस्से पर दावा करता है।
तिब्बत पर कब्ज़ा जमाने के बाद वह यही काम हॉन्गकॉन्ग में कर रहा है। स्वायत्तता के वादों और लिखित प्रतिबद्धता के बावजूद इसी साल 28 मई को चीन की संसद ने हॉन्गकॉन्ग के लिए एक नए विवादास्पद सुरक्षा विधेयक को मंजूरी दी है। इसके जरिये हॉन्गकॉन्ग में चीन के अधिकार को कमजोर करना अपराध माना जाएगा।
लोग सड़कों पर उतर आए हैं पर ड्रैगन झूम रहा है। वह नेपाल सहित हमारे सारे पड़ोसी देशों को हमारे खिलाफ करने में जी-जान से लगा है। लेकिन इसी के साथ वह अमेरिका से दुनिया के दारोगा की जंग में भी पूरी तरह मुब्तिला दिखता है। कोरोना मामले में अपनी संदेहास्पद मुद्राओं के बावजूद पूरी ढिठाई से अड़ा हुआ है। जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्ऱांस सबके खिलाफ उसका रुख आक्रामक है। और याद रहे कि अपने 15 पड़ोसियों के साथ वह वर्षों से झंझट भरा संबंध चला रहा है।
बीते बीस वर्षों में सोच-समझकर खुद पर पूरी दुनिया के बाज़ारों की निर्भरता बना लेने के मद और अपनी रगों में बरसों से दौड़ बीते बीस वर्षों में सोच-समझकर खुद पर पूरी दुनिया के बाज़ारों की निर्भरता बना लेने के मद और अपनी रगों में बरसों से दौड़ रहे आक्रामक और विस्तारवादी रक्त के चलते ड्रैगन पूरी दुनिया जीत लेना चाहता है। नक़्शे पर हर तरफ लाल रंग बिखेर देना चाहता है। और इसीलिए सारे देश और दुनिया के लोग इस बात को लेकर बेहद फिक्रमंद हैं कि अगर ड्रैगन कामयाब हो गया तो इस दुनिया का चेहरा, उसकी रंगत कैसी होगी?
क्या लोकतंत्र, मानवाधिकार, राजनीतिक पक्ष-प्रतिपक्ष, कारोबारी बहुलता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे शब्द और सोच मोटी जिल्द वाली किताबों तक महदूद होकर रह जाएंगी? क्या दुनिया भर में हैपिनेस इंडेक्स (प्रसन्नता के सूचकांक) तैयार करने की कवायद बंद हो जाएगी?
ये आशंकाएं बेवजह नहीं हैं। आशंकाओं और संदिग्ध हरकतों के ये डरावने नक़्शे खुद उसी ने अपनी हरकतों के जरिये तैयार किए हैं। उसका पूरा तंत्र और चरित्र ऐसी असुविधाजनक सचाइयों से भरा है।
पहले चीन मॉडल का राजनितिक ढांचा ही समझिए। शीर्ष पर चीनी साम्यवादी दल और फिर सेना और सरकार। फिलहाल शी चिनफिंग तीनों पदों के प्रमुख हैं। तीनों पदों का एक ही मुखिया होने के पीछे कारण है सत्ता संघर्ष को टालना और देश को एक आदेश से हांकना। चीनी जनवादी गणराज्य की सर्वोच्च सत्ता चीनी जनवादी गणराज्य की जनसभा है, जिसे चीनी संसद भी कह सकते हैं। इसमें तीन हज़ार प्रतिनिधि हैं और जो वर्ष में कुल एक बार ही मिलते हैं।
वहां कोई स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं है। न्यायपालिका कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन ही है। कम्युनिस्ट पार्टी के साथ-साथ, चीन में आठ अन्य राजनैतिक दलों को भी सक्रिय रहने की अनुमति है, लेकिन इन दलों को कम्युनिस्ट पार्टी का बगल बच्चा होने से ज्यादा की इजाजत नहीं। उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का हर फैसला मंजूर करना होता है और केवल परामर्शदाता की भूमिका ही निभानी होती है।
चीन के सरकारी बैंक अपने देश में लोगों को कजऱ् देने से ज़्यादा कजऱ् दूसरे मुल्क को दे रहे हैं. चीनी बैंकों के इस क़दम को वहां की सरकार की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना के तहत कई देशों में आधारभूत ढांचा के विकास के लिए समझौते किए हैं, लेकिन इन समझौतों को एकतरफ़ा बताया जा रहा है.
चीन दुनिया भर के कई देशों में आधारभूत ढांचा के विकास पर काम कर रहा है और उसने भारी निवेश किया है.
वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार 2016 में पहली बार चीन के चार बड़े सरकारी बैंकों में से तीन ने देश में कॉर्पोरेट लोन देने से ज़्यादा बाहरी मुल्कों को कजऱ् दिए.
रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन अपनी कंपनियों को दुनिया के उन देशों में बिजऩेस करने के लिए आगे कर रहा है जहां से एकतरफ़ा मुनाफ़ा कमाया जा सके. रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए कजऱ् रणनीति को तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है.
वन बेल्ट वन रोड
यह तीन खऱब अमरीकी डॉलर से ज़्यादा की लागत वाली परियोजना है. इसके तहत आधारभूत ढांचा विकसित किया जाना है. इसके ज़रिए चीन सेंट्रल एशिया, दक्षिणी-पूर्वी एशिया और मध्य-पूर्व में अपना दबदबा बढ़ाना चाहता है.
इस परियोजना के साथ कई देश हैं, लेकिन ज़्यादातर पैसे चीन समर्थित विकास बैंक और वहां के सरकारी बैंकों से आ रहे हैं.
चीन एशियाई देशों में ही नहीं बल्कि अफ्ऱीकी देशों में भी आधारभूत ढांचा विकसित करने के काम में लगा है. उन्हीं देशों में एक देश है जिबुती. जिबुती में अमरीका का सैन्य ठिकाना है. चीन की एक कंपनी को जिबुती ने एक अहम पोर्ट दिया है जिससे अमरीका नाख़ुश है.
पिछले साल 6 मार्च को अमरीका के तत्कालीन विदेश मंत्री रेक्स टिलर्सन ने कहा था, ‘Óचीन कई देशों को अपने ऊपर निर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. वो जिन अनुबंधों को हासिल कर रहा है वो पूरी तरह से अपारदर्शी हैं. नियम और शर्तों को लेकर स्पष्टता नहीं है. बेहिसाब कजऱ् दिए जा रहे हैं और इससे ग़लत कामों को बढ़ावा मिलेगा. उन देशों की आत्मनिर्भता तो ख़त्म होगी है साथ में संप्रभुता पर भी असर पड़ेगा. चीन में क्षमता है कि वो आधारभूत ढांचों का विकास करे, लेकिन वो इसके नाम पर कजऱ् के बोझ को बढ़ाने का काम कर रहा है.ÓÓ
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का विस्तारवादी प्रायोजित साम्राज्य
चीन जनवादी गणराज्य (द्वारा तिब्बत के विलय “शांतिपूर्ण तिब्बत की मुक्ति” चीनी सरकार द्वारा कहा जाता है और ” चीनी आक्रमण तिब्बत के द्वारा” निर्वासन में तिब्बती सरकार 9 50 से 1 9 5 9 तक की घटनाओं की श्रृंखला थी जिसके द्वारा पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) ने तिब्बत पर नियंत्रण प्राप्त किया । ये क्षेत्र तिब्बत सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के प्रयासों, अपनी सेना के आधुनिकीकरण के प्रयासों , तिब्बत सरकार और पीआरसी के बीच वार्ता, एक सैन्य संघर्ष के बाद चीन के नियंत्रण में आ गए।अक्टूबर 1950 में पश्चिमी खाम के चमडो क्षेत्र में , और अक्टूबर 1951 में चीनी दबाव में तिब्बत सरकार द्वारा सातवें बिंदु समझौते की अंतिम स्वीकृति । कुछ पश्चिमी मतों में, तिब्बत को चीन में शामिल करना एक अनुलग्नक के रूप में देखा गया । 1 9 5 9 तक तिब्बती सरकार चीन के अधिकार में रही , जब तक कि दलाई लामा को भारत में निर्वासन में भागने के लिए मजबूर नहीं किया गया था और उसके बाद तिब्बत और तिब्बत सरकार सामाजिक संरचनाएं थीं। भंग।
तिब्बत के पांच फिंगर्स आगे की जानकारी: तिब्बत की पांच उंगलियां
तिब्बत के पांच उंगलियों चीनी रणनीति मूल द्वारा प्रतिपादित है माओत्से तुंग चयक करने के लिए लद्दाख (भारत) , नेपाल , सिक्किम (भारत) , भूटान , और अरुणाचल प्रदेश (भारत) । तिब्बत रणनीति के पांच उंगलियों के अनुसार, तिब्बत को चीन की दाहिनी हथेली माना जाता है, जिसकी परिधि पर पाँच अंगुलियाँ हैं: लद्दाख , नेपाल , सिक्किम , भूटान और अरुणाचल प्रदेश , चीन के दावे और अधिकार के उद्देश्य से अंतिम उद्देश्य के साथ ये क्षेत्र।
पूर्वी चीन सागर विवाद अधिक जानकारी: पूर्वी चीन सागर ईईजेड विवाद
डेंग शियाओपिंग द्वारा शुरू किए गए 1978 के चीनी आर्थिक सुधार के साथ , चीन ने अपने राजनीतिक रुख, अपने प्रभाव और विदेशों में अपनी शक्ति में वृद्धि की है। एक तरफ, चीन गहराई से तटस्थ है और किसी भी संघर्ष में शामिल नहीं है, और भूमि सीमाएं स्थिर हैं। सैन्य और आर्थिक धन का उपयोग करते हुए चीन ने अपना प्रभाव बढ़ाया है और द्वीप क्षेत्रों के उन दावों का दावा किया है जो पूर्व में पड़ोसी देशों जैसे फिलीपींस और जापान में चिंता का कारण बने हुए हैं। दक्षिण चीन सागर विवाद अधिक जानकारी: दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय विवाद
दक्षिण चीन सागर विवाद में चीन के द्वीप और समुद्री दावे दोनों शामिल हैं, इस क्षेत्र में कई पड़ोसी संप्रभु राज्यों के नाम हैं, जैसे कि ब्रुनेई, चीन गणराज्य (आरओसी / ताइवान), इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और वियतनाम। विवाद, द्वीप, चट्टान, बैंक, और दक्षिण चीन सागर में अन्य विशेषताएं हैं , जिनमें स्प्रैटली द्वीप समूह , पैराकेल द्वीप समूह , स्कारबोरो शोआल , टोनकिन की खाड़ी में सीमाएँ और इंडोनेशियाई नटुना द्वीपों के पास पानी शामिल हैं। ।
बेल्ट और सड़क पहल अधिक जानकारी: बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव : आरोपों का नवोन्मेषवाद
जेफरी रीव्स (2018) का तर्क है कि 2012 के बाद से, शी जिनपिंग ने दक्षिण और पश्चिम, विशेष रूप से मंगोलिया कजाकिस्तान ताजिकिस्तान में अपने विकासशील पड़ोसी राज्यों के प्रति “एक ठोस साम्राज्यवादी नीति” का प्रदर्शन किया है। किर्गिस्तान अफगानिस्तान , पाकिस्तान , नेपाल म्यांमार , कंबोडिया लाओस और वियतनाम । चीनी विदेशी आबादी को भी बांस के नेटवर्क के रूप में संदर्भित दक्षिण पूर्व एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में एक विषम भूमिका निभाने के लिए कहा जाता है।
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