02 sep 2021
पिछले दिनों कश्मीर के कुलगाम में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्षा और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने केंद्र सरकार को खुली धमकी दी है। उन्होंने कश्मीर और अफगानिस्तान के हालात की तुलना करते हुए कहा है कि हमारे सब्र का इम्तिहान न लो। हमारे सामने अफगानिस्तान की मिसाल है। फ़ौज काम नहीं आएगी। तालिबान ने अंततः अमेरिका को अफगानिस्तान से भागने पर मजबूर कर दिया। जिस वक्त हमारे सब्र का बांध टूट जायेगा, आप नहीं रहोगे, मिट जाओगे। आपके लिए अब भी मौका है कि बोरिया-बिस्तर समेटकर वापस चले जाओ। गौरतलब है कि इस बयान में वे खुद को तालिबान और भारत को अमेरिका मानकर चल रही हैं। उन्हें याद रखने और दिलाने की जरूरत है कि कश्मीर अफगानिस्तान की तरह कोई अलग देश नहीं, बल्कि भारत ही है। वे खुद तालिबान या तालिबान का हिमायती होने के लिए तो स्वतंत्र हैं, मगर तालिबान को कश्मीर बुलाने या भारत सरकार को तालिबानी दहशतगर्दी से डराने की आज़ादी उन्हें नहीं है। महबूबा के इस बयान से अमेरिका और पश्चिमी देशों को यह समझने में आसानी होगी कि कश्मीर के ये स्वघोषित लोकतंत्रवादी और मानवाधिकारवादी दरअसल तालिबान के हिमायती और हमदर्द हैं। वे दहशतगर्दी और हिंसा की तालिबानी विचारधारा के पोषक और प्रसारक हैं। खोल उतरने के बाद ही शेर-सियार और भेड़-भेड़िये की सच्चाई सामने आती है।
महबूबा एक के बाद एक बयान देकर अपना खोल, अपना मुलम्मा उतारने पर उतारू हैं। महबूबा के मन की बात गाहे-बगाहे उनकी जबान पर आ ही जाती है। इस धमकी के साथ ही उन्होंने एकबार फिर अनुच्छेद 370 की बहाली का बेसुरा राग अलापते हुए कहा कि सन् 1947 में यदि भाजपा होती तो जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं बनता। हालांकि, उनका यह बयान इतिहास और वर्तमान को सीमित और स्वार्थप्रेरित नज़रिये से देखना भर है। वे चाहे अपनी अलगाववादी ढपली पर लाख तालिबानी राग बजाएं पर कश्मीर के तालिबानीकरण का उनका एजेंडा कभी कामयाब नहीं होगा।
इससे पहले भी वे अपनी पार्टी के 22 वें स्थापना दिवस (28 जुलाई) के अवसर पर एक अत्यंत उत्तेजक, आपत्तिजनक और गैर-जिम्मेदाराना बयान देकर कश्मीर में आग भड़काने की कोशिश कर चुकी हैं। उन्होंने उस अवसर पर कहा था कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को कश्मीरियों से जो कुछ छीना है, उसे सूद समेत लौटाना पड़ेगा। इसी तरह का उनका एक और विवादास्पद बयान उल्लेखनीय है। उसमें उन्होंने 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति की बहाली तक तिरंगा न फहराने की कसम खायी थी। हालांकि, अपनी पार्टी और गुपकार गठजोड़ तक में अकेले पड़ जाने और राष्ट्रीय स्तर पर हुई फजीहत के दबाव में उन्हें अपना वह बयान वापस लेना पड़ा था। नफ़रत की भाषा बोलने और इस्लामिक जिहादियों को शह देने में महबूबा माहिर हैं। वे 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति की बहाली के ख्याली पुलाव पका रही हैं और कश्मीर घाटी के मुठ्ठीभर भ्रमित लोगों को सब्जबाग दिखा रही हैं। निश्चय ही, उनके इस प्रकार के भारत-विरोधी बयान उनकी पुनः नज़रबंदी की जमीन तैयार कर रहे हैं।
दरअसल, यह बयान देकर महबूबा मुफ़्ती ने जाने-अनजाने अपनी तालिबानी मानसिकता का परिचय दे दिया है। यह विचारणीय प्रश्न है कि तालिबान और उसकी करतूतों की वकालत करने वाली महबूबा क्या कश्मीर में तालिबान का शासन चाहती हैं? क्या वे चाहती हैं कि कश्मीर में अफगानिस्तान की तरह हर आवाज़ का जवाब एके 47 और एके 56 की गोलियों से देने की रवायत शुरू हो? उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे क्या तालिबान को दावत देकर कश्मीर की बहिन-बेटियों के पढ़ने-लिखने, काम करने पर पाबंदी लगवाना चाहती हैं? कश्मीर के अवाम द्वारा उनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या वे कश्मीरी महिलाओं को तालिबानी आतंकियों की ‘सेक्स स्लेव’ बनाये जाने की हिमायती हैं? मासूम महबूबा के अलावा अफगानिस्तान से लेकर अमेरिका तक सबको तालिबान की असलियत पता है।
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