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वैधव्य के त्रासदीपूर्ण जीवन का कलंक मिटें

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– ललित गर्ग –

किसी भी समाज में वैवाहिक जीवन साथी विशेषतः पति की मृत्यु हो जाने के बाद पत्नी की हालात काफी चिंताजनक हो जाती हैं। एक शादीशुदा महिला ने जो सपने शादी से पहले अपनी आने वाली जिंदगी के लिए देखे होते हैं, वो सब टूट जाते हैं। यही नहीं, आज भी हमारा समाज विधावाओं को उस नजर से नहीं देखता है, जिसकी वो असल में हकदार हैं। इससे उत्पन्न पारिवारिक, सामाजिक, वित्तीय और आर्थिक समस्याएं तो कई बार इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उनका समाधान बहुत मुश्किल नजर आता है। ऐसे में इस समाज की जिम्मेदारी बनती है कि विधवाओं को भी बाकी सामान्य लोगों की तरह सम्मानजनक जीवन जीने का दर्जा मिले। इस दृष्टि से विश्वस्तर पर हर साल 23 जून को अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाया जाता है।
दरअसल, सभी उम्र, क्षेत्र और संस्कृति की विधावाओं की स्थिति को विशेष पहचान दिलाने के लिए 23 जून 2011 को पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाने की घोषणा की और तब से हर साल इस दिन को मनाया जाता है। ब्रिटेन की लूंबा फाउंडेशन पूरे विश्व की विधवा महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार पर विगत सात सालों से संयुक्त राष्ट्र संघ में अभियान चला रही है। इस दिवस को मनाने के पीछे का उद्देश्य है कि पूरी दुनिया में विधवा महिलाएं वैधव्य की त्रासदी एवं विडम्बना से मुक्त जीवन जीते हुए आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास एवं उन्नतिपूर्ण जीवन जी सके।
भारत में विधवा महिलाओं का जीवन एक त्रासदी से कम नहीं है। हमारे यहां सदियों से विधवा महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने की परंपरा रही है। कई बार तो उन्हें पारिवारिक संपत्ति में अधिकारों से वंचित कर मायके भेज दिया जाता है। विधवाओं के अधिकार, उनके धर्म, क्लास, जाति और क्षेत्र पर निर्भर करते हैं। हिंदू उत्तराधिकार कानून के तहत संयुक्त हिंदू परिवारों में विधवाओं को जीवनयापन के लिए न्यूनतम धन पाने का अधिकार है। विधवाओं के जीवन सुधार के लिए समय-समय पर देश में कानून बनाये गये, लेकिन आज भी हमारे देश में विधवाओं के सामान्य जीवन से जुड़े तमाम मसले हैं, जिनका हल किया जाना अनिवार्य है।
दुनिया की लाखों विधवाओं को गरीबी, अभाव, भेदभाव, उत्पीड़न, हिंसा, बहिष्कार, बेघर, बीमारी, स्वास्थ्य जैसी समस्याएं से जुझना पड़ता है और कानूनी व सामाजिक भेदभाव सहना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक कहा जाता है कि, लगभग 115 मिलियन विधवाएं गरीबी में रहने को मजबूर हैं, जबकि 81 मिलियन महिलाएं ऐसी हैं जो शारीरिक शोषण का सामना करती हैं। ज्यादातर समाज में महिलाओं के मुकाबले सभी प्रकार के धन और संपत्तियों पर गैर अनुपातिक ढंग से मालिकाना हक पुरुषों का होता है। लैंगिक स्तर पर यह विषमता सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि आमदनी और कमाई में भी होती है। खानदानी जमीन-जायदाद में मालिकाना हक जैसे मामलों में महिलाओं की स्थिति हमेशा कमतर होती है। विधवा होने की स्थिति में इसका प्रभाव बहुत बड़ा होता है, जो असहनीय स्तर तक पहुंच जाता है। विधुर पुरुष की तुलना में विधवा महिला के हालात इतने खराब हो जाते हैं कि कई बार तो जीवनयापन तक मुश्किल हो जाता है। उसे उपेक्षा, उत्पीडन, भेदभाव एवं घुटन का जीवन जीना पड़ता है। सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर पर नकारात्मक दृष्टिकोण की वजह से विधवाओं को कई कठिनाइयों, उपेक्षाओं और अभावों का सामना करना पड़ता है। समाज द्वारा उन पर और उनके क्रियाकलापों पर कई प्रकार की पाबंदियां लगा दी जाती हैं।
देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां विधवाओं को अपशकुनी या चुड़ैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती है। राजस्थान में विधवा स़्ित्रयों के प्रति होने वाली उपेक्षा एवं दयनीय व्यवहार एक त्रासदी एवं हिंसा से कम नहीं है। विधवा स्त्री घर के एक कोने में घुट-घुट कर जीने को विवश कर दी जाती है, उसे घर के समस्त मांगलिक कार्यों से दूर रखा जाता है, इतना ही नहीं उसे अपशकुन माना जाता है। परंपरा के नाम पर इन्हें सफेद धोती पहननी पड़ती है। विधवाओं के लिए सज-संवरकर रहना गलत माना जाता है। विधवा को अपने ही घर में नौकरानी की तरह रहना पड़ता है। क्या कोई पुरुष अपनी पत्नी के वियोग में ऐसा जीवन जीता है? यदि नहीं तो स्त्री ने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जो उसे ऐसी हृृदय-विदारक वेदना भोगनी पड़े। समाज का दायित्व है कि ऐसी वियोगिनी योगिनियों के प्रति सहानुभूति, संवेदनात्मक एवं समानतापूर्ण वातावरण का निर्माण करें और एन्हें सचेतन एवं सम्मानपूर्ण जीवन का अवसर दें।
भारत में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां बाल विवाह और बेमेल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। मसलन राजस्थान के कुछ इलाकों में बहुत कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का विवाह उनसे कई गुना ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दिया जाता है। ऐसे में जब ये लड़कियां जवान होती हैं, तब तक उनके पति बूढ़े हो जाते हैं। पति की मौत के बाद इन्हें भरी जवानी में बाकी जिंदगी विधवा बनकर गुजारनी पड़ती है। दुनिया के कई देशों के मुकाबले में भारत में लैंगिक स्तर पर कई समस्याएं हैं। इसका असर सामाजिक जीवन पर भी पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में साढ़े पांच करोड़ से अधिक विधवाएं हैं। यह संख्या दक्षिण अफ्रीका और तंजानिया जैसे देशों की आबादी के लगभग बराबर है। विधवाओं की यह संख्या दक्षिण कोरिया या म्यांमार की आबादी से अधिक है।
विश्व अब एक परिवार है, हम सब एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा हैं। हमें एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में पता होना चाहिए ताकि समाधान की दिशा में कदम उठाए जा सकें। दुनिया भर में बड़ी संख्या में महिलाएं युद्ध, आतंकवाद व हिंसा की वजह से अपने पतियों को खो देती हैं। काश! ये लड़ाइयां खत्म हो जाएं। ऐसा हुआ तो यकीनन यह यह दुनिया एक बेहतर जगह बन पाएगी। विधवाओं के साथ हमेशा से भेदभावपूर्ण व्यवहार होता रहा है। देश में उम्रदराज विधवाओं की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2001 से 2011 के बीच विधवा महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, इसका एक कारण पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की जीवन प्रत्याशा का अधिक होना भी है। उम्रदराज विधवा महिलाओं की गैर समानुपातिक ढंग से संख्या बढ़ने का प्रमुख कारण ज्यादातर विधुर पुरुषों का पुनर्विवाह होना भी है। वैसे तो देश में सर्वत्र विधवा स्त्रियां देखने को मिल जाती है, लेकिन वृंदावन में हजारों विधवाएं हैं जिन्हें उनके बेटे या परिवार वाले श्रीकृष्ण दर्शन के नाम पर छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए। विधवाओं की खराब स्थिति के लिए अशिक्षा, तथाकथित आधुनिकता एवं भोगवादी जीवनशैली एक बड़ी वजह है।
हमारा समाज पहले से ही महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाता है, इसलिए एक विधवा के लिए जीवन और कठिन हो जाता है। विधवाओं के लिए एक छोटी बचत योजना होनी चाहिए, ताकि वे अपने बुढ़ापे के लिए कुछ पैसा जमा कर सकें। हमें विधवाओं से संबंधित व्यवस्थित आंकड़ें एकत्र करने होंगे ताकि उनके लिए व्यापक योजनाएं बनाई जा सकें। विधवाओं के इलाज और स्वास्थ्य की देखरेख की जिम्मेदारी केन्द्र एवं राज्य सरकार की होनी चाहिए। विधवाओं को भी सम्मान से जीने और मुस्कराने का हक है। हमारे यहां विधवाओं की दूसरी शादी का चलन ही नहीं है। पति की मौत के बाद पत्नी को बाकी की जिंदगी अकेले ही बितानी होती है। भारतीय परंपरा में माना जाता है कि शादी सात जन्मों का रिश्ता है। ऐसे में विधवा स्त्री दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकती। पति की मौत के बाद उसे पूरे जीवन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। विधुर पुरुषों के मुकाबले विधवाओं के पुनर्विवाह के मामले बहुत कम सामने आते हैं। तमाम सांस्कृतिक बंधनों में दबी ऐसी औरतों को अक्सर समाज और स्थानीय समुदाय नजरअंदाज कर देता है। विधवा दिवस हमें उन आर्थिक कठिनाइयों और बढ़ती संवेदनशीलता पर विचार करने पर विवश करता है जिनका सामना ये शोक संतप्त महिलाएं कर रही हैं। आइए, इस अंतरराष्ट्रीय दिवस पर सभी विधवाओं को सहयोग देने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराएं- भले ही उनकी उम्र कोई भी हो, वे किसी भी जाति, धर्म, वर्ग एवं स्थान से संबंधित हों या किसी भी कानूनी प्रणाली के दायरे में आती हों। यह सुनिश्चित करें कि वे किसी से न पिछड़ें, सम्मानजनक जीन जीये।
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