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चैनल डिबेट की आक्रामकता में धुंधलाता सौहार्द

-ललित गर्ग –

इस्लाम एवं पैगम्बर पर टिप्पणी के बाद देश-विदेश खासकर खाड़ी देशों में घिरी भारतीय जनता पार्टी ने अपने दो प्रवक्ताओं नूपुर शर्मा एवं नवीन कुमार जिंदल पर एक्शन लेते हुए उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। भाजपा ने स्पष्ट किया है कि हम सभी धर्मों और उनके पूजनीयों का सम्मान करते हैं। किसी का अपमान स्वीकार नहीं है। भाजपा की यह कार्रवाई इन दोनों नेताओं के साथ उन सभी के लिए एक सबक बननी चाहिए जो सार्वजनिक विमर्श में शामिल होते हैं और प्रायः भाषा की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। संवाद और सार्वजनिक विमर्श में भाषा की मर्यादा का अपना एक स्तर होता है और उसे बनाए रखना सबका साझा दायित्व है। आजकल चैनलों पर डिबेट की आक्रामकता निम्नस्तर तक पहुंच गयी है, जो राष्ट्रीय मूल्यों को आहत करने के साथ-साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं पत्रकारिता के आदर्शों को भी धुंधला रही है।
पिछले लम्बे समय से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में डिबेट का चलन बहुत अधिक बढ़ा है। यह डिबेट कुछ बेहतर परिणाम दे या न दे, लेकिन समाज एवं राष्ट्र को नुकसान अवश्य पहुंचाती हैं। जब संवेदनशील मामलों और विशेष रूप से धार्मिक बहस के समय भाषा की मर्यादा टूटती है, तो उसका कहीं अधिक प्रतिकूल असर पड़ता है और कभी-कभी तो लोग सड़कों पर उतरकर हंगामा और हिंसा करने लगते हैं। दुनिया में भारत की छवि भी आहत होती है। यही नहीं विवादित अथवा आपत्तिजनक टिप्पणियां करने वालों को धमकियां दी जाने लगती हैं। अब जो बहसें हो रही हैं और उनके जो विषय होते हैं, उससे समाज को लाभ कम नुकसान ज्यादा होता है। हम पिछले कई महीनों की प्रमुख चैनलों की डिबेट का आकलन करें तो यह सिवाए हिन्दू मुसलमान को आपस में बांटने एवं लड़वाने के और कुछ नहीं रही हैं। एंकर बहस की शुरुआत चाहे जितने ही सामाजिक विषय से करे, वह अंत मे पहुंचता सिर्फ हिन्दू मुसलमान पर ही है। क्या इसी दिन के लिए यह प्रोग्राम बनाए गए थे, बल्कि सोचा गया था कि बहस से कोई रास्ता निकलेगा और वह समाज को रास्ता दिखाएगा मगर इन बहसों ने तो रास्ता दिखाने की जगह रास्ते बांटने का काम कर दिया है। दिलों को जोड़ने की बजाय तोड़ने का काम किया है।
टीवी डिबेट में आधे घंटे से लेकर घंटे भर तक कोई भी प्रोग्राम उठा लीजिये, उसका निचोड़ केवल धार्मिक बंटवारा ही निकलेगा, इंसान-इंसान के बीच दूरिया एवं फासले पैदा करना ही निकलेगा। कभी किसी की टोपी उछाली जाएगी तो कभी किसी के तिलक को मज़ाक बनाया जाएगा। यह बहसें जो राजनैतिक होनी चाहिए थीं, वह व्यक्तिगत और धार्मिक हो रही हैं, इसका लाभ किसे मिलेगा, सिवाए तोड़ने वालों के। चैनल्स की डिबेट्स का मकसद था कि समाज के लिए बेहतर चीज़ मंथन के बाद निकालना मगर इधर कुछ एंकर्स, चैनल्स और प्रवक्ताओं ने इसे मंथन की जगह युद्ध और आक्रमण में बदल दिया है। ऐसा लगता है कि इन डिबेट की सारी कवायद उजालों पर कालिख पोतने का ही प्रयास होता है। यहां बदले रुख में कोई भी राजनैतिक दल कम और ज्यादा प्रभावित तो हो सकता है मगर सभी इस विष को गले लगाए हैं। बताइए गला फाड़-फाड़ चीखने से समस्या का हल निकलेगा या समस्या पैदा होगी? मगर हममें से कोई भी ठहरकर, रुककर इस बिगड़ते हुए डिबेट कल्चर पर बात नहीं करना चाहता है। इस प्रकार की उद्देश्यहीन, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक एवं आक्रामक बहसों से किसी का हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इसलिये इस बहस-संस्कृति पर गंभीर विमर्श की अपेक्षा है। इसको एक आचार-संहिता में बांधा जाना चाहिए। यह दायित्व इसलिए और अधिक बढ़ गया है, क्योंकि इंटरनेट मीडिया के साथ टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चा में अक्सर शालीनता, संयम, अनुशासन और गरिमा के दायरे से बाहर निकलकर तीखी-ओछी, घिनौनी, अशिष्ट एवं अभद्र टिप्पणियां की जाती हैं।
टीवी डिबेट से जुड़े सभी लोग, उनमें मीडियाकर्मी भी हैं, राजनैतिक दलों के प्रवक्ता भी हैं, विषयों के जानकार भी हैं, धर्म-विशेष के प्रतिनिधि, पत्रकार और एक्सपर्ट भी हैं और बहुत बड़ा वर्ग दर्शकों का भी है। सबको मिलकर सोचना होगा कि जो हम कर रहे हैं, वह समाज एवं राष्ट्र हित में है भी या नहीं। यह जो डिबेट्स हैं, यह भारत की आत्मा को जोड़कर मज़बूत कर रही हैं या बांटकर छलनी कर रही हैं। इसमें व्यक्तिगत हमले हो रहे हैं या विषय पर सार्थक बात हो रही है। इन बहसों से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का जो माहौल बना है, वह देश के लिए बुरा है, होना तो यह था अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को साथ लाने एवं जोड़ने के प्रयत्न करने चाहिए थे, जो कि मुश्किल भी नहीं था, क्योंकि मूलतः यह आज भी साथ हैं मगर चैनल्स और उनके एजेंडे से लैस एंकर्स ने इनको साथ लाने की जगह तोड़ने का अधिक काम किया है। हम सबको सोचना होगा कि देश के लिए क्या बेहतर है। ऐसी बेतुकी गर्मागर्म बहसों से चैनल की टीआरपी तो बढ़ सकती है मगर देश कमज़ोर होता है। जब एंकर चीखता है तो समझ लीजिए उसके पास कहने को कुछ खास नहीं है, सिवाए चिल्लाने के, जब वह पैनलिस्ट को उकसाता है तो मान लीजिए यह विषय से कंगाल है। जब कोई प्रवक्ता व्यक्तिगत हमले करता है, तो समझ जाइये की वह अपनी खिसियाहट मिटा रहा है। जैसे ही वह हिन्दू मुसलमान पर आ टिके तो समझ लीजिए कि वह देश और समाज को समझने में दरिद्र है, वह विचार से कंगाल है, इसलिए बस इसके पीछे छिपकर अपनी अज्ञानता पर कुतर्कों का पर्दा डाल रहा है। इन बहसों और ऐसे मनोवैज्ञानिक प्रभाव से खुद, समाज एवं राष्ट्र को बचाइए, यह सबको बीमार कर देंगी। चैनलों पर होने वाली परिचर्चाएं ‘मुर्ग़े की लड़ाई’ बनती जा रही है। समाज का बहुत बड़ा तबक़ा ऐसा भी है जिसे लगता है कि चैनलों पर होने वाली परिचर्चाओं पर पाबन्दी लगायी जानी चाहिए या इनके गिरते स्तर पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।
यह कैसा विरोधाभास एवं विडम्बना है कि अल्पसंख्यक के नाम पर एक सम्प्रदाय विशेष, वर्ग-विशेष की सारी गलतियां माफ कर दी जाती है। ऐसे लोग, जो स्वभाव से ही राष्ट्र की प्रगति, एकता एवं सौहार्द-भावना को सहन नहीं कर सकते, बिना किसी कारण जो विवाद खड़े करना चाहते हैं, वे ईर्ष्या और मात्सर्य की भावना से प्रेरित होकर विरोध करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि हिंदू मंदिरों के प्रतीक चिह्नों के साथ शिवलिंग मिलने की बातों की किस तरह खिल्ली उड़ाई गई और शिवलिंग को लेकर कैसी ओछी, भद्दी और हिंदू जनमानस को आहत करने वाली टिप्पणियां भी की गईं। क्या इन सबके खिलाफ भी कोई कार्रवाई होगी? एक सवाल यह भी है कि क्या कथित आपत्तिजनक टिप्पणियां करने वाले भाजपा प्रवक्ताओं को जान से मारने और यहां तक कि सिर तन से जुदा करने की खुलेआम धमकियां देने वालों के खिलाफ भी कोई कार्रवाई होगी? यह न केवल हैरानी, बल्कि गंभीर चिंता की बात है कि ऐसे उन्मादी तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती नहीं दिख रही है।
कानून के शासन का तकाजा यही कहता है कि जब इस्लाम एवं पैगम्बर पर टिप्पणी पर कार्रवाई होती है तो हिन्दू देवी-देवताओं एवं प्रतीकों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले लोगों पर भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, बल्कि उन तत्वों को भी हतोत्साहित भी किया जाना चाहिए जो भारत में ईशनिंदा का कानून बनाने की पैरवी करते रहते हैं। उन्हें हिन्दू नाम से ही एलर्जी है। तरस आता है उन संकीर्ण, आक्रामक, कट्टरवादी लोगों की बुद्धि पर, जो सूरज के उजाले पर कालिख पोतने का असफल प्रयास करते हैं, आकाश में पैबंद लगाना चाहते हैं और सछिद्र नाव पर सवार होकर सागर की यात्रा करना चाहते हैं। भारत में रहकर भारत को गाली देना एवं पाकिस्तान के गुण गाना, यह कैसी राष्ट्रीयता है? यह कैसा अल्पसंख्यकवाद है? यह भी लोकतंत्र की भावना के सर्वथा विरुद्ध है। निःसंदेह सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है और यह स्वतंत्रता लोगों को अरुचिकर और अप्रिय लगने वाली बातें कहने का भी अधिकार देती है, लेकिन इस अधिकार की अपनी एक सीमा है। यह खेद की बात है कि ज्ञानवापी प्रकरण में जारी बहस के दौरान कई बार भाषा की मर्यादा का उल्लंघन होते हुए दिखा।