नेताजी सुभाष बोस को कम्युनिस्ट पार्टी ने तोजो का कुत्ता कहा था अब ये ही पार्टियां महेन्द्र प्रताप सिंह को क्या कहेंगी?
राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म मुरसान नरेश राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ 1 दिसम्बर सन 1886 ई. को हुआ था। राजा घनश्याम सिंह जी के तीन पुत्र थे, दत्तप्रसाद सिंह, बल्देव सिंह और खडग़सिंह, जिनमें सबसे बड़े दत्तप्रसाद सिंह राजा घनश्याम सिंह के उपरान्त मुरसान की गद्दी पर बैठे और बल्देव सिंह बल्देवगढ़ की जागीर के मालिक बन गए। खडग़सिंह जो सबसे छोटे थे वही हमारे चरित नायक राजा महेन्द्र प्रताप जी हैं। मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने पर उनका नाम खंडग़सिंह से महेन्द्र प्रताप सिंह हो गया था, मानो खडग़ उनके व्यक्तित्व में साकार प्रताप बनकर ही एकीभूत हो गई हो। कुँवर बल्देव सिंह का राजा साहब (महेन्द्र प्रताप जी से) बहुत घनिष्ठ स्नेह था और राजा साहब भी उन्हें सदा बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। उम्र में सबसे छोटे होने के कारण राजा साहब अपने बड़े भाई को ‘बड़े दादाजीÓ और कुँवर बल्देवसिंह जी को ‘छोटे दादाजीÓ कहकर संबोधित किया करते थे।
बचपन जब राजा साहब केवल तीन वर्ष के ही थे, तभी उन्हें हाथरस नरेश राजा हरिनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था, किन्तु राजा साहब 7-8 वर्ष की अवस्था तक मुरसान में ही रहे। इसका कारण यह था कि राजा घनश्यामसिंह को यह डर था कि कहीं राजा हरिनारायण सिंह की विशाल सम्पत्ति पर लालच की दृष्टि रखने वाले लोभियों द्वारा बालक का कोई अनिष्ट न हो जाए।
विद्यार्थी जीवन राजा साहब पहले कुछ दिन तक अलीगढ़ के गवर्नमेन्ट स्कूल में और फिर अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। यही कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। राजा साहब को अलीगढ़ में पढऩे सर सैयद अहमद ख़ाँ के आग्रह पर भेजा गया था, क्योंकि राजा साहब के पिताजी राजा घनश्याम सिंह की सैयद साहब से व्यक्तिगत मित्रता थी। इस संस्था की स्थापना के लिए राजा बहादुर ने यथेष्ट दान भी दिया था। उससे एक पक्का कमरा बनवाया गया, जिस पर आज भी राजा बहादुर घनश्याम सिंह का नाम लिखा हुआ है। राजा साहब स्वयं हिन्दू वातावरण में पले परन्तु एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। इसका एक सुखद परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम धर्म और मुसलमान बन्धुओं का निकट सम्पर्क उन्हें मिला और एक विशिष्ट वर्ग के (राजकुमारों की श्रेणी के) व्यक्ति होने के कारण तब उनसे मिलना और उनके सम्पर्क में आना सभी हिन्दू मुस्लिम विद्यार्थी एक गौरव की बात मानते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि राजा साहब का मुस्लिम वातावरण तथा मुसलमान धर्म की अच्छाइयों से सहज ही परिचय हो गया और धार्मिक संकीर्णता की भावना से वह सहज में ही ऊँचे उठ गए। बाद में जब राजा साहब देश को छोड़ कर विदेशों में स्वतंत्रता का अलख जगाने गये, तब मुसलमान बादशाहों से तथा मुस्लिम देशों की जनता से उनका हार्दिक भाईचारा हर जगह स्वयं बन गया। हमारी राय से राजा साहब के व्यक्तित्व की यह विशेषता उन्हें इस शिक्षा संस्थान की ही देन है।
स्वतंत्रता सेनानी की भावना
राजा साहब जब विद्यार्थी थे, उनमें जहाँ सब धर्मों के प्रति सहज अनुराग जगा वहाँ शिक्षा द्वारा जैसे-जैसे बुद्धि के कपाट खुले वैसे-वैसे ही अंग्रेज़ों की साम्राज्य लिप्सा के प्रति उनके मन में क्षोभ और विद्रोह भी भड़का। वृन्दावन के राज महल में प्रचलित ठाकुर दयाराम की वीरता के किस्से बड़े बूढ़ों से सुनकर जहाँ उनकी छाती फूलती थी, वहाँ जिस अन्याय और नीचता से गोरों ने उनका राज्य हड़प लिया था, उसे सुनकर उनका हृदय क्रोध और क्षोभ से भर जाता था और वह उनसे टक्कर लेने के मंसूबे बाँधा करते थे। जैसे-जैसे उनकी बुद्धि विकसित होती गई, वैसे अंग्रेज़ों के प्रति इनका विरोध भी मन ही मन तीव्र होता चला गया।
25 दिसंबर 2015 का दिन था। दुनिया क्रिसमस मना रही थी, भारत में वाजपेयी जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तो पाकिस्तान में जिन्ना के साथ-साथ नवाज शरीफ की सालगिरह। पीएम मोदी रूस से सीधे पहुंचे अफगानिस्तान की राजधानी काबुल, उनकी नई संसद में अटल ब्लॉक का उद्घाटन किया और अफगानिस्तान की संसद को संबोधित किया। उसके बाद मोदी सीधे पहुंच गए पाकिस्तान।
इतिहास में ये तारीख हमेशा के लिए दर्ज हो गई है कि कैसे भारत का पीएम पाकिस्तान के पीएम की सालगिरह मनाने अचानक से उड़कर पाकिस्तान पहुंच जाता है। दोनों देशों की मीडिया के लिए ही नहीं दुनिया भर की मीडिया के लिए ये बड़ी खबर थी, लेकिन इस बड़ी खबर में ऐतिहासिक नजरिये से एक बहुत बड़ी खबर बताने से देश की मीडिया चूक गई और वो ये कि जिस व्यक्ति ने एक बार लोकसभा चुनावों में भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को करारी शिकस्त दी थी, भाजपा के दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काबुल की संसद में उस व्यक्ति की जमकर, दिल खोलकर तारीफ की।
कौन था वो व्यक्ति, जिसने मोदी को काबुल की संसद में अपनी तारीफ करने पर मजबूर कर दिया, ये मोदी की मजबूरी थी या भाजपा का महापुरुषों को लेकर बदलता नजरिया, जैसा कि सरदार पटेल आज भाजपा के पसंदीदा महापुरुषों में गिने जाने लगे हैं? ये व्यक्ति थे उत्तर प्रदेश के जिला हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप सिंह।
आमतौर पर हाथरस जिले का भारत के नक्शे पर कोई बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं बन पाया, आम आदमी उसे काका हाथरसी की नगरी के तौर पर जानता है, या हींग, घी, रंग, रबड़ी जैसे कुछ उम्दा प्रोडक्ट्स केंद्र के तौर पर । उसकी वजह भी है कि सरदार पटेल की तरह राजा महेंद्र प्रताप के साथ भी कांग्रेस सरकार के इतिहासकारों ने नाइंसाफी की, इस इंटरनेशनल क्रांतिकारी का कद कई मायनों में गांधी और बोस के करीब है, ये वो व्यक्ति है जिसने देश के भावी पीएम को चुनावों में धूल चटा दी, ये वो क्रांतिकारी है जिसने 28 साल पहले वो काम कर दिया, जो नेताजी बोस ने 1943 में आकर किया। ये वो व्यक्ति है, जिसे गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया और उन दोनों ही साल नोबेल पुरस्कार का ऐलान नहीं हुआ और पुरस्कार राशि स्पेशल फंड में बांट दी गई।
राजा महेंद्र प्रताप का सही से आकलन इतिहासकारों ने किया होता तो आज राजा को ही नहीं दुनिया हाथरस जिले को और उनकी रियासत मुरसान को भी उसी तरह से जानती, जैसे बाकी महापुरुषों के शहरों को जाना जाता है। आखिर कोई तो बात थी राजा में कि पीएम मोदी ने उदघाटन तो काबुल की संसद में अटल ब्लॉक का किया और तारीफ राजा महेंद्र प्रताप की की, वो भी तब जब राजा खुद को माक्र्सवादी कहते थे, यानी वामपंथी जो आरएसएस के सबसे बड़े विरोधी माने जाते हैं, लेनिन ने उनके क्रांतिकारों विचारों से प्रभावित होकर उन्हें रूस मिलने बुलाया था और राजा को अपनी जो किताब उपहार में दी, उसे वो पहले ही पढ़ चुके थे, टॉलस्टॉयवाद।
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