पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों में स्पष्ट हो चुका है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में अपनी सरकारें बचाने में कामयाब रही है, बल्कि उसने अपने प्रभावी एवं चमत्कारी प्रदर्शन से जनता का दिल जीता है। लेकिन कांग्रेस पार्टी तो पांचों राज्यों में ही जर्जर एवं निस्तेज हुई है, बल्कि पंजाब में अपनी सरकार को बचाने में नाकाम रही है, आम आदमी पार्टी जैसे प्रांतीय दल ने उसे करारी मात दी है। वहां आप की आंधी चली है लेकिन कांग्रेस की उम्मीद का एकमात्र यह सहारा भी टूट गया। आप दिल्ली से निकलकर पहली बार पंजाब प्रांत में सरकार बनाएगी। इस लिहाज से पांच राज्यों में हुआ चुनाव आप के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ। भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की दशकों से चली आ रही परंपरा तोड़ दी है। इन दोनों राज्यों में पिछले कई दशकों से किसी भी पार्टी की सरकार को दोबारा सत्ता में आना नसीब नहीं हो रहा था लेकिन भाजपा ने इस बार यह मिथक तोड़ दिया है। भाजपा की सफलता को इसलिए भी बड़ा माना जा रहा है क्योंकि उसने बाकी के दो राज्यों- गोवा और मणिपुर में भी अपनी सरकार बचा ली है। भाजपा एक लहर बन चुकी है और इस लहर ने पूरे मुल्क के स्वाभिमान को एक नई ऊंचाई दी है।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड-इन दोनों प्रांतों के विधानसभा चुनावों में इस बार स्थानीय मुद्दे- राष्ट्रीयता, सुशासन, सुरक्षा एवं विकास अधिक प्रभावी रहे हैं, शायद इन्हीं मुद्दों के बल पर भाजपा पिछले आठ सालों से विजय रथ पर सवार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लोगों का भरोसा कायम है। इसलिए जिन राज्यों से भाजपा की सरकारें रही हैं, वहां माना जाता रहा है कि यह भरोसा और एकमात्र मोदी का चमत्कारी व्यक्तित्व ही विजय का माध्यम बना है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के सरकार के तौर-तरीकों पर आम जनता का विश्वास ही इस ऐतिहासिक जीत का कारण बना है। किसान आंदोलन पर नकारात्मक राजनीति, महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना प्रकोप के प्रबंधन जैसे तमाम मुद्दे थे जिस पर जनता ने योगी सरकार की नीतियों एवं साफ-सुथरी छवि पर मुहर लगायी है। कानून व्यवस्था, अपराधियों पर अंकुश और केंद्र की योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन से जनता को साफ संदेश मिला कि उत्तर प्रदेश में विकास, सुशासन, सुरक्षा एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिये योगी ही सबसे उपयुक्त है। कुछ बड़े ओबीसी नेताओं के भाजपा से सपा में जाने का फैक्टर भी कोई असर नहीं डाल सका। भले ही पिछली बार से भाजपा की सीटें कम आ रही हों पर ऐसे समय में जब किसानों, ब्राह्मणों के नाराज होने और मुसलमानों के सपा के साथ जाने की बातें हो रही थीं, उस पर यह नतीजे अपने आप में ऐतिहासिक हैं।
कुल मिलाकर चार प्रांतों में भाजपा की जीत से तो पार्टी के हौसले स्वाभाविक रूप से बढ़े। इसके अलावा मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कमजोर होती दिखी, कमजोर ही क्या उसका तो लगभग सफाया ही होता जा रहा है। कांग्रेस के निष्प्रभावी केन्द्रीय नेतृत्व के कारण कांग्रेस के कई कद्दावर नेता अलग हो गए। उससे भी भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है। इस बार कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी कमजोर पार्टी बनकर उभरी है। उसने पंजाब की सत्ता तो गंवा ही दी, उत्तर प्रदेश में बिल्कुल बेअसर दिखी है और उत्तराखंड में भी उम्मीद के उलट भाजपा को सत्ता से हटा सकने में कामयाब नहीं रही। उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर- इन पांच राज्यों की कुल 690 सीटों पर हुई मतगणना में कांग्रेस को 10 प्रतिशत सीटें भी हासिल नहीं हुई है।
भाजपा ने जनता की परेशानियों को दूर करने, सुशासन एवं विकास के नाम पर वोट मांगे, जिसमें वो सफल रही है। जबकि अन्य दलों की विडम्बना रही है कि उन्होंने सत्ता हासिल करने के लिये सभी तरह के दांवपेंच चले, लेकिन जनता की परेशानियों को दूर करने, जनभावनाओं एवं जनता के विश्वास को जीतने के लिये कोई दांवपेंच नहीं चला। जनाकांक्षाओं को किनारे किया गया और विस्मय है इस बात को लेकर कोई चिंतित भी नजर नहीं आया। उससे भी ज्यादा विस्मय यह देखने को मिला है कि वे दूसरांे पर सिद्धांतों से भटकने का आरोप लगाते रहे हैं, उन्हीं को गलत बताते रहे हैं और उन्हें जगाने का मुखौटा पहने हाथ जोड़कर सेवक बनने का अभिनय करते रहे हैं। मानो छलनी बता रही है कि सूप (छाज) में छेद ही छेद हैं। एक झूठ सभी आसानी से बोल देते हैं कि गलत कार्यों की पहल दूसरा (पक्ष) कर रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए स्वयं कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे और इस तैयारी में विचारधाराएं, आदर्श हाशिए पर जा चुके थे लेकिन आम मतदाता ने ऐसे दलों और उम्मीदवारों को वोट देने में सूझबूझ एवं समझदारी का परिचय दिया।
अखिलेश यादव एवं उनके दल समाजवादी पार्टी ने दागदार चरित्रों को बड़ी संख्या में उम्मीदवार बनाये, लेकिन जनता ने उनको हराकर एक सबक दिया है। ऐसे में ताजा नतीजे भाजपा की रणनीति एवं सिद्धान्तों पर खरे उतरें। चुनाव परिणामों का संबंध चुनावों के पीछे अदृश्य ”लोकजीवन“ से, उनकी समस्याओं से होता है। संस्कृति, परम्पराएं, विरासत, व्यक्ति, विचार, लोकाचरण से लोक जीवन बनता है और लोकजीवन अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से ही लोकतंत्र स्थापित करता है, जहां लोक का शासन, लोक द्वारा, लोक के लिए शुद्ध तंत्र का स्वरूप बनता है। जब-जब चुनावों में लोक को नजरअंदाज किया गया, चुनाव परिणाम उलट होते देखे गये हैं। पांच राज्यों के इन चुनाव परिणामों से विभिन्न राजनीतिक दलों को सबक लेने की अपेक्षा है।
अब भारत का मतदाता, परिपक्व हो चुका है, उसे जाति, धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर गुमराह नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र जिस रूप में सशक्त हो रही है, उसी के अनुरूप राजनीतिक चरित्र को गढ़ना होगा, उसके प्रति भी राजनीतिक दलों को एहसास कराना होगा, जहां से राष्ट्रहित, ईमानदारी और नए मनुष्य की रचना, खबरदार भरी गुहार सुनाई दे। अगर ये एहसास नहीं जागा तो मतदाता दिखाएगा उनको शीशा, वही छीनेगा उनके हाथ से दियासलाई और वही उतारेगा उनका सत्ता का मद। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि देश की सियासी फिजां को बदलने में राजनीतिक दलों को अधिक ईमानदार एवं पारदर्शी होना होगा। भाजपा की तुलना में अन्य दलों पर दाग ज्यादा और लम्बे समय तक रहे हैं। इन दलों को न केवल अपने बेदाग होने के पुख्ता प्रमाण देना होगा, बल्कि जनता के दर्द-परेशानियों को कम करने का रोड मेप तैयार करना होगा, तभी वे जीत के हकदार बन सकेगे, केवल झूठे आश्वासनों से मतदाता को गुमराह करने के दिन अब लद गये है। सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि विभिन्न राजनीतिक दल अपने को, समय को अपने भारत को, अपने पैरों के नीचे की जमीन को पहचानने वाला साबित नहीं कर पाये हैं। जिन्दा कौमें पांच वर्ष तक इन्तजार नहीं करतीं, उसनेे चौदह गुना इंतजार कर लिया है। यह विरोधाभास नहीं, दुर्भाग्य है, या सहिष्णुता कहें? जिसकी भी एक सीमा होती है, जो पानी की तरह गर्म होती-होती 50 डिग्री सेल्सियस पर भाप की शक्ति बन जाती है। देश को बांटने एवं तोड़ने वाले मुद्दे कब तक भाप बनते रहेेगे? भाजपा को चुनौती देनी है तो विपक्षी दलों को अपना चरित्र एवं साख दोनों को नये रूप में एवं सशक्त रूप में प्रस्तुति देनी होगी। अन्यथा इन पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने जिस तरह के नतीजे दिये हैं, उसी तरह के नतीते भाजपा को मजबूती देते रहेंगे एवं कांग्रेस सहित अन्य दलों को कमजोर बनाते रहेंगे।
भारत मंे जितने भी राजनैतिक दल हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हैं पर सत्ता प्राप्ति की होड़ में सभी एक ही संस्कृति को अपना लेते हैं। मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करने लगते हैं। चुनावों की प्रक्रिया को राजनैतिक दलों ने अपने स्तर पर भी कीचड़ भरा कर दिया है। प्रत्याशी की आधी शक्ति तो पार्टी से टिकट प्राप्त करने में ही लग जाती है, चौथाई शक्ति साधन जुटाने में और चौथाई शक्ति झूठे हाथ जोड़ने में, झूठे दांत दिखाने में व शराब पिलाने में लग जाती है। ऐसे प्रत्याशी लोक कल्याण की सोचेंगे या स्वकल्याण की? बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को नैतिकता के पानी और अनुशासन की ऑक्सीजन चाहिए। जीत किसी भी दल को मिले, लेकिन लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलनी ही चाहिए।
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