Lok Shakti

Nationalism Always Empower People

डिजिटल चुनाव की अच्छाइयों पर सहमति बने

18 19

– ललित गर्ग –

आखिरकार चुनाव आयोग ने पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब व मणिपुर के विधानसभा चुनावों की तिथियां कोरोना की तीसरी लहर के बढ़ते संक्रमण के बावजूद घोषित कर साहस का परिचय दिया। इन राज्यों में मतदान 10 फरवरी से शुरू होकर 7 मार्च तक सात चरणों में पूरा होगा और परिणाम 10 मार्च को घोषित किये जायेंगे परन्तु ये चुनाव कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर के शुरू होने के समय घोषित हुए हैं अतः चुनाव आयोग ने इससे मुकाबला करने के उपायों को लागू करने की घोषणा भी की है और साथ ही चुनावों को अधिकाधिक पारदर्शी, लोकतांत्रिक व आदर्श मतदानमूलक बनाने का प्रयास भी किया है। चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों की अनुपालना के लिये राजनीतिक दलों को तैयार रहना चाहिए। संभवतः परम्परागत चुनाव प्रक्रियाओं एवं चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों को रोक लगायी जा सकती है। बढ़ते कोरोना संक्रमण को देखते हुए इस तरह की स्थितियों को कड़ाई से लागू करने में किसी तरह का संकोच भी नहीं किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों को ऐसी सोच एवं सकारात्मकता के लिये स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए कि तय तिथियों के बाद भी डिजिटल चुनाव प्रचार पर ही निर्भर रहना पडे़। मजबूरी एवं विवशता में ही सही, यदि डिजिटल चुनाव की संस्कृति विकसित होती है तो यह उचित ही होगा एवं इससे भविष्य की चुनावी प्रक्रियाओं को कम खर्चीला बनाने की दिशा में कदम उठाने में सहायता मिलेगी। इससे न केवल दलों और मतदाताओं के समय एवं संसाधन की बचत होगी, बल्कि प्रशासन को तमाम प्रबंध करने से मुक्ति मिलेगी। तेजी से संक्रमण फैलाने वाले ओमीक्रोन वेरिएंट और कोविड संक्रमण की तीसरी लहर के उभार का जो खतरा हमें दिख रहा है, उसमें राजनेताओं और राजनीतिक दलों की चुनाव आयोग की जारी डिजिटल चुनाव प्रक्रियाओं पर सावधानी भरी सहमति यकीनन स्वागत योग्य है।
फिलहाल आयोग ने चुनाव कार्यक्रम घोषित करते ही किसी भी राजनीतिक पार्टी द्वारा रैलियां अथवा पदयात्राएं 15 जनवरी, 2022 तक आयोजित करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है और डिजिटल माध्यमों जैसे इंटरनेट जैसे मोबाइल फोन आदि से चुनाव प्रचार करने पर जोर दिया है। इसमें थोड़ी समस्याएं आ सकती है, क्योंकि डिजिटल चुनाव प्रचार की कुछ सीमाएं है, भारत में अशिक्षा एवं कम तकनीकी विकास के कारण मतदाता तक प्रभावी तरीके से बात पहुंचाने में यह तरीका विदेशों की तुलना में कम सक्षम हो सकता है, बावजूद इसके इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इससे पहले कोरोना महामारी की पूर्व लहरों में पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडू आदि में राजनीतिक दल डिजिटल चुनाव प्रचार कर चुके हैं।
कोविड संक्रमण को देखते हुए मतदान का समय भी बढ़ाया जा सकता है। चुनाव आयोग ने बड़ी सूझबूझ एवं दूरगामी दृष्टिकोण से इन पांच राज्यों के चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से सम्पन्न कराने का प्रभावी परिवेश निर्मित किया है। उसके ये सब कदम निश्चित रूप से मतदाताओं को सशक्त बनाने के साथ ही साथ चुनाव प्रणाली को नये परिवेश में कारगर बनाने के प्रयास कहे जायेंगे जिससे हमारा लोकतन्त्र और अधिक शक्तिशाली एवं सक्षम होगा। चूंकि भारत के संविधान में चुनाव आयोग हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का चौथा ऐसा मजबूत पाया है जो समूचे तन्त्र की आधारशिला तैयार करता है और सुनिश्चित करता है कि केवल जनता की इच्छा ही सर्वाेपरि हो अतः इसकी जिम्मेदारी भी बहुत बड़ी है। भारत की चुनाव प्रणाली की विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने की जरूरत लगातार महसूस होती रही है, अब समय आ गया है कि एक ऐसी चुनाव प्रणाली बने, जो कम खर्चीली होने के साथ कम समय, कम संसाधनों में बिना किसी धांधली के निष्पक्ष, पारदर्शी एवं निर्विघ्न सम्पन्न हो।
आयोग ने सोशल मीडिया को गलत चुनावी प्रचार करने से रोकने के लिए भी बहुत सख्त नियम बनाये हैं परन्तु इनका कार्यान्वयन निश्चित रूप से किसी चुनौती से कम नहीं है क्योंकि पूर्व के चुनावों में हमने इन नियमों का खुला उल्लंघन होते हुए देखा है। प्रश्न है कि कोरोना संक्रमण की संभावनाएं पहले से दिख रही थी, तो क्यो डिजिटल चुनाव प्रचार के प्रशिक्षण एवं प्रयोग की पहले से भूमिका बनायी गयी? रैलियों, जनसभाओं व पदयात्राओं आदि पर प्रतिबन्ध लगा कर राजनीतिक दलों को उपलब्ध सूचना तकनीक से ज्यादा से ज्यादा जोड़ने के उपाय नहीं किये जाने चाहिए थे?  राजनीतिक दल जिस तरह के पारंपरिक चुनाव प्रचार के आदी हो हैं उसमें इतना खर्चा आता है जो आम आदमी की समझ से परे है। हमारी चुनाव प्रणाली में धन का बढ़ता प्रभाव एक गंभीर समस्या बन चुकी है और इसकी वजह से चुनाव एक नये तरीके के कारोबारी राजनीतिक संस्कृति को पनपाने का निमित्त बन रहे हैं, जो चिन्तातनक स्थिति है। न केवल चुनाव में धनबल बल्कि बाहुबल का भी उपयोग बढ़ना एक गंभीर समस्या है। इन समस्याओं के समाधान की दृष्टि से डिजिटल चुनाव प्रचार एक प्रभावी प्रक्रिया हो सकती है। इस मोर्चे पर आयोग ने जो महत्वपूर्ण बदलाव किया है जिससे समूचे राजनीतिक तन्त्र को पाक-साफ करने में भी मदद मिलेगी। वास्तव में चुनाव लोकतन्त्र का पर्व होता है और इसमें मतदाताओं की अधिकाधिक मतदान के लिये भागीदारी होनी चाहिए परन्तु पिछले चार दशकों से कुछ ऐसे नियम बने जिनकी वजह से मतदाताओं की इस चुनावी-उत्सव में भागीदारी को हाशिये पर धकेला गया। वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त का यह फैसला न केवल मनोवैज्ञानिक तौर पर मतदाताओं में राजनीतिक शिक्षा को बढ़ावा देने में भी सहायक होगा, बल्कि इससे नवीन चुनाव प्रक्रियाओं का अभ्युदय भी होगा।
इसलिए यही सही समय है, जब चुनाव आयोग और राजनीतिक दल मिलकर इस बारे में सोचें कि भीड़ जुटाए बिना चुनाव कैसे कराए जाएं? यह इसलिए जरूरी है कि चुनाव आयोग चाहे जितनी ही कड़ी गाइडलाइन बना ले, तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पालन करा पाना संभव नहीं होगा। तरह-तरह के विवाद उठेंगे, राजनीतिक दलों की भिन्न सोच एवं विवाद का गुबार उठेगा। कुछ मामलों में तो चुनाव आयोग की साख को भी विवादों में घसीटा जा सकता है। गाइडलाइन के उल्लंघन का संकट केवल हमारा ही नहीं है, बल्कि दुनिया का शायद ही कोई देश हो, जहां कोविड प्रोटोकॉल के बड़े उल्लंघन के बिना चुनाव हो गए हों। भले ही कुछ देशों नेे चुनावी सभाओं, रैलियों और भीड़ जुटाने पर पूरी तरह रोक लगा कर अपने देशों में निर्विघ्न चुनाव कराये हैं और दुनिया के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है।
लेकिन हमारे देश की विडम्बना है कि हम ऐसे कदम तब उठाते जब कोई हादसा हो जाता है। कांग्रेस के मैराथन में जब हजारों लड़कियां बिना मास्क के शामिल हो रही थीं, तब किसी ने क्यों नहीं सोचा कि कोविड के इस दौर में इतनी भीड़ जुटाई जानी चाहिए थी या नहीं? और कुछ नहीं, तो कम से कम मास्क की पाबंदी तो लगाई होती? फिर कांग्रेस ही क्यों, राजनीति को नई दिशा देने के दावों के साथ आए अरविंद केजरीवाल खुद बिना मास्क अपनी चुनावी पदयात्राओं में भारी भीड़ के बीच घूम रहे थे और कोविड की चपेट में आ गए। सिर्फ केजरीवाल ही क्यों, भीड़ भरे कई कार्यक्रमों में बिना मास्क के शामिल होने पर अनेक नेता आलोचना का निशाना बन चुके हैं। बात किसी नेता या राजनीतिक दल की नहीं है, बात उस चेतना को जगाने की है जो अपने राजनीतिक स्वार्थों से ज्यादा जरूरी जन-रक्षा एवं जनता के हितों को माने।
वक्त के अनुसार बदलाव करना समझदारी होती है। जब डिजिटल तकनीक जीवन के हर क्षेत्र प्रवेश कर चुकी है, तमाम तरह के बदलाव ला रही है तो फिर चुनाव प्रचार की शैली को बदलने में आग्रह एवं पूर्वाग्रह क्यों? जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें सबसे अधिक आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश होने से वहां चुनावी सरगर्मियां सबसे उग्र है, इसलिये भी, क्योंकि केन्द्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर जाता है।  इसलिये इसी प्रांत में चुनाव आयोग को सर्वाधिक ध्यान देना होगा, चार अन्य प्रांतों के साथ उत्तर प्रदेश में भी कोरोना महामारी की तीसरी लहर इन चुनाव के कारण अधिक फैलने का कारण न बने, यह सुनिश्चित करना सबसे ज्यादा जरूरी है। साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन न हो पाये, किसी तरह की धांधली न हो, अपराधी तत्व इन चुनावों में हावी न हो, चुनाव पारदर्शी एवं निष्पक्ष हो, यह सब तय करना चुनाव आयोग की सबसे बड़ी चुनौती है। उसे दुष्प्रचार करने वाले आपराधिक एवं अराजक तत्वों से भी सावधान रहना होगा, क्योंकि डिजिटल संसार में ऐसे तत्व भी बहुतायत में एवं प्रभावी भूमिका में सक्रिय है।