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दलबदल की राजनीति लोकतंत्र पर कलंक

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 ललित गर्ग-

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, वैसे दल और निष्ठा बदलने का खेल तेज हो गया है। सत्ता का मोह, सत्ता भोगने का लालच, जितने वाले दलों के प्रति आकर्षण, मंत्री पद मिलने के लुभावने वादे- ऐसे कारण हैं जो दलबदल के बाजार को गर्म करते हैं। चुनाव में जिस राजनीतिक दल का पलड़ा भारी दिखता है, उसमें घुसने की होड़ कुछ अधिक देखी जाती है। इनदिनों उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सुदृढ़ होती स्थिति को देख विभिन्न दलों से नेताओं ने उसका हाथ थामा है तो अनेक भाजपा की ओर दौड़ रहे हैं। पिछले आम चुनाव में भी यही हुआ था, जब भाजपा का पलड़ा भारी दिखने लगा और कांग्रेस की नैया डूबती जान पड़ने लगी तो कांग्रेस से पलायन कर नेताओं में भाजपा से जुड़ने की होड़ देखी गई थी। उसके बाद के तमाम विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही पालाबदल देखा गया। ऐसा लगता है देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाये रखना राजनीतिक दलों एवं नेताओं का लक्ष्य नहीं है।
विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में दलबदल का सिलसिला कायम हो जाने पर हैरान होने वाली कोई बात नहीं, यह चुनावी मौसम का बुखार है जो चुनावों के दौरान हर दल के नेताओं को चढ़ता ही है, यह तय है कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से लेकर गोवा, मणिपुर और पंजाब तक में यह सिलसिला और तेज होगा। दलबदल की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं, यह लोकतंत्र को कमजोर एवं अस्वस्थ करने वाली एक महाबीमारी है। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि राजनीतिक दल अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिये खुद इसे बढ़ावा देते हैं। कई बार तो वे दूसरे दलों के नेताओं को अपने दल में इसलिए भी लाते हैं, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि उनके पक्ष में हवा चल रही है। यह बात और है कि इसके आधार पर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कौन दल बढ़त हासिल करने जा रहा है, क्योंकि अक्सर नेता अपना टिकट कटने के अंदेशे में पाला बदलते हैं। विचारधारा उनके लिए कपड़े की तरह होती है। लोकतंत्र में सत्ता पाने का प्रयत्न एकान्ततः बुरा नहीं है पर लोकतांत्रिक मर्यादा, नैतिकता एवं सिद्धांतवादिता को दूर रखकर सत्ता पाने का प्रयत्न लोकतंत्र का कलंक है। आज की दूषित राजनीति में राष्ट्रहित एवं जनहित की महत्वाकांक्षा व्यक्तिहित एवं पार्टीहित के दबाव के नीचे बैठती एवं दबती जा रही है। सत्ता के स्थान पर स्वार्थ आसीन हो रहा है।
स्वार्थी एवं सत्तालोलुप नेताओं से न केवल राजनीति बल्कि लोकतंत्र भी कमजोर हो रहा है। ऐसे बहुत से नेता न केवल आसानी से दल बदल लेते हैं, बल्कि उसके लिए सुविधाजनक तर्क भी गढ़ लेते हैं। बतौर उदाहरण उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने दलितों, पिछड़ों, बेरोजगार नौजवानों आदि की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए भाजपा छोड़ दी। वह तत्काल प्रभाव से समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। मौर्य बसपा से भाजपा में आए थे। करीब पांच साल तक मंत्री रहने के बाद अचानक उन्हें टिकट कटने की संभावनाएं नजर आने लगी थी, इसमें संदेह नहीं कि ऐसे कई विधायक और मंत्री हैं, जिन्हें इस बार भाजपा अपना उम्मीदवार नहीं बनाने वाली। अगले कुछ दिनों में मौर्य जैसे नेता अन्य दलों में दिखें तो हैरानी नहीं।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले दलबदल करने वाले मौर्य ही अकेले नेता नहीं है, सिरसागंज विधानसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक हरिओम यादव और बेहट सीट से कांग्रेस के विधायक नरेश सैनी ने भी बुधवार को दल बदला है। उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। हरिओम यादव को सपा के संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का बेहद करीबी माना जाता है। उन्हें पिछले साल फरवरी में पार्टी विरोधी गतिविधियों के वजह से छह साल के लिए सपा से निष्कासित कर दिया गया था। लखनऊ राजधानी स्थित भाजपा मुख्यालय में उत्तर प्रदेश के दोनों उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा के साथ ही राज्य इकाई के अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह की मौजूदगी में हरिओम यादव एवं नरेश सैनी ने भाजपा का दामन थामा। आगरा जिले की एत्मादपुर विधानसभा सीट से सपा के पूर्व विधायक धर्मपाल यादव ने भी भाजपा का दामन थाम लिया।
बात केवल भाजपा में शामिल होेने की ही नहीं है, चुनाव की घोषणा से पहले हुई चुनावी रैलियों के मद्देनजर ऐसे आकलन किये गये कि समाजवादी पार्टी की स्थिति मजबूत है। विशेषज्ञों का आकलन है कि सपा सरकार भी बना सकती है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस के असंतुष्ट नेता सपा से हाथ मिलाते देखे जा रहे हैं। इस तरह के दल बदल से प्रदेश के चुनावी गणित में बड़ा उलट-फेर होने की संभावना जताई जा रही है। इनसे पहले ओमप्रकाश राजभर आदि कई नेता, जो पहले भाजपा के साथ थे, अब सपा से जा मिले हैं। अभी और कई नेताओं के सपा में आने के कयास लगाए जा रहे हैं। इस तरह चुनाव के वक्त नेताओं के पालाबदल से स्पष्ट हो गया है कि राजनीति में सिद्धांतों एवं मूल्यों का कोई मतलब नहीं रह गया है। नेता किसी भी तरह इस या उस दल से सत्ता में बने रहना चाहते हैं। इससे राजनीतिक दलों का मकसद भी साफ है कि उनके लिए अपने कर्मठ और प्रतिबद्ध नेताओं के बजाय उन नेताओं की अहमियत ज्यादा है, जो उन्हें सरकार बनाने में सहायक साबित हो सकते हैं।
दल बदल पूराना नासूर है। वर्ष 1977 और 1989 के दौर में सबसे ज्यादा दलबदल हुआ है। जरा याद करिये 1977 में जहां पूर्व कांग्रेसी मोरारजी देसाई केन्द्र में पहले गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया बने, वहीं बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर और देवगौड़ा ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। इसके विपरीत कुछ नेताओं ने देश में हमेशा एक धारा की राजनीति की जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा सकता हैं। वैसे लोकतंत्र मे हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का हक भी रखता है। लेकिन दल-बदल की समस्या के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जिन्हें कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। दरअसल राजनीतिक ख्वाबों के पीछे भागने की अद्भुत दौड़ है इसीलिये आस्था एवं सिद्धान्तों को बदलने का यह खेल सिर्फ व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजनीतिक दल भी इस खेल में लगातार शामिल होते रहे हैं। खासकर जबसे गठबंधन सरकार का दौर चला है तो छोटे और क्षेत्रीय दलों की चांदी हो गई हैं।
मगर इस तरह दल बदल कर जीतने वाली पार्टी से गठजोड़ कर फिर सत्ता में पहुंचने के प्रयास आखिरकार मतदाता को ही छलते हैं। दूसरे दलों से आए नेताओं को तरजीह देकर चुनाव जीतने का गणित हल करने वाली पार्टियां आखिरकार अपने सैकड़ों कर्मठ, जीवनदानी और प्रतिबद्ध नेताओं की मेहनत पर भी पानी फेर देती हैं, जिन्होंने वर्षों उसका जनाधार बनाने के लिए संघर्ष किया होता है? इसे किसी भी रूप में लोकतांत्रिक तरीका नहीं कहा जा सकता। आज के दौर मे राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए अपनी पार्टी की विचारधारा या राजनीतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा अब मजाक की चीज बनकर रह गई है। तात्कालिक राजनीतिक लाभ ही सबसे बड़ा राजनीतिक मूल्य हो गया है। गत चुनाव में बिहार में जैसे ही लगने लगा कि नीतीश कुमार सरकार की वापसी नहीं होगी और राजद की स्थिति मजबूत है, तो सत्तादल के कई नेता टूट कर राजद में जा मिले थे। ऐसी ही भगदड़ बंगाल विधानसभा चुनाव में भी देखी गई। तब भाजपा की स्थिति मजबूत नजर आ रही थी, इसलिए तृणमूल के कई नेताओं ने पार्टी छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। हालांकि नतीजे कयासों के विपरीत आए। वही स्थिति अब उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही है। कांग्रेस और भाजपा छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले नेता जैसे कतार लगा कर खड़े हो गए हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों मे आजकल दलबदल राजनीति मे मजहबी और जातिगत तड़का लगाने के लिये भी होता है। दलबदलुओं का स्वागत टिकटों के तोहफे के साथ होने से ऐसे आसार हैं कि आने वाले महीनों में दल-बदल की तस्वीर उत्तर प्रदेश में और रंगीन होगी। लेकिन यह दलबदल राजनीतिकक सिद्धान्तों एवं मूल्यों का बड़ा मजाक है।