संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत जिस रंजिश भरे माहौल में हुई है उसे लोकतन्त्र के लिए किसी भी दृष्टि से शुभ एवं श्रेयष्कर नहीं कहा जा सकता। संसद के पिछले मानसून सत्र में राज्यसभा में अशोभनीय आचरण, हिंसा एवं अशालीनता करने के आरोप में 12 सांसदों का निलंबन लोकतंत्र की लगातार गिरती साख को बचाने की दिशा में एक सार्थक एवं सराहनीय कदम है। विपक्षी दल जिस तरह से इस निलंबन का बचाव कर रहे हैं, उससे वे न केवल अपना नुकसान कर रहे हैं बल्कि लोकतंत्र को भी कमजोर बना रहे हैं। विपक्षी दल निलंबित सांसदों के बचाव में जैसी खोखली दलीलें दे रहे हैं, जिन भ्रामकता से गलत को सही ठहराने का प्रयास कर रहे हैं, उससे वे अभद्रता की पैरवी करते हुए भी दिखने लगे हैं। इस प्रकरण ने यह सवाल खड़ा भी किया है कि देश को अनुशासित करने एवं नियमों में बांधने वाली संसद में अनुशासनहीनता, हिंसा एवं अराजकता पर होने वाली कार्रवाही इतनी कड़वी क्यों लगती है? जो संसद देश चलाने के लिए नियम-कायदे बनाने की जगह है, वह लगातार बाधित क्यों चल रही है?
गौरतलब है कि राज्यसभा ने एक नोटिस के जरिए सूचित किया कि मानसून सत्र के आखिरी दिन कई दलों से बारह सांसदों ने न केवल हंगामा किया, बल्कि सुरक्षाकर्मियों के खिलाफ जानबूझ कर हिंसा करने की कोशिश की। राज्यसभा में सभापति के आसन के सामने की मेजों पर चढ़कर जो हुड़दंग भी किया गया। इसके बाद इस सत्र में नियम 256 के मुताबिक संबंधित सांसदों के खिलाफ यह कार्रवाई की गई। संसद में होने वाली बहसें लोकतंत्र का आधार होती हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से लगातार लोकसभा और राज्यसभा में जिस तरह की बाधाएं खड़ी हो रही हैं और सदन का कामकाज सहज तरीके से संचालित नहीं हो पा रहा, उससे केवल संसद की मर्यादा और उपयोगिता के सामने चुनौती नहीं खड़ी हो रही है, बल्कि इसका दूरगामी असर लोकतांत्रिक परंपराओं के कमजोर होने के रूप में सामने आ रहा है।
वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र एक जीवित तंत्र है, जिसमें सबको समान रूप से अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार मर्यादा में, शालीनता एवं शिष्टता से चलने की पूरी स्वतंत्रता होती है, लेकिन सत्ता एवं राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोगों द्वारा लोकतंत्र के आदर्शों को भूला दिया जाये तो लोकतंत्र कैसे जीवंत रह पायेगा? स्पष्ट तथ्य यह भी है कि मानसून सत्र में संसद की गरिमा को गिराने वाले इस आपत्तिजनक और अशोभनीय आचरण के प्रमाण उपलब्ध होने के बाद भी विपक्ष यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि निलंबित किए गए सांसदों की ओर से ऐसा किया जाना उनका अधिकार था। यह चोरी और सीनाजोरी के अलावा और कुछ नहीं। विपक्ष का यह सवाल भी थोथा, भोंथरा और देश की जनता को गुमराह करने वाला है कि पिछले सत्र के मामले को लेकर अब कार्रवाई क्यों की जा रही है? अभी के निलंबन को गलत बताने वाला विपक्ष इस सच को जानबूझकर छिपा रहा है कि जब राज्यसभा अभद्र आचरण का गवाह बनी, तब मानसून सत्र का आखिरी दिन था। क्या विपक्ष यह कहना चाहता है कि हुड़दंग मचाने वाले सांसदों को निलंबित करने के लिए कोई विशेष सत्र बुलाया जाता या फिर उसी को विस्तारित किया जाता? यह तय है कि अगर ऐसा कुछ किया जाता तो भी विपक्षी दल उसी तरह हंगामा कर रहे होते, जैसे अब कर रहे हैं।
राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में जो भी शीर्ष पर होते हैं वे आदर्शों को परिभाषित करते हैं तथा उस राह पर चलने के लिए उपदेश देते हैं। पर ऐसे व्यक्ति जब स्वयं कथनी-करनी की भिन्नता से लोकतांत्रिक मूल्यों के हाशिये से बाहर निकल आते हैं तब रोया जाए या हंसा जाए। जो ऊपर नहीं बैठ सका वह आज अपेक्षाकृत ज्यादा प्रामाणिक है कि वह सही को सही और गलत को गलत देखने की दृष्टि रखता है, समझ रखता है। लेकिन प्रश्न है कि लोकतंत्र के सिपहसलाहकार में लोकतंत्र की रक्षा की चेतना कैसे और कब जगेगी? 12 सांसदों के निलंबन पर प्रश्न खड़े करने वाला समूचा विपक्ष अब पूरे शीतकालीन सत्र के बहिष्कार की बात कर रहा है। अगर सरकार भी अपनी जिद पर अड़ी रहती है और सदन के बाधित रहने या एकपक्षीय तरीके से चलने के हालात बनते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि संसद के कामकाज में लोकतंत्र कितना बचा रहेगा! आखिर बार-बार संसद को बाधित करने वाले जन-प्रतिनिधि कैसे लोकतंत्र को जीवंत रख पायेंगे। जबकि सदन के कामकाज पर प्रतिदिन का खर्च काफी बैठता है और आखिर उसका बोझ आम जनता पर ही पड़ता है। मगर ज्यादा अहम यह है कि जहां हर मुद्दे और मसले पर संसद में सभी दलों के सांसदों और जनप्रतिनिधियों के बीच पर्याप्त विचार और बहस होनी चाहिए, वहां हंगामे, विवाद, अवरोध जैसी स्थितियांे का लगातार कायम होते जाना, गंभीर चिन्ता का विषय है। लोकतांत्रिक मूल्य राजनीतिक क्षेत्र में सिर का तिलक है और इनका हनन त्रासदी एवं विडम्बना का पर्याय होते जा रहे हैं।
राजनीतिक मकसद से विरोधियों या विपक्षियों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति हो या सत्ताधारी सरकारों के काम में विपक्ष द्वारा अनुचित एवं अलोकतांत्रिक तरीकों से अवरोध खडे़ करना- अब आम बात हो गयी है, हर तरफ संविधान की शपथ लेने वाली सरकारों को अनुच्छेदों का दुरुपयोग करते देखा जाता है तो विपक्षी दल सदन की कार्रवाही में अवरोध खड़े करते हैं, गाली-गलौचपूर्ण अशालीन प्रदर्शन करते हैं। कैसी विडम्बनापूर्ण स्थितियां बन रही है कि इन त्रासद घटनाओं का संज्ञान अदालतों को लेना पड़ रहा है या निलंबन जैसी कार्रवाई करने को बाध्य होना पड़ रहा है। जनमत का फलसफा यही है और जनमत का आदेश भी यही है कि चुने हुए प्रतिनिधि चाहे किसी भी दल के हो, लोकतंत्र की भावनाओं एवं मूल्यों को अधिमान दें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक सही अर्थों में लोकतंत्र का स्वरूप नहीं बनेगा तथा असंतोष किसी न किसी स्तर पर व्याप्त रहेगा। आज लोकतंत्र में बोलने की स्वतंत्रता का उपयोग गाली-गलौच एवं अतिश्योक्तिपूर्ण आरोप-प्रत्यारोप में हो रहा है, लिखने की स्वतंत्रता का उपयोग किसी के मर्मोद्घाटन, व्यक्तिगत छिंटाकशी एवं आरोपों की वर्षा से किया जा रहा है। चिन्तन एवं आचरण की स्वतंत्रता ने जनप्रतिनिधियों को अपने लोकतांत्रिक मूल्यों, अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं नैतिक मूल्यों से दूर धकेल दिया है। पीड़ा, दुःख एवं चिन्ता का दुश्चक्र तो यह है कि अधिकांश नेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को इस स्थिति का न तो भान है और न ही परवाह भी है।
लोकतंत्र के मन्दिर की पवित्रता एवं जीवंतता इसी में है कि जनता को साथ लेकर ऐसे चला जाए कि जनता का शासन जनता के लिये हो, जिसमें सत्ता में रहते न कानूनों के दुरुपयोग की जरूरत पड़े और न विपक्ष में रहते कानून तोड़ने की। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो लोकतांत्रिक मूल्यों का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। इससे लज्जाजनक और कुछ नहीं कि पहले विपक्षी सदस्य सदन में अशोभनीय हरकत करें और फिर उसे जायज ठहराने की कोशिश करें। यह संसद की गरिमा को गिराने वाला रवैया है। इसका विरोध होना चाहिए। अराजकता कहीं भी हो, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी ही चाहिए-वह चाहे संसद के भीतर हो या फिर बाहर। यह अच्छा हुआ कि राज्यसभा सभापति ने निलंबित सांसदों को बहाल करने की विपक्ष की बेजा मांग को खारिज कर दिया।
देश में लोकतंत्र कैसे मजबूत एवं संगठित होगा जब लोकतंत्र को संचालित करने एवं उसे जीवंतता देने का सामान्य व्यवहार भी नेताओं के पास नहीं है। शालीन ढंग से भी राजनीति हो सकती है और सभ्य-संवेदनशील तरीकों से सरकारें भी काम कर सकती हैं। संविधान में विरोध प्रदर्शन और उसकी सीमा स्पष्ट है। फिर क्यों लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संविधान का हनन जनप्रतिनिधियों द्वारा एक बार नहीं, बार-बार हो रहा है। ऐसी आवश्यकता है कि मंत्रियों, सांसदों, विधायकों सहित विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को लोकतंत्र का प्रशिक्षण मिले। अगर विचार, बहस और असहमति के लिए जरूरी जगह बनाई जाए, तो यह न सिर्फ सदन की लोकतांत्रिक गरिमा, बल्कि व्यापक जनता के हित में होगा।
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