बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों मायावती ने चुनावी साल में अपने दो दिग्गज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा कर यह साबित कर दिया है कि चुनाव आते-जाते रहते हैं लेकिन पार्टी में रहकर उनको कोई धोखा नहीं दे सकता है, जो धोखा देने या पीठ में छुरा भोंकने की सोचता भी हैं,उनको बहनजी सुधरने का मौका देने के बजाए ‘सजा’ सुनाती हैं।इसी के चलते बहनजी द्वारा बसपा विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व राष्ट्रीय महासचिव राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। दरअसल,सत्ता के गलियारों में यह चर्चा काफी समय से चल रही थी उक्त दोनों नेता समाजवादी पार्टी का दामन थामने वाले हैं। बस इन दोनों नेताओें का उचित समय का इंतजार था। यह नेता तब दलबदल कर सकते थे जब चुनाव की तारीखें करीब आ जातीं। इससे बसपा के खिलाफ फिजा बनती और समाजवादी पार्टी को फायदा होता। मायावती को इसकी भनक लग गई और उन्होनंे दोनों नेताओं के मंसूबे पूरे होते इससे पहले ही इनको बाहर का रास्ता दिखा दिया। इतना ही नहीं बहनजी ने आजगमढ़ के मुबारकपुर से विधायक शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को विधायक दल का नया नेता भी घोषित कर दिय लाल जी वर्मा और राजभर पिछड़ा समाज से आते थे और बहनजी ने ही इन दोनों के कंधो पर पिछड़ा समाज को बसपा के साथ जोड़ने की जिम्मेदारी डाल रखी थी।
बात बसपा विधायक दल के नेता बनाए गए शाह आलम की कि जाए तो आलम के जरिए मायावती ने मुस्लिमों में एक बार फिर से पैठ बनाने की कोशिश की है। बताते चलें कि 2017 के विधान सभा चुनाव मंे भी बसपा ने सबसे अधिक मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था।बसपा ने 99 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे,बाद में मुख्तार अंसारी ने भी बसपा का दामन थाम लिया था,इसके बदलें में उनके परिवार के तीन लोगों को टिकट दिया गया था। जबकि सपा-कांगे्रस गठबंधन ने 89 मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान मेें उतारा था। हो सकता है कि बहनजी ने 2017 के ही फार्मूले को आगे बढ़ाने के लिए शाह आलम को नया विधायक दल का नेता बनाया हो। हो सकता है कि लाल जी वर्मा के मुकाबले शाह आलम बसपा के लिए ज्यादा वोट बटोरने वाले नेता साबित हों। बसपा सुप्रीमों ने दोनों नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया तो पार्टी की तरफ से मीडिया को बताया गया कि राजभर और वर्मा को पंचायत चुनाव के दौरान पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के कारण तत्काल प्रभाव से निष्कासित किया गया है। समय का फेर ही है कि जो राजभर और वर्मा कभी बहन मायावती की आंख के तारे हुआ करते थे,वह अब उनकी आंख की किरकिरी बन गए थे। वर्मा अम्बेडकरनगर के कटेहरी और राजभर अकबरपुर से विधायक हैं।
राजनीति के जानकारों को लगता है कि दोनों नेताओं का निष्कासन लगातार कमजोर हो रही पार्टी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लहर के बावजूद दोनों सीट बचाने में कामयाब रहे थे। दोनों कांशीराम के जमाने से बसपा से जुड़े थे। राजभर 1993 में पहली बार बसपा के टिकट पर विधायक बने। तब से वह लगातार जीत रहे हैं। वर्मा 1986 में पहली बार एमएलसी बने। इसके बाद उन्होेंने 1991, 1996, 2002, 2007 और 2017 का विधानसभा चुनाव भी जीता था।मगर बसपा के शुभचिंतक का तर्क दूसरा ही है,वह इसके उलट कहते हैं कि अम्बेडकर नगर तो बीएसपी का बहुत पुराना गढ़ है।बहनजी स्वयं यहां से सांसद और विधायक रह चुकी थी। बहनजी के नाम पर ही यहां वोट पड़ता था, न कि लालजी वर्मा या राम अचल राजभर के बल पर बसपा को यहां जीत हासिल होती थी। बहनजी यहां से जिसको भी टिकट देतीे,उसकी जीत सुनिश्चित हो जाती है।
बात लाल जी वर्मा और राजभर के निष्कासन के कारणों की कि जाए तो बसपा की सियासत पर पैनी नजर रखने वाले कहते हैं कि पार्टी से बाहर किए किए गए लाल जी वर्मा पिछले पंचायत चुनाव में पत्नी शोभवती को जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी न दिला पाने से कुंठित थे। इस बार फिर वह पत्नी को जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने की मुहिम में लगे थे, लेकिन पार्टी द्वारा उनकी पत्नी को छोड़कर उनके करीबियों को टिकट ही नहीं दिया गया। लालजी इतना नाराज हुए कि उन्होंने ने केवल पत्नी का टिकट वापस कर किया था, बल्कि पूरे चुनाव प्रचार से भी दूरी बना ली थी। वहीं पार्टी से बाहर किए गए एक अन्य नेता राम अचल इस बात से नाराज जा थे कि उनके करीबी पूर्व ब्लाॅक प्रमुख शारदा राजभर को भी जिला पंचायत सदस्य का टिकट बीएसपी ने नहीं दिया। इससे नाराज वह पंचायत चुनाव के दौरान जिले से ही गायब हो गए। इस वजह से बसपा के गढ़ में ही 41 सीट में बसपा समर्थित केवल सात उम्मीदवार ही जीत सके। बाद में मायावती को पता चल गया कि दोनों नेताओं ने पार्टी प्रत्याशियों की बजाए समाजवादी पार्टी की मदद की थी। दोनों नेता सपा-भाजपा के भी संपर्क में थे। हालांकि लालजी वर्मा और राजभर खुद को निर्दोष बता रहे हैं। लालजी का कहना है कि पंचायत चुनाव में वह अस्वस्थ थे।
खुद बसपा प्रमुख ने उनसे बात की थी। खैर, दोनोें नेताओं की बात पर विश्वास कर भी लिया जाए तो इस हकीकत को तो नहीं झुठलाया जा सकता है कि पंचायत चुनाव में दोनों नेताओं के दबदबे वाले इलाकों में बसपा की जीत का रिकार्ड काफी खराब रहा,जबकि यह इलाका बसपा का गढ़ माना जाता है। वजह सिर्फ पंचायत चुनाव नहीं है। दोनों पिछले कुछ समय से समाजवादी पार्टी से करीबी बढ़ रही है। पिछले साल इनमें से एक नेता की मुलाकात सपा मुखिया अखिलेश यादव से भी हुई थी। इसके बाद उनके पार्टी छोड़ने के कयास लग रहे थे। बसपा की चुनावी गणित की बात कि जाए तो 2007 में जब बीएसपी पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई, तो उसके पास पीछे एक बड़ा कारण ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का नारा था। इस नारे के दो प्रमुख किरदार दलित-ब्राह्मण वोटरों का गठजोड़ था। 2012 में जब यह गठजोड़ कमजोर पड़ा तो मायावती चुनाव हार गई।समाजवादी पार्टी का यादव-मुस्लिम का फार्मूला हिट रहा। इसके अलावा मायावती की भ्रष्टाचारी वाली छवि ने भी उनकी पार्टी को काफी नुकसान पहुुंचाया था,लेकिन इसके बाद 2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा चुनाव में हिन्दुत्व की आंधी के सामने न समाजवादी पार्टी और न बसपा अपना वजूद बचा पाए।
कांगे्रस का तो यहां वैसे भी बुरा हाल था। वैसे कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बसपा से पिछड़ा वर्ग के नेताओं के मोहभंग होने से भी बसपा की हालत पतली हुई है। कहा जाता है कि 2012 के बाद पिछड़ी जाति के कई दिग्गज नेताओं ने या तो बसपा से किनारा कर लिया या फिर पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। यही वजह रही कि 2012 में सत्ता से बाहर हुई पार्टी 2014 के लोकसभा चुनावों में भी एक सीट नही जीत सकी और 2017 के विधान सभा चुनाव में भी उसका बहुत बुरा हाल रहा,लेकिन ऐसा सोचने वालों को नहीं भूलना चाहिए कि 2014 और 2017 के चुनाव हिन्दुत्व के नाम पर लड़े गए थे,जहां दलित,अगड़े-पिछड़े एकजुट होकर मोदी के पक्ष में खड़े हो गए थे। दोनों ही चुनाव में सपा-बसपा का वोट बैंक खिसक कर भाजपा में चला गया था। कुछ लोगोें को लगता है कि बसपा सुप्रीमों मायावती ने विधान सभा चुनाव से कुछ माह पूर्व पार्टी के दो दिग्गज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाकर बसपा की वोट बैंक की सियासत को नुकसान पहुंचाया है,लेकिन इन लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि बसपा सुप्रीमों पहले भी इस तरह के साहसिक फैसले लेती रहीं हैं।
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