प्रख्यात जैन आचार्य, मोहनखेड़ा तीर्थ विकास प्रेरक व ज्योतिषाचार्य ऋषभचंद्र सूरीश्वरजी का 2 जून, 2021 की मध्यरात्रि में इंदौर के मोहक अस्पताल में देवलोकगमन हो गया। 64 वर्षीय जैन संत कोविड संक्रमित थे और पिछले छह दिन से उनका मोहक अस्पताल में सघन इलाज चल रहा था। साइटो काइंड स्टार्म के कारण उनके फेफड़ों में 80 प्रतिशत तक संक्रमण हो चुका था। अस्पताल में आने के बाद उन्हें आइसीयू में बाइपेप पर रखा गया। एक दिन बाद ही उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया। इलाज के दौरान उन्हें एंटीबाडी, प्लाज्मा, रेमडेसिविर व टासलीजुबैम इंजेक्शन भी दिया गया। उन्हें डीआरडीओ द्वारा तैयार किया गया 2 डीजी पावडर और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डानल्ड ट्रम्प द्वारा उपयोग किया गया काकटेल इंजेक्शन भी दिया गया था। फिर भी वे बच नहीं सके। सचमुच! ज्योतिष सम्राट के नाम से चर्चित महान् तपोधनी, शांतमूर्ति, परोपकारी संत अपना कर्म करते-करते कृतकाम होे गया, कोरोना महामारी से हार गया। उनका देह से विदेह होना आध्यात्मिक जगत की अपूरणीय क्षति है, क्योंकि उन्होंने संसार की असारत का बोध बताया, संयम जीवन का सार समझाया एवं मानवता के उपवन को महकाया।
आचार्य श्री ऋषभचन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी 7, संवत 2014 दिनांक 4 जून 1957 को सियाना (राजस्थान) में हुआ। आपकी दीक्षा द्वितीय ज्येष्ठ सुदी 10, दिनांक 23 जून 1980, श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ (म.प्र.) में आचार्यदेवेश श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी ‘पथिक’ के करकमलों से हुई। आपने अपने गुरु से जैन दर्शन के साथ-साथ विशेषतः अध्ययन व्याकरण, न्याय, आगम, वास्तु, ज्योतिष, मंत्र विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्प आदि का गहन अध्ययन किया। आपने 40 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें अभिधान राजेन्द्र कोष (हिन्दी संस्करण) प्रथम भाग, अध्यात्म का समाधान (तत्वज्ञान), धर्मपुत्र (दादा गुरुदेव का जीवन वृत्त), पुण्यपुरुष, सफलता के सूत्र (प्रवचन), सुनयना, बोलती शिलाएं, कहानी किस्मत की, देवताओं के देश में, चुभन (उपन्यास), सोचकर जिओ, अध्यात्म नीति वचन (निबंध) आदि मुख्य हैं।
आचार्य ऋषभचंद्रविजयजी का जन्म और जीवन दोनों विशिष्ट अर्हताओं से जुड़ा दर्शन है जिसे जब भी पढ़ेंगे, सुनेंगे, कहेंगे, लिखेंगे और समझेंगे तब यह प्रशस्ति नहीं, प्रेरणा और पूजा का मुकाम बनेगा, क्योंकि ऋषभचंद्र विजय किसी व्यक्ति का नाम नहीं, पद नहीं, उपाधि नहीं, और अलंकरण भी नहीं। यह तो विनय और विवेक की समन्विति का आदर्श था। श्रद्धा और समर्पण की संस्कृति था। प्रज्ञा और पुरुषार्थ की प्रयोगशाला था। आशीष और अनुग्रह की फलश्रुति था। व्यक्तिगत निर्माण की रचनात्मक शैली था और अनुभूत सत्य की स्वस्थ प्रस्तुति था। यह वह सफर था, जिधर से भी गुजरता था उजाले बांटता हुआ आगे बढ़ता था। कहा जा सकता है कि निर्माण की प्रक्रिया में इकाई का अस्तित्व जन्म से ही इनके भीतर था, शून्य जुड़ते गए और संख्या की समृद्ध अक्षय बनती गई।
ऋषभचंद्र विजयजी का अतीत सृजनशील सफर का साक्षी बना। इसके हर पड़ाव पर शिशु-सी सहजता, युवा-सी तेजस्विता, प्रौढ़-सी विवेकशीलता और वृद्ध-सी अनुभवप्रवणता के पदचिन्ह हैं जो हमारे लिए सही दिशा में मील के पत्थर बनते हैं। आपका वर्तमान तेजस्विता और तपस्विता की ऊंची मीनार था जिसकी बुनियाद में जीए गए अनुभूत सत्यों का इतिहास संकलित है। जो साक्षी है सतत अध्यवसाय और पुरुषार्थ की कर्मचेतना का, परिणाम है तर्क और बुद्धि की समन्वयात्मक ज्ञान चेतना का और उदाहरण है निष्ठा तथा निष्काम भाव चेतना का। आपकी करुणा में सबसे साथ सह-अस्तित्व का भाव रहा। निष्पक्षता में सबके प्रति गहरा विश्वास रहा। न्याय प्रवणता में सूक्ष्म अन्वेषणा के साथ व्यक्ति की गलतियों के परिष्कार की मुख्य भूमिका थी। सापेक्ष चिंतन में अहं, आग्रह, विरोध और विवाद का अभाव है। विकास की यात्रा में सबके अभ्युदय की अभीप्सा थी। उनकी मूल प्रवृत्ति में रचनात्मकता और जुझारूपन दोनों था। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जूझते रहते थे- अपनों से भी, परायों से भी और कई बार खुद से भी। इस जुनून में अपने मान-अपमान की भी प्रवाह नहीं करते। सिद्धांतों को साकार रूप देने की रचनात्मक प्रवृत्ति के कारण मुनियों के लिए ज्यादा करणीय माने जाने कार्यों की अपेक्षा जीवदया, मानव सेवा व तीर्थ विकास में उनकी रूचि ज्यादा परिलक्षित होती थी। जीवदया व मानवसेवा के कई प्रकल्प उन्होंने चला रखे हैं। मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार के द्वारा वे न केवल जैन संस्कृति बल्कि भारतीय संस्कृति सुदृढ़ करते रहे हैं। वे गौरक्षा एवं गौसेवा के प्रेरक थे। गौशालाओं के साथ-साथ गौ-कल्याण के अनेक उपक्रम संचालित करते रहते थे।
संवेदना एवं संतुलित समाज रचना के संकल्प के चलते आपके मोहनखेड़ा तीर्थ पर गरीब एवं आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय भी संचालित कर रखा है। जहां सैकड़ों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं। वहां वे नेत्र, विकलांगता, नशामुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होठों, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि के विशिष्ट सेवा प्रकल्प आपके नेतृत्व में संचालित होते रहेे हैं। अपने गुरु के हॉस्पिटल, गौशाला एवं गुरुकुल आदि के सपनों को आकार देने में जुटे रहें। आपने पांच करोड़ की लागत से श्री महावीर पवित्र सरोवर को निर्मित कर जन आवश्यकता की पूर्ति की है। अलौकिक, अनुपम एवं विलक्षण जैन संस्कृति पार्क को निर्मित कर आपने अपनी मौलिक सोच का परिचय दिया है। जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण, तीर्थ यात्राएं निकालना, कार सेवा एवं तीर्थशुद्धि एवं स्वच्छता अभियान तीर्थों की स्थापना आदि अनेक अद्भुत एवं संस्कृति प्रभावना के कार्य आपने करवाएं है। आपमें निर्माण की वृत्ति भी थी व निर्माण की शक्ति भी। राजगढ़ का मानव सेवा हॉस्पिटल, मोहनखेड़ा का नेत्र चिकित्सालय, सहकारी सोसायटियां, अनेक मंदिर व गौशालाएं इसी वृत्ति व शक्ति का परिचायक है। वे कार्य के प्रति अपनी लगन को दूसरे में भी उतार देते थे और ये दूसरे ही पल उनकी शक्ति बन जाते थे।
आचार्य ऋषभचन्द्र विजयजी के उदार और व्यापक दृष्टिकोण का ही प्रभाव है कि आज किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से जुड़ा व्यक्ति, वह चाहे प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध उनके करीब आता, उनको पूरे चाव से पढ़ता और सुनता, उनके कार्यक्रमों में सहभागी बनता। उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इक्कीसवीं सदी के दो दशकों के क्षितिज पर पूरी तरह छाया हुआ था। उनके प्रकल्पों, विचारों व प्रवचनों में हमें कोरी आदर्शवादिता या सिद्धांतवादिता के दर्शन नहीं होते। उनमें हमें प्रयोग सिद्ध वैज्ञानिक स्वरूप उपलब्ध होता है। अपने ज्ञान गर्भित प्रवचनों व साहित्य के माध्यम से उन्होंने आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रांति का शंखनाद किया है। वे धर्म को रूढ़ि या परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं करते। धार्मिक आराधना-उपासना से व्यक्ति की जीवनशैली और वृत्तियों में बदलाव आए, उनके समग्र जीवनदर्शन का निचोड़ यही है। ऐसे महान् संत का असमय चला जाना, गहरी रिक्तता का आभास करा रहा है।
विश्व-क्षितिज पर हिंसा, युद्ध, विकृत राजनीति, कोरोना महामारी की काली छाया है। मानवीय चेतना का दम घुट रहा है। कारण चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, आतंकवाद हो या सांप्रदायिक ज्वालामुखी- ये और ऐसी ही अन्य दर्दनाक घटनाएं हिंसा एवं संकीर्णता की पराकाष्ठा है। आर्थिक असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। जन-मानस चाहता है, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान। अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत हो रहा था। ऐसी स्थिति में आचार्य श्री ऋषभ का अहिंसक जीवन और विविध मानवतावादी उपक्रम ही वस्तुतः मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर पड़े संत्रास के घावों पर मरहम का-सा चमत्कार करने की संभावनाओं को उजागर कर रहे थे, वे मनीषी एवं समाज-सुुधाकर आचार्य ऋषभचन्द्र विजयजी के बारे में सभी कह रहे हैं कि ऋषभचन्द्र विजयजी अब नहीं रहे, मगर धर्म कहता है कि आत्मा कभी नहीं मरती। इसलिये इस शाश्वत सत्य का विश्वास लिये हम सदियों जी लेंगे कि ऋषभचन्द्र विजयजी अभी यही हैं- हमारे पास, हमारे साथ, हमारी हर संास में, दिल की हर धड़कन में।
आचार्य श्री ऋषभचन्द्र विजयजी का व्यक्तित्व बुद्धिबल, आत्मबल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाग्बल का विलक्षण समवाय था। दृढ़-इच्छाशक्ति, आग्नेय संकल्प, पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा उन्होंने उपलब्धियों के अनेक शिखर स्थापित किए हैं, जो उन जैसे गरिमामय व्यक्तित्व ही कर सकते हैं। दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नेतृत्व में त्रिस्तुतिक श्रीसंघ एवं श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ ने विकास की अलंघ्य ऊंचाइयों का स्पर्श किया, उसके नाभि केंद्र मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी ही थे। वे भारत की अध्यात्म विद्या और संस्कार-संपदा को पुनरुज्जीवित कर उसे जन-मानस में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न करते हुए चिरनिद्रा में लीन हो गये। ऐसे युग प्रचेता, युग निर्माता, अध्यात्मनायक के महाप्रयाण पर हार्दिक श्रद्धांजलि।
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