दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अगले चन्द हफ्तों में होने जा रहे 5 राज्यों के चुनावों के साथ फिर से इलेक्शन मोड में आ गया है। सच कहें तो भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहाँ हर साल बल्कि हमेशा कहीं न कहीं और कोई न कोई चुनाव होते ही रहते हैं। इन पर होने वाले भारी, भरकम खर्च के लिहाज से भले ही लोगों की अलग-अलग राय हो लेकिन जनता के द्वारा जनता के हाथों, जनता की हर स्तर की सरकार बनाने की जो रीत अपने देश में है, सच में अनूठी है और दुनिया के कई दूसरे देशों के लिए आश्चर्य और विश्वास का विषय भी। कई मौकों पर तानाशाही के आरोपों के घिरी मजबूत और दंभी सरकारों को इसी लोकतंत्र ने न केवल गिराकर दिखाया बल्कि सक्षम या बहुमत के हाथों में सत्ता की कमान न पहुँच पाने के चलते जल्दी-जल्दी और जबरदस्त उलट-पलट का दौर भी देखा। शायद भारत ही इकलौता ऐसा लोकतांत्रिक गणतंत्र है जहाँ बहुमत, अल्पमत और मिली-जुली सरकारों के हाथों में भी सुरक्षित जनतंत्र के सच पर कभी आँच तक नहीं दिखी। सरकार के फैसलों को बदलने के लिए आन्दोलनों की जो रवायत भारत में है, शायद ऐसी कहीं न होगी। बस यही खूबी भारत को दुनिया से अलग करती है और लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करती है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों व स्थानीय क्षत्रपों की पैनी और कई बार दूषित निगाहों के बावजूद कभी भी लोकतंत्र पर जरा सी भी आँच न आने देने का सच ही भारत की महाशक्ति और दुनिया की उभरती ताकत का अहसास कराता है।
साल भर से चल रहे किसान आन्दोलन और इसके चलते तीनों कृषि कानूनों की वापसी की प्रक्रिया शुरू होने के बाद विशेषकर उत्तर प्रदेश और पंजाब पर सबकी खास निगाहें हैं। दरअसल कृषि कानूनों को लेकर सबसे ज्यादा असर पंजाब व उत्तर प्रदेश में पड़ेगा ऐसा माना जा रहा है। पूर्ण बहुमत की दूसरे टर्म की मोदी सरकार के लिए 2022 की शुरुआत में उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर विधानसभा चुनावों के नतीजे लिटमस टेस्ट सरीखे होंगे। माना जा रहा है कि दो बड़े राज्य उप्र उसमें भी विशेषकर पश्चिमी उप्र और पंजाब किसान बहुल और किसान राजनीति के बड़े केन्द्र हैं। इन्हीं राज्यों की किसी न किसी रूप में पूरे देश में कोई न कोई छाप दिख ही जाती है। ऐसे में साल भर से चल रहा किसान आन्दोलन चिन्ता का सबब तो बनना ही था। अब कथित किसान विरोधी तीनों कृषि कानून समाप्ति को लेकर कैबिनेट की मुहर के बाद भी आन्दोलन की ठण्डी न पड़ती आग से एक अलग चिंगारी उठती दिख रही है। जाहिर है नरेन्द्र मोदी के लिए दोनों आम चुनावों जैसे सकारात्मक बल्कि कहें एकतरफा माहौल के बीच एक अकेला यह आन्दोलन ही चुनौती दिख रहा हो ऐसा नहीं है। कोविड-19 के बुरे दौर और लगातार अर्थव्यवस्था पर पड़ते जोर खासकर पेट्रोलियम पदार्थों की बेलगाम कीमतों और खाद्य पदार्थों की बेतहाशा मँहगाई ने ही नरेन्द्र मोदी जैसे दृढ़ इच्छा शक्ति और कड़े फैसले लेने वाले को तीनों कृषि कानूनों की वापसी खातिर मजबूर किया हो। इसके पीछे के तर्क-कुतर्क अलग राजनीतिक बहस के मुद्दा हो सकते हैं। लेकिन सच यही है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कृषि कानूनों की वापसी का कार्ड कितना सटीक होगा यह उत्तर प्रदेश और पंजाब में 2022 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव नतीजे ही बताएँगे।
भाजपा के अन्दरखाने में भी इस वापसी पर जबरदस्त क्रिया-प्रतिक्रिया तो समझ आ रही है लेकिन बाहर ज्यादा सुगबुगाहट दिख नहीं रही है। हालांकि मप्र की पूर्व मुख्यमंत्री और केन्द्र में मंत्री रह चुकीं उमा भारती जो अपनी बेबाकी के लिए जानी जाती हैं ने दो टूक कहकर सबको चकित जरूर कर दिया है जिसमें उन्होंने कहा कि “हमारे प्रधानमंत्री ने जब तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी की घोषणा की तो मैं अवाक रह गई और व्यथित हूँ। इसलिए 3 दिन बाद प्रतिक्रिया दे रही हूँ। कृषि कानूनों की महत्ता नहीं समझा पाना हम सब कार्यकर्ताओं की कमीं है। हम क्यूँ नहीं किसानों से ठीक से सम्पर्क एवं संवाद कर पाए? मोदी जी बहुत गहरी सोच एवं समस्या की जड़ को समझने वाले प्रधानमंत्री हैं। भारत की जनता और मोदी जी का आपस का समन्वय, विश्व के राजनीतिक, लोकतांत्रिक इतिहास में अभूतपूर्व है। कृषि कानूनों के संबंध में विपक्ष के निरंतर दुष्प्रचार का सामना भी हम नहीं कर सके। लेकिन मेरे नेता ने क़ानूनों को वापस लेते हुए भी अपनी महानता स्थापित की है।”यकीनन कहीं न कहीं हवा के रुख को भांपा गया है।
कृषि कानूनों की वापसी के पहले 30 अक्टूबर को हुए उपचुनावों के नतीजे भी काफी हैरान करने वाले रहे। जिसमें 14 राज्यों के 3 लोकसभा और 29 विधानसभा उपचुनावों में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को 15 विधानसभा और 1 लोकसभा सीट पर जीत मिली। वहीं 14 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटें राजनीतिक विरोधियों के खाते में चली गईं। हो सकता है कि इसका ईमानदार विश्लेषण किया गया हो? प्रधानमंत्री मोदी ने बिना झिझक सच्चाई को स्वीकारा हो और कृषि कानूनों की वापसी के फैसले पर अपने बेलाग अन्दाज से ही बड़ा संदेश दिया हो? यह बात अलग है कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। लेकिन फिलाहाल भारतीय राजनीति में भूचाल जैसी स्थिति जरूर आ गई है। इधर किसान भी झुकते नहीं दिख रहे हैं। संसद के आगामी सत्र में कानून वापसी के बाद राजनीति की क्या दिशा होगी यह पूर्वानुमान बेमानी होगा। किसान इसे अपनी जीत समझ रहे हैं तो, विपक्षी सरकार की हार मान रहे हैं। वहीं सरकार इसे अपनी उदारता बता रही है। कुल मिलाकर सारा कुछ फिर उसी लोकतंत्र की कसौटी पर कसने के लिए तैयार दिख रहा है जिसकी दुंदुभी अगले बरस की शुरुआत में 5 राज्यों के चुनाव से बजेगी। इसके लिए वक्त बहुत कम है लेकिन धड़कनें सबकी बढ़ी हुईं हैं।
राजनीति पण्डितों ने 30 अक्टूबर के उपचुनावों को बड़ा संकेत माना है लेकिन जब इन कृषि कानूनों का मामला सुप्रीम कोर्ट गया था तो उसने कानूनों की संवैधानिक वैधता जांचे बिना उनके अमल पर रोक लगा बहुत बड़ा बल्कि कहें क्रान्तिकारी कदम उठाया और तय किया कि कानून की वैधता जांचे बिना किसान संगठनों को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया जाए लेकिन किसान नहीं गए। इस पर एटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल की तत्काल प्रतिक्रिया भी आई थी जिसमें उन्होंने इसे गलत परंपरा बताते हुए कहा था कि सर्वोच्च अदालत कोई पंचाट नहीं है एक संवैधानिक अदालत है जिसे अपने अधिकार के दायरे में ही रहकर काम करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञों की कमेटी भी बनाई लेकिन किसानों ने वहाँ भी जाना उचित नहीं समझा। हालाकि कमेटी आठ महीने पहले रिपोर्ट सौंप दी चुकी है जिसे न तो सार्वजनिक किया गया न ही सुनवाई हुई।
अब इन्हीं कानूनों की वापसी कर प्रधानमंत्री ने भी बड़ा दाँव जरूर फेंक दिया है। शह और मात की राजनीति के खेल में 5 राज्यों के चुनाव के बाद गुजरात और हिमाचल प्रदेश तो 2023 में 8 राज्यों के चुनाव होने हैं। मार्च में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा मई में कर्नाटक और दिसंबर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान और तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों के चुनाव होंगे। जाहिर है 2024 के आम चुनावों की तैयारियों तक राज्यों के चुनावों की झड़ी सामने दिख रही है।
कृषि कानूनों से इतर ममता बनर्जी की सफलता और अब केन्द्र में निगाह और पूर्वोत्तर राज्यों पर दाँव तो अरविन्द केजरीवाल का कई राज्यों पर पासा, उत्तर प्रदेश में सपा, आरएलडी व अन्य छोटे-छोटे दलों का गठबन्धन तो पूर्वोत्तर में नई संभावनाएँ के बीच देश की भूख मिटाने वाले किसानों का मुद्दा सबसे अहम होने के बावजूद भाजपा के लिए किसान आन्दोलन और बढ़ती मंहगाई देश भर में प्रभाव डालने वाले कदम लग रहे हैं। शायद इसीलिए कृषि कानूनों की वापसी, पेट्रोल के दामों में कटौती का बड़ा दाँव खेला गया। जाहिर है चन्द हफ्तों बाद देश में क्रमशः 13 राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे जो 2024 के आम चुनावों के पहले तक चलेंगे।
आगामी 13 विधानसभा चुनाव जो देश के लगभग हर कोने को प्रभावित करेंगे, लिटमस टेस्ट साबित होंगे क्योंकि तब तक राजनीति में न जाने कितने दुश्मन, दोस्त और दोस्त, दुश्मन बन चुके होंगे। लोकतंत्र की कसौटी पर खरा उतरने के लिए बेशक दुनिया की सबसे पार्टी भाजपा और बिखरे हुए विपक्ष की एकता के बीच राष्ट्रीय राजनीति में नई इबारत लिखने को बेताब कई झण्डाबरदार लुभाने, मनाने और सपने दिखाने के लिए हाईटेक तरीके अपनाकर चुनावी रण के मैदान में जोर आजमाइश करते दिखेंगे। बावजूद तमाम दाँव-पेंच, सत्ता संघर्ष के रण में कौन कितना आगे होगा यह इन्हीं विधानसभा चुनावों के रास्तों से तय होगा। फिलाहाल इतना तो कह सकते हैं कि हमारे मजबूत लोकतंत्र को और सुदृढ़ बनाने, जन की बात ही बनती है भारत के मन की बात।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं)