हिन्दी सिनेमा का सूरज अस्त हो गया

ललित गर्ग)

पिछले कई सालों से बार-बार अदाकारी से करोड़ों दिलों पर राज करने वाले दिलीपकुमार के अस्पताल में भर्ती होने की खबरें आती रहीं, लेकिन बार-बार मौत को मात देकर वो वापस मुस्कुराते हुए घर लौट आते, लेकिन 7 जुलाई 2021 की मनहूस सुबह वो खबर आई, जिसने देश एवं दुनिया के करोड़ों लोगों का दिल तोड़कर 98 साल की उम्र में बॉलीवुड का लिजेंड इस दुनिया को अलविदा कह कर चला गया, हिन्दी सिनेमा का सूरज अस्त हो गया। जीवंत-अनुशासित अदाकारी के शिखर, अभिनय के शहंशाह, भारतीय सिनेमा जगत के पुरोधा, करोड़ों कलाकारों के प्रेरणास्रोत श्री दिलीप कुमार का निधन फिल्म जगत की अपूरणीय क्षति है, उनके जाने से हिंदी सिनेमा के एक युग का अंत हो गया है। वे ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को आसमान की उंचाई तक पहुंचाया। उन्होंने अदाकारी के मायने बदल कर रख दिए। उनकी अदाकारी संजीदा थी, उनकी आंखें एक साथ हजारों शब्द बोल उठती थीं। चाहे संवाद कितना भी लंबा हो, उसका हर शब्द, हर अक्षर, यहां तक कि हर विराम चिन्ह भी दिल तक पहुंचता था। अपने किरदार में वो जिस तरह से डूब जाते थे, उसे देखकर लगता ही नहीं था कि वो अभिनय कर रहे हैं। किरदार प्रेमी का हो, तेज तर्रार पुलिसवाले का हो या देशभक्ति में डूबा कोई शख्स- अपनी अदाकारी की जादूगरी से वो रुपहले पर्दे पर ऐसे छाते कि लोगों की उनसे नजरें ही नहीं हटती थीं।


दिलीपकुमार का 11 दिसंबर, 1922 को हुआ। उनका जन्म का नाम मुहम्मद युसुफ खान था। उनका जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान मंे) में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला गुलाम सरवर था जो फल बेचकर अपने परिवार का खर्च चलाते थे। विभाजन के दौरान उनका परिवार मुंबई आकर बस गया। उनका शुरुआती जीवन तंगहाली एवं संघर्षों में ही गुजरा। पिता के व्यापार में घाटा होने के कारण वह पुणे की एक कैंटीन में काम करने लगे थे। उनका फिल्मों से दूर-दूर तक नाता नहीं था, उनके फिल्मी सफर की शुरुआत तो यही पुणे में तब हुई, जब बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी की उन पर नजर पड़ी। उन्होंने दिलीपकुमार को अभिनेता बना दिया। देविका रानी के कहने पर ही उन्होंने अपना नाम बदल कर दिलीपकुमार कर दिया ताकि उन्हें हिन्दी फिल्मों में ज्यादा पहचान और सफलता मिले। देविका रानी ने 1944 में यूसूफ खान को फिल्म ‘‘ज्वार भाटा‘‘ में ब्रेक दिया, इसी फिल्म से उनको नाम मिला दिलीप कुमार का। पहली फिल्म तो रिलीज हो गई थी, लेकिन कामयाबी के लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ा, उसके बाद 1948 में आई उनकी दो फिल्में ‘शहीद‘ और ‘मेला‘, जिससे उन्हें बॉलीवुड में पहचान मिली। राजकपूर के साथ आई फिल्म ‘अंदाज‘ ने दिलीप कुमार को स्टार बना दिया। उसके बाद आन, तराना, दीदार, अमर, फुटपाथ जैसी फिल्मों ने ये साबित कर दिया कि दिलीप की अदाकारी का कोई जवाब नहीं हैं। उन्होंने अद्भुत, अनूठी एवं जीवंत अदाकारी से असंख्य लोगों के दिलों पर राज किया। फिल्म ‘देवदास‘‘ से तो उन्हें ट्रैजडी किंग का ही खिताब दे दिया गया। अगले कुछ सालों में मधुमति, कोहिनूर जैसी हिट फिल्में आई और उसके 1960 में रिलीज हुई भारतीय सिनेमा की वो क्लासिक फिल्म जो हमेशा के लिए अमर हो गई। फिल्म का नाम था ‘मुगल ए-आजम‘, इस फिल्म में सलीम के किरदार में थे दिलीपकुमार और मधुबाला थी अनारकली। पर्दे पर सलीम अनारकली की इस जादुई जोड़ी ने धमाल मचा दिया। दिलीप कुमार ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 में विवाह किया। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष और सायरा बानो 22 वर्ष की थीं। 1980 में कुछ समय के लिए आसमां से दूसरी शादी भी की थी। 1980 में उन्हें सम्मानित करने के लिए मुंबई का शेरिफ घोषित किया गया।


दिलीपकुमार को हम भारतीय सिनेमा का उज्ज्वल नक्षत्र कह सकते हैं, वे चित्रता में मित्रता के प्रतीक थे तो गहन मानवीय चेतना के चितेरे जुझारु, नीडर, साहसिक एवं प्रखर व्यंितव एवं अदाकारा थे। वे एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व थे, जिन्हें अभिनय जगत का एक यशस्वी योद्धा माना जाता है। उन्होंने आमजन के बीच, हर जगह अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। लाखों-लाखों की भीड़ में कोई-कोई दिलीपकुमार जैसा विलक्षण एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति अभिनय-विकास की प्रयोगशाला मेें विभिन्न प्रशिक्षणों-परीक्षणों से गुजरकर महानता का वरन करता है, विकास के उच्च शिखरों पर आरूढ़ होता है और अपनी अनूठी अभिनय क्षमता, मौलिक सोच, कर्मठता, जिजीविषा, पुरुषार्थ एवं राष्ट्र-भावना से सिनेमा-जगत, समाज एवं राष्ट्र को अभिप्रेरित करता है। वे भारतीय फिल्म-जगत का एक आदर्श चेहरा थे। बॉलीवुड के बड़े-बड़े कलाकारों के लिए वे एक्टिंग इंस्टीटूयूशन की तरह रहे हैं, उनसे एक्टिंग सीख कर कई कलाकार बॉलीवुड में छा गए। देश और देशवासियों के लिये कुछ खास करने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। देश की एकता एवं अखण्डता को खंडित करने की घटनाओं पर उनके भीतर एक ज्वार उफनने लगता और इसकी वे अभिव्यक्ति भी साहस से करते।


दिलीपकुमार हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध और लोकप्रिय अभिनेता थे जो भारतीय संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं। उन्हें उनके दौर का बेहतरीन अभिनेता माना जाता है, दीदार (1951) और देवदास (1955) जैसी फिल्मों में त्रासद या दुःखद भूमिकाओं के लिए मशहूर होने के कारण उन्हें ‘ट्रेजिडी किंग’ भी कहा जाता था। उन्हें भारतीय फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से 1995 में सम्मानित किया गया था, इसके अलावा दिलीप कुमार को 1998 में पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज से भी सम्मानित किया गया है। उनकी पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ थी, जो 1944 में आई, 1949 में बनी फिल्म अंदाज की सफलता ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई, इस फिल्म में उन्हांेने राज कपूर के साथ काम किया। उन्होंने 1961 में गंगा जमुना फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमे उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया। 1970 से 90 के दशक में उन्होंने कम फिल्मों में काम किया।

इस समय की उनकी प्रमुख फिल्में थीरू विधाता (1982), दुनिया (1984), कर्मा (1986), इज्जतदार (1990) और सौदागर (1991)। 1998 में बनी फिल्म किला उनकी आखरी फिल्म थी। उन्होंने रमेश सिप्पी की फिल्म शक्ति में अमिताभ बच्चन के साथ काम किया। इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। एक दौर ऐसा भी आया जब दिलीप साहब की फिल्में फ्लॉप होने लगी थीं, वो दौर था राजेश खन्ना के बॉलीवुड में एंट्री का, जिसके उन्होंने करीब 5 सालों तक फिल्मों से दूरी बना ली, लेकिन 1981 में एक बार फिर वेे पर्दे पर आए और इस बार उन्होंने करेक्टर रोल निभाने शुरू किए, क्रांति, शक्ति, मसाल, कानून अपना-अपना और सौदागर जैसी फिल्मों में उन्होंने करेक्टर रोल निभाया और एक बार फिर पर्दे पर छा गए। दिलीप कुमार की शानदार फिल्मों की लिस्ट इतनी लंबी है कि उसे उंगलियों पर गिनना आसान नहीं है, एक लंबा सफर तय करने जैसा है। दिलीपकुमार ने हिंदी सिनेमा जगत में 8 दशक की सबसे लम्बी पारी खेली है। भारतीय सिनेमा के गोल्डन एरा के समय के ये एक अग्रिम अभिनेता रहे हैं। दिलीप कुमार जी ने बॉलीवुड में 1940 में कदम रखा था, उस समय हिंदी सिनेमा अपने शुरुआती दौर में था, उस समय ना ज्यादा एक्टर हुआ करते थे, ना फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर। देश की आजादी के पहले फिल्म देखने वाला दर्शक वर्ग भी काफी सीमित था।


दिलीपकुमार एक ऐसे फिल्मी जीवन की दास्तान है जिन्होंने अपने जीवन को बिन्दु से सिन्धु बनाया है। उनके जीवन की दास्तान को पढ़ते हुए जीवन के बारे में एक नई सोच पैदा होती है। जीवन सभी जीते हैं पर सार्थक जीवन जीने की कला बहुत कम व्यक्ति जान पाते हैं। दिलीपकुमार के जीवन कथानक की प्रस्तुति को देखते हुए सुखद आश्चर्य होता है एवं प्रेरणा मिलती है कि जीवन आदर्शों के माध्यम से भारतीय सिनेमा, राजनीति, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैयक्तिक जीवन की अनेक सार्थक दिशाएँ उद्घाटित की जा सकती हैं। उन्होंने व्यापक संदर्भों में जीवन के सार्थक आयामों को प्रकट किया है, वे आदर्श जीवन का एक अनुकरणीय उदाहरण हंै, उनके जीवन से कुछ नया करने, कुछ मौलिक सोचने, समाज को मूल्य प्रेरित बनाने, रचना का संसार रचने, सद्प्रवृत्तियों को जागृत करने की प्रेरणा मिलती रहेगी। उनके जीवन से जुड़ी विधायक धारणा और यथार्थपरक सोच ऐसे शक्तिशाली हथियार थे जिसका वार कभी खाली नहीं गया। वे जितने उच्च नैतिक-चारित्रिक व्यक्तित्व एवं नायक थे, उससे अधिक मानवीय एवं सामाजिक थे। उनका निधन एक जीवंत, यथार्थ सोच के सिनेमा का अंत है। वे सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने वाले व्यक्तियों की शंृखला के प्रतीक थे। आपके जीवन की खिड़कियाँ सिनेमा-जगत, समाज एवं राष्ट्र को नई दृष्टि देने के लिए सदैव खुली रही। उनकी सहजता और सरलता में गोता लगाने से ज्ञात होता है कि वे गहरे मानवीय सरोकार से ओतप्रोत एक अल्हड़ व्यक्तित्व थे। बेशक दिलीपकुमार अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन अपने सफल, सार्थक एवं जीवंत अभिनय के दम पर वे हमेशा भारतीय सिनेमा के आसमान में एक सितारे की तरह टिमटिमाते रहेंगे। प्रेषकः

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