सुहाना सफर और ये मौसम हंसीं – कहां गुम हो गए ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार..!

-ऋतुपर्ण दवे

वो हिन्दी फिल्मों के ट्रेजेडी किंग थे. वो हिन्दी फिल्मों की नई ऊंचाइयों के दौर के लीजेण्ड यानी महान चरित्र अभिनेता थे. नए दौर की फिल्मों के बेहतरीन कलाकार, बेहद अनुशासित और जिम्मेदार शख्सियत थे. वो अकेले हिन्दी फिल्मों के ऐसे जीवन्त किरदार थे जिनकी नकल कर बिना छुपाए लोग फक्र से कहते थे कि हमने दिलीप जी की कॉपी की है. वो यूसुफ खान से दिलीप कुमार बने लेकिन नाम के इस अंतर ने कभी उनकी पहचान में कोई फर्क नहीं किया. सच में वो एक असली नायक थे. भारतीय फिल्मों को ऊंचाइयों पर ले जाने वाले सदी के वो नायक जिसने अपनी भूमिका और छवि में कभी कोई आंच नहीं आने दी. वह दिलीप कुमार ही थे जो अपनी भूमिकाओं यानी मेथड ऑफ ऐक्टिंग में कुछ इस तरह डूब जाते कि मानों सब कुछ सच हो, जीवंत हो. पर्दे पर भी उनकी दिखने वाली यही हकीकत उनकी खास पहचान बन गई. देखते ही देखते सारे देश के हीरो बन गए, प्रशंसकों की आंखों का तारा बन गए. सबके, सबसे चहेते बन गए जिसकी आलोचना का कभी कोई आधार ही नहीं बन सका. 

दिलीप कुमार फिल्म इण्डस्ट्री की वह विरली, बेहद दमदार और भरपूर शख्सियत थे जो हर बात को पूरी शिद्दत, वजनदारी और तर्कों से रखते या कहते थे. वो जैसे थे वैसे ही दिखते थे. उनके अभिनय और जीवन का यही तालमेल जहां उनकी फिल्मों की सफलता का राज था वही खुशहाल जिन्दगी की वजह थी. शायद इसीलिए फिल्म इण्डस्ट्री के अकेले सफल और निर्विवाद अभिनेताओं में दिलीप कुमार ही शुमार हैं जिनका विवादों से कभी कोई नाता जुड़ ही नहीं सका. यकीनन दिलीप कुमार का जाना हिन्दी फिल्मों के एक स्वर्णिम युग के एक अध्याय के अंत जैसा है. यकीनन दिलीप जी अभिनय की एक जिन्दा यूनिवर्सिटी थे. दौर बदलता रहा लेकिन उनकी पहचान अंत तक नहीं बदल सकी. तीन पीढ़ियों के वो बेहद गंभीर और लोकप्रिय अभिनेता थे. 1940 के दशक से लेकर 1990 तक 50 बरसों के सफर में उनके प्रेरक और सामाजिक डॉयलाग्स के बीच पीढ़ियां, बच्चे से बड़ी हुई, बड़े से जवान और जवान से बूढ़ी हुई. 1944 में ज्वार भाटा फिल्म से अपने कैरियर की शुरुआत से लेकर 1998 में आखिरी फिल्म किला तक का सफर इतना रौबदार और शानदार है कि उसके लिए जितना लिखा जाए कम है. हजारों पन्ने भी कम पड़ जाएंगे. उन पर पीएडी भी भविष्य में एक विषय हो सकता है. यकीनन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की श्रध्दांजलि के ट्वीट में दिलीप जी के निधन को सांस्कृतिक दुनिया की क्षति बताना उनके करिश्माई व्यक्तित्व की अनुभूति कराने जैसा है. 

11 दिसंबर, 1922 को परतंत्र भारत के पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में लाला गुलाम सरवर खान और आयशा बेगम के घर में जो अब पाकिस्तान में है जन्में यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नाशिक में पूरी की. उनकी मुलाकात बॉम्बे टाकीज  फिल्म प्रोडक्शन हाउस की मालकिन देविका रानी से हुई जो उस दौर की मशहूर अदाकारा थीं. उन्होंने फिल्मों में काम दिलवाया. उन्होंने ने ही यूसुफ खान नाम बदलने को कहा जिससे पहले दिलीप कुमार हैरान रह गए जो बाद में हुआ. अपनी आत्मकथा “दिलीप कुमार- वजूद और परछाई” में दिलीप कुमार ने इस पर विस्तार से लिखा है. आत्मकथा में बचपन का जिक्र करते हुए लिखा है कि एक फकीर ने उनके बारे में ऐलान किया था कि ये कोई आम बच्चा नहीं है. उनकी दादी को बताया कि यह तो बेहद मशहूर होने और असाधारण ऊंचाइयों को छूने के लिए ही आया है. इसका खूब ध्यान रखना. अगर बुरी नजरों से बचा लिया तो बुढ़ापे तक खूबसूरत रहेगा. हमेशा काला टीका लगाकर रखना. सच में उनके चेहरे की खूबसूरती का वही नूर आखिर तक झलकता रहा. दिलीप कुमार की जितनी पकड़ उर्दू भाषा पर थी, वैसी ही गजब की पकड़ हिन्दी पर भी थी और इस दौर की हिंग्लिश पर भी. वह किताबों के भी बेहद शौकीन थे. उपन्यास, नाटक, जीवनियां, क्लासिक साहित्य पढ़ने में जबरदस्त दिलचस्पी थी. टेनिसन विलियम्स, फ्योदोर दास्तोव्यस्की और जोसेफ कोनराड उनके प्रिय लेखकों में रहे हैं. जहां राज कपूर उनके बचपन में ही दोस्त बन गए थे वहीं देविका रानी ने फिल्मों में काम दिलाया. 

22 साल की उम्र में पहली फिल्म ज्वार भाटा मिली. अभिनेत्री नूर जहां के साथ उनकी जोड़ी हिट हुई. 1947 में शौकत हुसैन रिजवी के निर्देशन में बनी रोमांटिक फिल्म जुगनू में उनके साथ  नूरजहां, गुलाम मोहम्मद, जिलो, लतिका, शशिकला और पार्श्व गायक मोहम्मद रफी ने भी काम किया. यह तबकी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली पहली भारतीय फिल्म थी. 1948  की शहीद और मेला भी उनकी सफल फिल्में रहीं. 1949 में आई फिल्म अंदाज तो और भी सफल रही जिसमें राज कपूर और नरगिस भी उनके साथ थे. 1950 के बाद तो उन्होंने सिर्फ दमदार फिल्में और उनके सदाबहार गीतों में अभिनय किया जिनमें आन (पहली टेक्नीकलर फिल्म), तराना, संगदिल, अमर, इंसानियत, नया दौर आजाद, लीडर, दाग, गोपी,  यहूदी, मधुमति, पैगाम, कोहिनूर, राम और श्याम शामिल हैं. वहीं 1960 में सबसे मंहगी भारतीय फिल्म मुगल-ए-आजम भी उस दौर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय और कमाई करने वाली फिल्म बनीं. इन फिल्मों ने उन्हें भारतीय सिनेमा जगत में ट्रैजेडी किंग के रूप में स्थापित किया. तबकी मशहूर अभिनेत्री मधुबाला और वैजयंती माला के साथ दिलीप कुमार ने कई फिल्में की. उनकी अदाकारी तो बेहद दमदार होती ही थी लेकिन उनकी फिल्मों के संगीत भी सबसे अलग हुआ करते थे. दोनों के चलते ही दिलाप कुमार का वो जादू भारतीय जनमानस पर जो आज भी जस का तस बरकरार है. 

सबसे ज्यादा अवार्ड हासिल करने वाले दिलीप कुमार का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज है. 1954 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पहला फिल्म फेयर अवार्ड जीतने वाले पहले अभिनेता थे जिन्हें बार 8 फिल्म फेयर अवार्ड, 1991 में पद्मभूषण सम्मान, 1994 तें दादा साहेब फाल्के अवार्ड और 2015 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. सन् 2000 से 2006 तक वह राज्य सभा के सदस्य भी रहे. 1998 में उन्हें पाकिस्तान के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज से नवाजा गया. अभिनेत्री मधुबाला के साथ दिलीप कुमार का रिश्ता सुर्खियों में जरूर रहा लेकिन दोनों ने शादी कभी नहीं की.1966  में अभिनेत्री सायरा बानो से शादी की जो उनके आखिरी समय पूरी शिद्दत से साथ रहीं और सफल दाम्पत्य जीवन की मिशाल भी बनीं. 98 वर्षीय दिलीप कुमार के ट्विटर हैंडल से ही सुबह 8 बजकर 1 मिनट पर उनके निधन की जानकारी पारिवारिक मित्र फैजल फारुखी ने देकर उनके चहेतों को गमजदा कर दिया. काश इस बार भी उनकी मौत की खबर झूठी हो पाती..! लंबी आयु से होने वाली बीमारियों को वो मात न दे सके. अपने प्रशंसकों के उनके शतायु होने का जश्न मनाने का मौका दिए बगैर दो बरस पहले ही दिलीप कुमार दुनिया को अलविदा कह गए. सच में सलीके की कलाकारी, भरी-पूरी अदाकारी और दुनिया को बेहतरीन फनकारी का पैगाम देने वाले का यूं सुहाना सफर और ये मौसम हंसीं हमें डर है, हम खो ना जाए कहीं गुनगुनाते-गुनगुनाते हमेशा-हमेशा के लिए खामोश होना बड़ी और अपूर्णनीय क्षति है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)

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