महज 20 वर्ष की उम्र में मशहूर टीवी एक्ट्रेस तनीषा शर्मा ने अपने सीरियल की शूटिंग के सेट पर फंदे से लटककर आत्महत्या कर ली। इसी तरह पिछले कुछ सालों में बालीवुड या टेलीविजन में अभिनय की दुनिया में अपनी अच्छी पहचान बनाने वाले सुशांत सिंह राजपूत, वैशाली ठक्कर, आसिफ बसरा और कुशल पंजाबी से लेकर परीक्षा मेहता जैसे अनेक कलाकारों ने आत्महत्या की। प्रश्न है कि इन स्थापित कलाकारों ने आत्महत्या क्यों की? आखिर मनोरंजन की दुनिया में अचानक आत्महत्या कर लेने की घटनाएं क्यों बढ़ रही है? निश्चित रूप से खुदकुशी सबसे तकलीफदेह हालात के सामने हार जाने का नतीजा होती है और ऐसा फैसला करने वालों के भीतर वंचना का अहसास, उससे उपजे तनाव, दबाव और दुख का अंदाजा लगा पाना दूसरों के लिए मुमकिन नहीं है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है।
बालीवुड या टेलीविजन ही नहीं, आम जीवन में भी आत्महत्या की समस्या दिन-पर-दिन विकराल होती जा रही है। इधर तीन-चार दशकों में चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से जहां बीमारियों से होने वाली मृत्यु संख्या में कमी आयी है, वहीं इस वैज्ञानिक प्रगति, भौतिकवादी जीवनशैली एवं तथाकथित विकास के बीच आत्महत्याओं की संख्या पहले से अधिक हो गई है। यह शिक्षाशास्त्रियों, समाज एवं शासन व्यवस्था से जुड़े हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है। चिंता की बात यह भी है कि आज के सुविधाभोगी एवं प्रतिस्पर्धी जीवन ने तनाव, अवसाद, असंतुलन को बढ़ावा दिया है, अब सन्तोष धन का स्थान अंग्रेजी के मोर धन ने ले लिया है। जब सुविधावादी मनोवृत्ति, कैरियर एवं बी नम्बर वन की दौड़ सिर पर सवार होती हैं और उन्हें पूरा करने के लिये साधन, सामर्थ्य एवं परिस्थितियां नहीं जुटा पाते हैं, या काम का दबाब अति हो जाता है, तब कुंठित, तनाव एवं अवसादग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है।
सिनेमा या टेलीविजन के पर्दे पर एक सशक्त किरदार के तौर पर जिंदगी के लिए संघर्ष का संदेश देने वाले लोग ही जब व्यक्तिगत मोर्चे पर हार कर खुदकुशी कर लेते हैं, तो ऐसे किरदार कैसे असरकारक हो सकते हैं? इससे तो केवल उस व्यक्ति के मनोबल की कमजोरी ही जाहिर नहीं होती बल्कि वह एक समाज या समुदाय की बहुस्तरीय नाकामी का उदाहरण होता है। मुंबई का फिल्म और टीवी उद्योग पिछले कई सालों से इस समस्या से दो-चार है कि सिनेमा में हंसता-खेलता और सार्वजनिक जीवन में लोगों का पसंदीदा बन गया कलाकार आखिर किसी दिन अचानक खुदकुशी कर लेता है। मगर किसी भी स्थिति में जीवन खो देने के बजाय हालात से लड़ना और उसका हल निकालना ही बेहतर रास्ता होता है, यह सीख कौन देगा? पर मुख्य सवाल यही रह जाता है कि आमतौर पर सभी सुविधाओं एवं समृद्धताओं के शिखर पर स्थापित एवं अपने आसपास कई स्तर पर समर्थ लोगों की दुनिया में सार्वजनिक रूप से अक्सर मजबूत दिखने के बावजूद कोई व्यक्ति भीतर से इतना कमजोर क्यों हो जाता है कि जिंदगी के उतार-चढ़ाव या झटकों को बर्दाश्त नहीं कर पाता?
बॉलीवुड में ऐसे कई सेलिब्रिटीज हैं जो रिश्तों की समस्याओं को लेकर भी तनावग्रस्त रहे थे। जैसे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की बात की जाये तो कई मीडिया रिपोर्ट्स ने दावा किया था कि रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह राजपूत के बीच रिश्तों में कुछ समस्याएं थी, जिसके चलते सुशांत सिंह राजपूत ने कथित आत्महत्या जैसा कदम उठाया। हाल ही में तनीषा शर्मा सुसाइड मामले में भी उनकी मां ने एक्टर और तनिषा के बॉयफ्रेंड शीजान खान पर आरोप लगाया है कि उसने तनीषा को आत्महत्या करने के लिए उकसाया। अभिनेत्री जिया खान ने 3 जून 2013 को अपने जुहू अपार्टमेंट में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। उनकी मौत के बाद ही 6 पेज का एक सुसाइड नोट बरामद हुआ जिसमें सूरज पंचोली का नाम लिखा हुआ था। इस नोट में जिया ने बिगड़ते रिश्ते और ब्रेकडाउन जैसी कई बातें लिखी थी। इसी प्रकार अप्रैल 2016 टीवी कलाकार प्रत्युषा बनर्जी ने भी प्यार में मिले धोखे के चलते आत्महत्या कर ली थी। तनीषा शर्मा के साथ आखिर क्या ऐसा हुआ, जिसका हल उसे अपनी जान देने में ही नजर आया! सामान्य नजरिए से देखें तो यही कहा जा सकता है कि आत्महत्या की दूसरी घटनाओं में जिस तरह व्यक्ति हार कर ऐसा कदम उठाता है, वैसी ही कोई परिस्थिति पैदा हुई होगी। पर वे कौन-सी और कैसी असामान्य परिस्थितियां इन कलाकारों के सामने रही कि उन्होंने उनसे बचने या टकराने के बजाय जिंदगी की हार यानी आत्मकत्या का रास्ता चुना?
सिनेमा के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी बढ़ती प्रतिस्पर्धा, शैक्षणिक दबाव एवं अभिभावकों की अतिशयोक्तिपूर्ण महत्वाकांक्षाओं के कारण आत्महत्या की घटनाएं अधिक देखने को मिल रही है। उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्र भी आत्महत्या कर रहे हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले एक दशक में आईआईटी के 52 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह संख्या इतनी छोटी भी नहीं कि ऐसे मामलों को अपवाद मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए। बेशक ऐसे हर मामले में अवसाद का कारण कुछ अलग रहा होगा, वे अलग-अलग तरह के दबाव होंगे, जिनके कारण ये छात्र-छात्राएं आत्महत्या के लिए बाध्य हुए होंगे। ऐसे संस्थानों में जहां भविष्य की बड़ी-बड़ी उम्मीदें उपजनी चाहिए, वहां अगर दबाव और अवसाद अपने लिए जगह बना रहे हैं और छात्र-छात्राओं को आत्महंता बनने को विवश कर रहा है तो यह एक काफी गंभीर मामला है। फ्रांसिस थामसन ने कहा कि “अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है।’ इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज ज्यांे-ज्यांे विकास एवं सुविधावाद के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यांे-त्यांे सहिष्णुता-संवेदना के आदर्श धूल-धूसरित होे रहे हैं और मनुष्य आत्महंता होता रहा है।
जो परिवार तलाक, अलगाव, आर्थिक कलह एवं अभावों, रिश्तों के कलह के कारण टूटी हुयी स्थिति में होते हैं उनमें भी आत्महत्या की घटनाएं अधिक पायी जाती हैं। राजनैतिक उथल-पुथल और व्यापार में नुकसान, आर्थिक तंगी भी आत्महत्या का कारण बनती है। किसानों की फसल की तबाही और कर्ज की अदायगी की चिंता से हो रही आत्महत्या भी गंभीर समस्या बन गई है। कर्ज लेकर घी पीने की जीवनशैली ने भी सबकुछ दांव पर लगा दिया है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण में वृद्धि भी इसके कारण है। भौतिक मूल्यों के बढ़ते हुए प्रभाव ने सामाजिक सामंजस्य की नई समस्याओं को जन्म दिया है। लेकिन आत्महत्या किसी भी सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के भाल पर एक बदनुमा दाग है, कलंक हैं। टायन्बी ने सत्य कहा हैं कि कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नहीं।’
कई विशेषज्ञ का यह भी मानना है कि कोरोना वायरस महामारी के कारण दुनिया भर में सुसाइड्स करने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई है क्योंकि वे मानसिक और आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। कई विशेषज्ञों का तो यह भी मानना है कि दुनिया भर में आने वाले वर्षों में सुसाइड करने वाले लोगों की संख्या बढ़ेगी। इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों पर नियंत्रण जरूरी है। इसके लिये जब कोई व्यक्ति ऐसी स्थितियों से गुजर रहा होता है, तो उसमें आस-पड़ोस, रिश्तेदार, दोस्त, सहकर्मी आदि उसे उनसे बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। मगर हैरानी की बात है कि अब समाज अपनी यह भूमिका क्यों नहीं निभा पा रहा है। इस चिंताजनक स्थिति से निपटने के लिए सरकार के स्तर पर कारगर उपाय जुटाने की दरकार है। प्रश्न यह भी है कि समाज इतना संवेदनहीन क्यों होता जा रहा है? पर यह भी सवाल है कि साधारण लोगों की दुनिया के मुकाबले संगठित रूप से काम करने वाले फिल्म या टीवी धारावाहिकों के उद्योग ने इतने सालों के सफर के बावजूद ऐसा तंत्र विकसित क्यों नहीं किया है, जिसमें बेहद मुश्किल हालात का सामना करता कोई कलाकार अपने लिए जिंदगी की उम्मीद देख पाए?