संवेदनशीलता की नई परिभाषा गढ़ता मध्यप्रदेश

साल 56 से लेकर अब तक सत्तासीन हुए मुख्यमंत्रियों को उनके काम-काज के आधार पर, उनके व्यवहार को जांच कर उन्हें अलग अलग उपाधियों से विभूषित किया जाता रहा है. समय-काल के अनुरूप यह ठीक भी था और बदलते समय-काल में भी इस तरह की  उपमा और विशेषण दिए जाएंगे, वह भी अनुचित नहीं होगा. खैर, पूरी दुनिया के साथ मध्यप्रदेश भी कोरोना महामारी से बीते डेढ़ वर्ष से दो-दो हाथ कर रहा है. चौतरफा चुनौतियों से घिरे मध्यप्रदेश के लिए जीवन बचाना और भविष्य संवारने का चैलेंज है. इन चुनौतियों के मध्य मध्यप्रदेश संवेदनशीलता की जो नई परिभाषा गढ़ रहा है, वह आने वाले दिनों में रेखांकित किया जाएगा. पहले तीन कार्यकाल मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान के लिए वैसे चुनौती भरा नहीं रहा, जैसा कि चौथे कार्यकाल में उन्हें सामना करना पड़ रहा है. दरअसल, पिछले कार्यकाल में उनसे प्रदेश की उम्मीदें लगातार बढ़ती गई और चौथे कार्यकाल में जब कोरोना का हमला हुआ तो प्रदेश के नागरिकों को लगा कि वे संकटमोचक बनकर उनके लिए हौसले का सबब बनेंगे. कोरोना के पहले दौर में इतना भयानक मंजर नहीं था लेकिन कोरोना के दूसरे दौर में एक-एक सांस के लिए लोग परेशान हो उठे. लॉकडाउन जिसे नए रूप में कोरोना कफ्र्यू कहा गया, ने लोगों के समक्ष विपदा का पहाड़ खड़ा कर दिया. अब उनकी सारी आशा और उम्मीदें सरकार शिवराजसिंह से थी.

चुनौतियों को संभावना में बदलने में विश्वास रखने वाले शिवराजसिंह चौहान ने अपने लोगों को निराश नहीं होने दिया. तकलीफें अंतहीन थी लेकिन निदान के लिए जो कदम बढ़ा, उसने पूरे देश में मध्यप्रदेश की तस्वीर बदल दी.
कोरोना महामारी के दूसरे दौर में लगभग सब अस्त-व्यस्त और त्रस्त सा हो गया था. बिस्तर, दवा, इंजेक्शन और ऑक्सीजन की कमी से त्राहि-त्राहि का माहौल बन गया था. लोग जीवन और मौत के बीच जूझ रहे थे. निजी अस्पतालों की लूट भी चरम पर था. ऐसे में भी संयम के साथ परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की कोशिश शुरू हुई. जिस तेजी से कोरोना अपनी खूनी डेने बढ़ाकर लोगों को अपना शिकार बना रहा था, उसी तेजी से इलाज का मुकम्मल इंतजाम होते ही कोरोना को भी खुद को समेटने के लिए मजबूर होना पड़ा. आंकड़ों की बात करें तो औसत राष्ट्रीय दर में मध्यप्रदेश लगातार आगे जा रहा था लेकिन उतनी ही तेजी से कोरोना महामारी का ग्राफ मध्यप्रदेश में गिरने लगा. निजी अस्पतालों पर लगाम कसा गया और आम आदमी को राहत देने की कोशिश की गई. सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था दुरूस्त कर उन्हें सुलभ बनाया गया. अब जो चुनौती बड़ी थी, वह थी उन बच्चों की जिनका परिवार इस महामारी में मौत का शिकार हो गया. चिंता थी उन बेसहारा लोगों की जिनके पास अपने नहीं रहे. वह लोग भी सरकार शिवराजसिंह की चिंता के केन्द्र में थे जिनका रोजगार छीन गया था या जिन्हें अपने पिता-पति के स्थान पर नौकरी नहीं मिल रही थी.

देश में पहली बार मध्यप्रदेश ने ऐलान किया कि कोरोना महामारी में अनाथ हुए बच्चों की जिम्मेदारी सरकार की होगी. इन बच्चों को आर्थिक सुरक्षा तो दी जाएगी. साथ में शिक्षा के लिए भी उचित व्यवस्था होगी. यह बच्चों के हक में बड़ा फैसला था. सरकार की दृष्टि इस बात के लिए भी मुकम्मल थी कि इन्हें स्किल्ड बनाया जाए ताकि वयस्क होने की दशा में खुद अपना काम कर सकें. इसके बाद बेसहारा लोगों को भी सरकार ने सहारा देने का ऐलान किया. आर्थिक एवं अन्य सुविधा देकर उनकी जिंदगी आसान बनाने की कोशिश की गई. अब सरकार के सामने उन लोगों को राहत देने के लिए फैसला लेने का वक्त था जिन्हें सरकारी नौकरी में लिया जाना था. नियमानुसार पात्र लोगों को अनुकम्पा नियुक्ति दिए जाने का फैसला सरकार ने लिया. यही नहीं, नीति बनाकर उसे अमलीजामा पहनाने की पहल भी शुरू कर दी गई. अपनों के खोने का दुख तो जीवन भर उन लोगों को सालता रहेगा लेकिन जो बच गए हैं, उनके जीवन को सरकार शिवराजसिंह की मदद मिल जाने से राहत मिली. ऐसे ही अनेक फैसलोंं ने शिवराजसिंह को आम आदमी का मुख्यमंत्री बनाया था और बने रहे.
सौ साल बाद आने वाली महामारी से त्राहिमाम करते मध्यप्रदेश में ऐसे अनुकूल फैसलों ने सरकार शिवराजसिंह की संवेदनशीलता की नई

परिभाषा गढ़ी है. हालांकि इसके पहले भी प्रदेश के नागरिकों के हक में अनुकूल फैसले लेने वाले पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों को भी संवेदनशील माना गया. तब और अब में केवल इस बात का फर्क था कि तब स्थितियां प्रतिकूल नहीं थी और फैसला लेना भी चुनौती भरा नहीं था लेकिन अब स्थितियां प्रतिकूल थी और फैसला लेना कठिन. ऐसे में आर्थिक संकट से जूझते प्रदेश में हर वर्ग की चिंता कर सरकार शिवराज सिंह के फैसले ने संवदेनशीलता की नई परिभाषा गढ़ी है. यही नहीं, शिवराजसिंह सरकार के फैसलों से सहमत देश के अन्य राज्यों ने भी लागू किया. मध्यप्रदेश यूं ही देश का ह्दयप्रदेश नहीं कहलाता है. 

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