भगवान श्रीकृष्ण हमारी संस्कृति के एक अद्भुत एवं विलक्षण राष्ट्रनायक हैं। श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारिका के शासक भी है किंतु कभी उन्हंे राजा श्रीकृष्ण के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वह तो ब्रजनंदन है। समाज एवं राष्ट्र व्यवस्था उनके लिये कर्त्तव्य थी, इसलिये कर्त्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिये उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। श्रीकृष्ण के आदर्शों से ही देश एवं दुनिया में शांति स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त होगा। इस रहस्य को समझना होगा कि श्रीकृष्ण किस प्रकार आदर्श राजनीति, व्यावहारिक लोकतंत्र, सामाजिक समरसता, एकात्म मानववाद और अनुशासित सैन्य एवं युद्ध संचालन किया। राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए किस तरह की नीति और नियत चाहिए- इन सब प्रश्नों के उत्तर श्रीकृष्ण के जीवन से मिलते हैं।
श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पर्याय है। उनके आदर्शों के माध्यम से ही विश्व ने भारत को जाना है। उनके आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा से विश्व फिर से भारत को जानेगा। राजनैतिक सूक्ष्म दृष्टि, दुष्टों, राष्ट्रद्रोहियों, अपराधियों एवं भ्रष्टाचारियों का दलन, वचन पालन का संकल्प, राष्ट्रहितार्थ आत्मसमर्पण का व्रत, निष्पाप लोगों की मुक्ति, विषमताओं का उन्मूलन, विभेदों में सामंजस्य, परस्पर शत्रुता का निवारण, स्वयं स्वीकृत आत्मसंयम, राष्ट्र कार्यों में सबका सहयोग, राजसत्ता पर धर्मसत्ता का अंकुश और इन सबकी पूर्ति के लिए सत्ता का भी त्याग इत्यादि श्रीकृष्ण के गुण भारत के राष्ट्रीय जीवन एवं सांस्कृतिक मूल्य हैं। वास्तव में श्रीकृष्ण उस कोटि के चिंतक थे, जो काल की सीमा को पार कर शाश्वत और असीम तक पहुंचता है। जब-जब अनीति बढ़ जाती है, तब-तब श्रीकृष्ण जैसे राष्ट्रनायक को अवतीर्ण होना पड़ता है। जैसा कि स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। अर्थात अन्याय के प्रतिकार के लिए ही राष्ट्रनायक को जन्म लेने की आवश्यकता पड़ती है।
जो समूचे जनमानस को इस तरह चेतना से उद्वेलित कर दे कि जिस अभीष्ट दिशा में वह समूचे समाज को ले जाना चाहता है, उस दिशा में सैलाब की तरह समूचा समाज चल पड़े और उसके प्रबल प्रवाह को उन्नत पर्वत शिखर भी न रोक सके। श्रीकृष्ण भी ऐसे ही राष्ट्रनायक थे, जिनके इंगित मात्र पर सभी गोप-गोपियां ब्रज छोड़कर तत्कालीन नरेश कंस के विरुद्ध एकजुट हो गए थे। मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास हालांकि सत्ता से कोसों दूर थे, लेकिन उनकी रामचरितमानस आज भी जन-जन की कंठहार बनी हुई है और आज भी किसी भी सत्तासीन राजा-महाराजा या सम्राट की अपेक्षा भारत में अधिकांश भागों में तुलसी का नाम गूंज रहा है। इसी प्रकार हाल में महात्मा गांधी सत्ता से बिल्कुल दूर थे। उन्होंने एक बार भी कांग्रेस का अध्यक्ष पद नहीं संभाला। लेकिन अपने जीवनकाल में उन्होंने कांग्रेस को तथा तत्कालीन समाज को और समूचे राष्ट्र को दिशा दी थी। जयप्रकाश नारायण ने देश में संपूर्ण क्रांति का आह्वान करके सत्ता परिवर्तन कर दिया था। इसलिए नहीं कि वे सत्ता में थे, बल्कि उनके पास लोकसत्ता थी और इसीलिए वे ‘लोकनायक’ कहलाए। लोगों का उन्होंने अगाध विश्वास जीता था। आज का दुनिया का सबसे बड़ा संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संघ-संचालक श्री मोहन भागवत भी ऐसे ही लोकनायक है। लोकनायक या जननाायक ही वास्तव में राष्ट्रनायक होता है। श्रीकृष्ण अपने युग के ऐसे ही नायक थे। उस समय विश्वभर के सत्ताधारी उनके इर्द-गिर्द ऐसे मंडराते थे, मानो उनके चतुर्दिक चक्र का वलय हो। श्रीकृष्ण ने अन्य लोगों को सत्ता सौंपी, लेकिन स्वयं सत्ता से विरक्त रहे। वास्तव में श्रीकृष्ण राष्ट्रनायक इसीलिए बन सके, क्योंकि उन्होंने लोकशक्ति को संगठित करने की महती भूमिका निभाई थी।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एवं कृतित्व नेतृत्व की समस्त विशेषताओं को समेटे बहुआयामी एवं बहुरंगी है, यानी राजनीतिक कौशल, बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्धनीति, आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख, दुख और न जाने और क्या? एक देश-भक्त के लिए श्रीकृष्ण भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला एवं सफल नागरिकता भी सिखाते है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में महानायक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित थे। धार्मिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जगत् में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया। अपनी योग्यताओं के आधार पर वे युगपुरुष थे, जो आगे चलकर युवावतार के रूप में स्वीकृत हुए। उन्हें हम एक महान् क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे किंतु सरल-निश्छल ब्रजवासियों के लिए तो वह रास रचैया, माखन चोर, गोपियों की मटकी फोड़ने वाले नटखट कन्हैया और गोपियों के चितचोर थे। गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति है- हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भावना से भजता है मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूं। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में भी हम इन्हीं विशेषताओं का दर्शन करते है, क्योंकि श्रीकृष्ण के जीवन-आदर्शों को आत्मसात करते हुए वे सशक्त भारत-नया भारत निर्मित कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण के जीवन में विभिन्न प्रकार के गुणों का ऐसा सुंदर समन्वय था कि एक ओर जहां वे सामान्यजन में रम सकते थे, वहीं अपने हाथों से कुवलयापीड़ जैसे मदोन्मत्त हाथी के दांतों को भी उखाड़कर फेंक सकते थे। अद्भुत क्षमता का यह समन्वय श्रीकृष्ण को अन्य नायकों से बिल्कुल भिन्न पंक्ति में लाकर खड़ा कर देता है। वैचारिक और व्यावहारिक धरातल को समाविष्ट करने की श्रीकृष्ण की सार्थकता की जो धारा भारतीय समाज में अविछिन्न रूप से प्रवाहित हुई उसी को चाणक्य ने कूटनीति से, तुलसीदास ने भक्ति से, गांधी ने सेवा से, जयप्रकाश ने जनजागरण के माध्यम से, मोहन भागवत ने संगठन से चिंतन की व्यावहारिक उपयोगिता को सिद्ध कर दिखाया। श्रीराम सत्तासीन रहते हुए भी सदैव उससे उसी प्रकार निर्लिप्त रहे, जैसे अहर्निश जल में रहते हुए भी कमल पत्र उससे लिप्त नहीं होता। श्रीराम की इसी परम्परा को श्रीकृष्ण ने और आगे बढ़ाया। श्रीराम तो अपने जीवन में कुछ समय सत्ता पर आसीन भी रहे, लेकिन श्रीकृष्ण हमेशा सत्ता से दूर रहे। उन्होंने अन्य लोगों को तो सत्ता पर बिठाया, लेकिन स्वयं आराधना करते रहे। उनकी विनम्रता इस सीमा तक थी कि राजसूय यज्ञ में जब सभी को काम सौंपा गया तो श्रीकृष्ण ने लोगों को झूठी पत्तलें उठाने का जिम्मा खुद ले लिया। यह थी उनकी विनम्रता। इसी विनम्रता का परिणाम रहा कि सभी नरेशों के मुकुटमणि उनके चरणों पर अवनत होते रहे। उनके इन्हीं गुणों की वजह से आज भी हम उन्हें षोडश कलापूर्ण व्यक्ति मानते हैं। संपूर्ण भारत में प्राचीनकाल से अर्वाचीन काल तक किसी अन्य व्यक्ति को यह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका।
सत्ता से जो व्यक्ति दूर रहता है और दूर रहते हुए भी समूचे राष्ट्र को दिशा देता है, वही सच्चा राष्ट्रनायक होता है। राष्ट्रनायक का जीवन त्यागमय होता है। उसके जीवन में पदलिप्सा नहीं होती। भगवान श्रीराम को उनके पिता दशरथ ने सिंहासन सौंपा था। उस सिंहासन पर वे बने रह सकते थे। लेकिन वे सत्ता से अनासक्त थे। श्रीकृष्ण भी उसी परम्परा से जुड़ते हैं। उनके अंदर तीन गुण विशेष रूप से विद्यमान थे- त्याग, सत्ता से अनासक्ति तथा लोकशक्ति को संगठित करने की अद्भुत क्षमता। इन तीनों गुणों के कारण ही श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छानुसार युग परिवर्तन लाने में सफलता प्राप्त की। श्रीकृष्ण का वैचारिक धरातल व्यावहारिक धरातल से बहुत ऊंचा था। तथापि वे अपने वैचारिक और व्यावहारिक धरातल के बीच समन्वय इस तरह करते थे कि दोनों धाराएं एक-दूसरे में कहां विलीन होती हैं, उसका पता भी नहीं चलता।
श्रीकृष्ण का राष्ट्रनायक का चरित्र अत्यन्त दिव्य है। हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है। जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही श्रीकृष्ण है। वह एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृजवासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न थे। धर्म की साक्षात् मूर्ति थे। कुशल राजनीतिज्ञ थे।
श्रीकृष्ण का प्रशासनिक एवं राजनीतिक चरित्र अत्यन्त अलौकिक है, उनके समग्र विचार दर्शन का संक्षेप में केवल एक संदेश है- कर्म। कर्म के माध्यम से ही समाज की अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का शमन करके उनके स्थान पर वरेण्य प्रवृत्तियों को स्थापित करना संभव होता है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व असीम करुणा से परिपूर्ण है। लेकिन अनीति और अत्याचार का प्रतिकार करने वाला उनसे कठोर व्यक्ति शायद ही कोई मिले। जो श्रीकृष्ण अपने से प्रेम करने वाले के लिए नंगे पांव दौड़े चले जाते थे, वही श्रीकृष्ण दुष्टों को दण्ड देने के लिए अत्यंत कठोर और निर्मम भी हो जाते थे। गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही कहा था कि मोह वश होकर रहने का कोई लाभ नहीं। ये सगे संबंधी सब कहने को हैं, लेकिन तुम्हें अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म और भक्ति के प्रतिपादन पर बल देना है। श्रीकृष्ण के विषय में अनेक किंवदन्तियां और मिथक प्रचलित हैं। लेकिन समकालीन संदर्भ में उनका उचित और युक्तिसंगत ऐतिहासिक मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
श्रीकृष्ण ग्रामीण संस्कृति के पोषक बने हैं। उन्होंने अपने समय में गायों को अभूतपूर्व सम्मान दिया। वे गायों एवं ग्वालों के स्वास्थ्य, उनके खान-पान को लेकर सजग थे। उन्होंने जहां ग्वालों की मेहनत से निकाला गया माखन और दूध-दही को स्वास्थ्य रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया वही इन अमूल्य चीजों को ‘कर’ के रूप में कंस को देने से रोका। वे चाहते थे कि इन चीजों का उपभोग गांवों में ही हो। श्रीकृष्ण का माखनचोर वाला रूप दरअसल निरंकुश सत्ता को सीधे चुनौती तो था ही, लेकिन साथ ही साथ ग्रामीण संस्कृति को प्रोत्साहन देना भी था। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव-जन्माष्टमी पर आज भारत का निर्माण उनकी शिक्षाओं, जीवन-आदर्शों एवं सिद्धान्तों पर करने की अपेक्षा है, तभी हिन्दू सशक्त होंगे, तभी भारत सही अर्थों में हिन्दू राष्ट्र बन सकेगा।