लोकतंत्र में मतदाता ही चुनाव में दीपावली मनाते हैं। मतदाता ही लोकतंत्र के दीये जलाते हैं और मतदाता ही लोकतंत्र के दीये बझाते भी हैंै। जिस दल या नेता का दीया मतदाता जलाते देते हैं उसके घर पर दीपावली मनती है और जिसके घर के दीये मतदाता बुझा देते हैं उसके घर पर बीरानी छा जाती हैं।
चुनाव आयोग जैसे ही चुनाव की दीपावली जलाने की तिथि की घोषणा करता है। राजनीतिक दल और उनके नेता दीपावली का जश्न मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। इसके लिए प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार तक का काम शुरु कर दिया जाता है। इसके बाद शुरु होती है मतदाताओं को यह बतलाने का काम कि किस दिन दीपावली मनायी जायेगी। घर-घर जाकर उम्मीदवार मतदाताओं को बताते हैं कि अमुक दिन लोकतंत्र की दीवाली मनायी जायेगी। उम्मीदवार मतदाताओं को यह भी बताते हैं कि दीपावली मनाते वक्त किस तरह की सावधानी बरतने की जरूरत है। सावधानी बताते वक्त वे यह भी बताते हैं कि किस दल के उम्मीदवार की क्या कथनी और करनी रही है। किस दल ने मतदाताओं के लिए कार्य किया है और किसी दल ने मतदाताओं के लिए कार्य नहीं किया है।
लोकतंत्र के दीये जलाने के लिए महंगाई, बेरोजगारी, नाली, सड़क, चिकित्सा व्यवस्था, युवा, महिलाएं और लोगों की समस्याएं टूल्स का कार्य करती हैं। अगर ये टूल्स न रहें तो लोकतंत्र के दीये जल ही नहीं सकते हैं। नेता या उम्मीदवार इन्हीं टूल्स के भरोसे दीये जलाने वाले मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ये ऐसे टूल्स है जो कभी खत्म हो ही नहीं सकते। अगर ये टूल्स खत्म हो जायें तो फिर लोकतंत्र के दिये जलेंगे कैसे। इसलिए नेता हमेशा इन टूल्स को जिंदा रखने का काम करते हैं। उम्मीदवार जब भी मतदाताओं के घर पर जाते हैं तो वे जानते हैं कि मतदाता उन्हें देखकर भड़केगा जरूर।
इसके लिए वे उन्हें आश्वासन की घुट्टी पिलाते हैं ताकि मतदाता उन्हें मत देकर उनका दीया जला सके। अगर मतदाता उम्मीदवार के झांसे में आ जाता है तो वह उम्मीदवार के दीये जा देता है। अगर झांसे में नहीं आता है तो उसके दीये को बुझा देता है। नेता कहते हैं झ्हमने चहुंमुख दीये जलाये, न जाने किस पथ से लक्ष्मी आ जाये।’ इसका मतलब है कि लोकतंत्र की दीपावली में नेता अपने चुनाव क्षेत्र में घूम-घूमकर मतदाताओं को रिझाते हैं यानी आश्वासन के दीये बांटते हैं ताकि वे मतदान के दिन इवीएम पर बटन दबाकर उनके पक्ष में दीये जला सकें।
इवीएम पर बटन दबते ही लोकतंत्र के धनतेरस और दीपावली का त्यौहार संपन्न हो जाता हैं। इस दिन मतदाता के साथ-साथ चुनाव आयोग और अन्य लोग धनकुबेर की जमकर पूजा करते हैं। चुनाव आयोग मतदान की व्यवस्था करने में धन खर्च करता है तो राजनीतिक दल बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं पर खर्च करते है। इस प्रकार लोकतंत्र में मतदान के दिन दीपावली और धनतेरस का त्यौहार संयुक्त रूप से मनाया जाता है।
अगर मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली का कोई मतलब नहीं रह जाता है। लोकतंत्र की दीपावली मनाने के लिए मतदाताओं की जरूर वैसे ही पड़ती है जैसे दीये को जलाने के लिए तेल की। अगर तेल न हो तो दीये जल नहीं सकते। मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली भी मन नहीं सकती। लोकतंत्र की दीपावली मनते ही मतदाताओं और ईवीएम का वहीं हस्र होता है जैसे दीपावली के बाद मिट्टी के दीये का होता है। दीपावली के दूसरे दिन न दीये की जरूरत पड़ती है और न मतदान के दूसरे दिन मतदाताओं की कोई अहमियम रह जाती है। दोनों ही भुला दिये जाते हैं। दीयों को लोग उठाकर फेंक देते हैं तो मतदाताओं की कोई की कोई सुधी लेने वाला नहीं रहता। इसके बाद मतगणना के दिन छोटी दीपावली मनायी जाती है। इसके मतदाताओं कोई जरूरत नहीं पड़ती। इसका जष्न सिर्फ दल के कार्यकर्ता या नेता मनाते हैं।