सदियों से भारत वर्ष की यह पावन धरा ज्ञानी-ध्यानी, ऋषि-मुनियों एवं सिद्ध साधक संतों द्वारा चलायी गई उस संस्कृति की पोषक रही है, जिसमें भौतिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक आनंद, सेवा एवं परोपकार की भागीरथी भी प्रवाहित होती रही है। संबुद्ध महापुरुषों ने, साधु-संतों ने समाधि के स्वाद को चखा, सेवा एवं करुणा से आप्लावित हुए और उस अमृत रस को समस्त संसार में बांटा। कहीं बुद्ध बोधि वृक्ष तले बैठकर करुणा का उजियारा बांट रहे थे, तो कहीं महावीर अहिंसा का पाठ पढ़ा रहे थे। यही नहीं नानकदेव जैसे संबुद्ध लोग मुक्ति की मंजिल तक ले जाने वाले मील के पत्थर बने तो मदर टेरेसा ने सेवा एवं मानव कल्याण की गंगा को प्रवहमान किया। यह वह देश है, जहां वेद का आदिघोष हुआ, युद्ध के मैदान में भी गीता गाई गयी, वहीं कपिल, कणाद, गौतम आदि ऋषि-मुनियों ने अवतरित होकर मानव जाति को अंधकार से प्रकाश पथ पर अग्रसर किया। बीसवीं सदी के भाल पर मदर टेरेसा सच्ची मां बनकर प्रस्तुत हुई और उनके मानवता के प्रति योगदान को पूरी दुनिया जानती है। इसके साथ ही यह आधुनिक संत बीमार और असहाय लोगों के प्रति अपने करूणामयी व्यवहार के लिए भी जानी जाती हैं।
जब हम मदा टेरेसा बारे में बात करते हैं तो हम उनके सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक कार्य को याद करते हैं, जो थी कुष्ठता के कलंक के खिलाफ उनकी लड़ाई। कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों के प्रति हर जगह भेदभाव देखा गया था, लेकिन मदर टेरेसा ने उनके साथ अपनों जैसा व्यवहार किया। इस तरह की उनकी दया और करूणा की भावना ने दुनिया का एक सीख दी है। सचमुच वे मां थी। मदर टेरेसा ने यूगोस्लाविया से निकल कर भारत में अपने सेवाभाव से जुड़े कार्यक्रम की शुरुआत की और विश्व भर में इसके सफल संचालन से लोगों के बीच मां का दर्जा पाया। 12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने हृदय की आवाज पर समाज को अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया था। वे मानव बनकर संसार में आई, लेकिन अपने सतत गतिशील मानव सेवा के कामों से महामानव बन गयी। उनके जीवन की कहानी आकाश की उड़ान नहीं है। उनके स्वर कल्पना की लहरियों से नहीं उठे थे, बल्कि अनुभूति की कसौटी पर खरे उतरकर हमारे सामने आए थे। जिसकी पृष्ठभूमि में विजय का संदेश है। वह विजय थी-अंधकार पर प्रकाश की, असत् पर सत् की, मानव उत्थान की और पीडित मानव मन पर मरहम की। वे दया और करूणा का शंखनाद थी।
‘शांति की शुरुआत मुस्कुराहट से होती है।’ इस विचार में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा यानी एग्नेस गोंझा बोयाजीजू का जन्म यूगोस्लाविया के एक साधारण व्यवसायी निकोला बोयाजीजू के घर 26 अगस्त 1910 में हुआ था। वह 18 वर्ष की आयु में 1928 में भारत के कोलकाता शहर आईं और सिस्टर बनने के लिए लोरेटो कान्वेंट से जुड़ीं और इसके बाद अध्यापन कार्य शुरू किया। उन्होंने 1946 में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान अपने मन की आवाज पर लोरेटो कान्वेट की सुख सुविधा छोड़ बीमार, दुखियों और असहाय लोगों के बीच रह कर उनकी सेवा का संकल्प लिया। उन्होंने एक दशक तक कोलकाता के झुग्गी में रहने वाले लाखों दीन दुखियों की सेवा करने के बाद वहां के धार्मिक स्थल काली घाट मंदिर में एक आश्रम की शुरुआत की। उस वक्त उनके पास सिर्फ पांच रुपये ही थे लेकिन उनका आत्मबल ही था जिससे उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चौरिटी’ की शुरुआत की और आज 133 देशों में इस संस्था की 4,501 सिस्टर मदर टेरेसा के बताए मार्ग का अनुसरण कर लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं।
मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले। ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था जिन्हें समाज ने तिरस्कृत कर दिया हो। ‘निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई। समाज के सबसे दलित और उपेक्षित लोगों के सिर पर अपना हाथ रख कर उन्होंने उन्हें मातृत्व का आभास कराया और न सिर्फ उनकी देखभाल की बल्कि उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए भी प्रयास शुरू किया। सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई। उनके आश्रम का दरवाजा हर वर्ग के लोगों के लिए हमेशा खुला रहता था। उन्होंने अपने कार्यक्रम के जरिए गरीब से गरीब और अमीर से अमीर लोगों के बीच भाईचारे और समानता का संदेश दिया था। उन्होंने किसी भी धर्म के लोगों के बीच कोई भेद नहीं किया।
मदर टेरेसा ने भारत में कार्य करते हुए यहां की नागरिकता के साथ सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्राप्त (1980) किया। समाज में दिए गए उनके अद्वितीय योगदान की वजह से उन्हें पद्मश्री (1962), नोबेल शांति पुरस्कार (1979) और मेडल ऑफ फ्रीड़ा (1985) प्रदान किए गए। उन्होंने भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में अछूतों, बीमार और गरीबों की सेवा की। मदर ने नोबेल पुरस्कार की धन-राशि को भी गरीबों की सेवा के लिये समर्पित कर दिया। हमारे लिए मदर टेरेसा भी एक ईश्वरीय वरदान थीं। भारतीय जनमानस पर अपने जीवन से उदाहरण के तौर पर उन्होंने ऐसे पदचिन्ह छोड़े हैं, जो सदियों तक हमें प्रेरणा एवं पाथेय प्रदत्त करते रहेंगे। क्या जात-पांत, क्या ऊंच-नीच, क्या गरीब-अमीर, क्या शिक्षित-अनपढ़, इन सभी भेदभावों को ताक पर रख कर मदर ने हमें यह सिखाया है कि हम सभी इंसान हैं, ईश्वर की बनाई हुई सुंदर रचना हैं और उनमें कोई भेद नहीं हो सकता। उनका विश्वास था कि अगर हम किसी भी गरीब व्यक्ति को ऊपर उठाने का प्रयत्न करेंगे तो ईश्वर न केवल उस गरीब की बल्कि पूरे समाज की उन्नति के रास्ते खोल देगा। वे अपने सेवा कार्य को समुद्र में सिर्फ बूंद के समान मानती थीं। वह कहती थीं, ‘मगर यह बूंद भी अत्यंत आवश्यक है। अगर मैं यह न करूं तो यह एक बूंद समुद्र में कम पड़ जाएगी।’ सचमुच उनका काम रोशनी से रोशनी पैदा करना था।
से आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गों की देखभाल करने वाली संस्था के साथ जुड़ गयी। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहमपट्टी की और उनको दवाइयां दीं। धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। मदर टेरेसा ने समय-समय पर भारत एवं दुनिया के ज्वंलत मुद्दों पर असरकारक दखल किया, भ्रूण हत्या के विरोध में भी सारे विश्व में अपना रोष दर्शाया एवं अनाथ-अवैध संतानों को