भारतीय संस्कृत और राष्ट्रवाद नहीं है

विश्व इतिहास में भारतीय संस्कृति का वही स्थान और महत्व है जो संख्या द्वीपों के सम्मुख सूर्य का है।” भारतीय संस्कृति अन्य विविधताओं से सर्वथा विशेषण और परिक्रमा है। अनेक देशों की संस्कृति समय-समय पर नष्ट हो रही है, भारतीय संस्कृति आज भी अपने अस्तित्व में है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति के इतिहास में सबसे प्राचीन भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता के कई पाश्चात्य विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और कहा है।

भारतीय दर्शन, आध्यात्मिक ज्ञान और शिक्षा तथा समय-समय पर भारत की धरती पर जन्म लेने वाले उन महापुरुषों, सुधारकों और नवयुग के दीक्षार्थियों के लोग लोगों से मानवता के व्यापक हितधारी अपनी दैनिक प्रवृत्ति को अपने व्यवहार को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत पर आधारित करने का आग्रह किया। उन्होंने राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयता का पहला चरण घोषित किया और लोगों को संपूर्ण विश्व की समृद्धि और कल्याण के उद्देश्य से इसे मजबूत करने के लिए प्रेरित किया। इसलिए, भारत की राष्ट्रवाद की कल्पना नहीं है, या इसमें प्रकृति असहिष्णु नहीं है। जो लोग भारतीय राष्ट्रवाद को स्पेक्ट्रम के नजरिए से देखते हैं या इसे अलग-अलग प्रोजेक्ट मानते हैं, उन्हें इसकी असलियत को उजागर करना चाहिए। उन्हें इसकी रूट्स में जाना चाहिए।

भारत अंतर्राष्ट्रीयता या सार्वभौमिकता के लिए प्रतिबद्ध देश है। यह डेढ़ हज़ार साल पुराना है और इसे भारत के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के प्राचीन नारे के माध्यम से अच्छी तरह से स्वीकार और समझा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सहस्त्रों वर्ष पुराना समरसतापूर्ण एवं विकासवादी भारतीय संस्कृति भी अपने पालन-प्रबोधन करने वाले भारतीयों की प्रकृति द्वारा अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रति अपनी वचनबद्धता को स्पष्ट रूप से दोहराती है।

जब हम वसुधैवकुटुम्बकम कहते हैं तो भारतीय संस्कृति की क्या भूमिका है?

जी 20 लोगो और संसद भवन में अंकित सूक्तियो में वसुधैव कुटुंबकम की उदाहरण

संसद एक ऐसा स्थान है जहाँ राष्ट्र की समग्र क्रियाकलापों पर चर्चा होती है और उसका भावव्यावता को रूप प्रदान किया जाता है। इस सम्‍माननीय निकायों के पर्यालोचन प्रकृतिश: सत्‍य एवं साधुत्‍व की उच‍च परंपराओं से प्रेरित हैं।

संसद भवन में सूक्तियां अंकित होती हैं जो दोनों सभाओं के कार्य में पथ प्रदर्शन करती हैं और किसी भी आगन्तुक का ध्यान उनकी ओर आक्षेपित बिना नहीं रह सकती हैं।

भवन के मुख्य द्वार पर एक संस्कृत उद्धरण अंकित है जो हमें राष्ट्र की प्रभुता की स्मरण दिलाता है जिसका संकल्प संसद है। द्वार संख्या 1 पर विशिष्ट शब्द अंकित हैं:

लो 3 कद्दारमपावा 3 अर्न 33
पश्येम त्वां वयं वेरा 33333
(
हुं 3 ) 33 जया 3 यो 3
32111 इति।

(छंदो. 2/24/8)

इसका हिन्दी अनुवाद है:-

द्वार खोल दो, लोग के हित,
और दिखाओ दो आशा।
इसलिए अहो app हो जाओ,
सार्वभौम प्रभुता की।

(छंदो. 2/24/8)

भवन में प्रवेश करने के बाद लिफ्ट नंबर 1 के पास दहिनी ओर आपको हाउस ऑफ धनेशाकार बाहरी लॉबी दिखाई देगा। इस लॉबी के ठीक मध्य से एक द्वार आंतरिक लॉबी को जाता है और इसके सामने एक द्वार केंद्रीय कक्ष जाता है जहां आगंतुक को दो शिलालेख दिखाई देंगे।

आंतरिक लॉबी के द्वार पर द्वार संख्या 1 वाला भित्तिचित्र लेख ही दोहराया गया है। मुड़ते ही सेन्ट्रल हॉल के मार्ग के गुम्बद पर अरबी का यह संशोधन दिखाई देता है जिसका अर्थ यह है कि लोग स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। वह उद्धरण इस प्रकार है:-

अंत में ला युगयरो मा बिकौमिन।
हट्टा युगयरो वा बिन नफसे हुम।।

एक उर्दू कवि ने इस विचार को इस प्रकार व्यक्त किया है:-

खुदा ने आज तक उस काम की हालत नहीं शाली,
एन हो ख्याल खुद ऐन हालत बदलना का।

सभापति के शपथ के ऊपर यह शब्द अंकित है:-

धर्मचक्रप्रवर्तनाय

धर्म परायणता के चक्रावर्तन के के लिए

अतीत काल से ही भारत के शासक धर्म के मार्ग को ही मानकर उस पर चल रहे हैं और उसी मार्ग का प्रतीक धर्मचक्र भारत के राष्ट्र ध्वज और राज चिह्न पर कब्जा है।

जब हम संसद भवन के द्वार 1 से केंद्रीय कक्ष की ओर बढ़ते हैं तो उस कक्ष के द्वार के ऊपर पंचतंत्र के बाद संस्कृत श्लोक की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है:-

अयं निजः परोवेती गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

(पंचकोश 5/38)

हिन्दी में इस श्लोक का अर्थ है:-

यह निज, यह पर, डाकिया,
संकुचित विचार है।
उदारियों के के लिए
अखिल विश्व परिवार है।

(पंचकोश 5/38)

अन्य सूक्तियां जिनमें से कुछ स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं, लिफ्टों के निकट गुम्बदों पर अंकित हैं। भवन की पहली मंजिल से ये लेख स्पष्ट रूप से दिखाते हैं।

लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-

एन सा सभा यत्र एन सन्ति वृद्धा,
वृद्धा एन ते हाँ एन वदंती धर्मम्।
धर्म नहीं यत्र एन सत्यमस्ति,
सत्यं एन तद्यच्छलमभ्युपति।।

(महाभारत 5/35/58)

इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध एन हाँ,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्म के अनुसार एन बोलें,
कहाँ सच एन हो वह धर्म नहीं है,
जिसमें छल हो वह सच नहीं है।

(महाभारत 5/35/58)

यह सूक्ति और लिफ्ट संख्या 2 के निकटवर्ती गुम्बद का शिलालेख लेख दो धर्ता गुणों – सत्य और धर्म पर जोर देते हैं कि वास्तविकता का पालन करना चाहिए।

लिफ्ट नंबर 2 के निकटवर्ती गुम्बद पर यह सूक्ति अंकित है:-

सभा वा एन प्रवेष्टव्या,
बयानं वा संजसम्।
अबरुवन् विब्रूवन वापि,
नरो भवति किल्विषी।।

(मनु 8/13)

इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

नहीं व्यक्ति या तो सभा में प्रवेश ही एन करे ओआरजी यदि वह ऐसा करे तो उसे वहाँ धर्म के अनुसार खिलना चाहिए, क्योंकि एन बोलना वाला ओआरजी सत्य बोलना वाला आदमी दोनों ही ठीक है रूप से पापा के भागी रहे हैं।

लिफ्ट संख्या 3 के निकटवर्ती गुम्बद पर संस्कृत में यह सूक्ति अंकित है:-

एन हीदृशं संवननं,
त्रिषु लोकेषु विद्यते।
दया मैत्री भूतेषु,
दानं मधुरा वाक्।।

इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

जीव पर दया और उन्हें मैत्री , दान करने की क्षमता तथा वाणी, इन सबका कंपोनेंट एक व्यक्ति में तिकड़ी लोग में नहीं मिलते हैं।

लिफ्ट संख्या 4 के निकटवर्ती गुम्बद के संस्कृत के शिलालेख लेख में भी अच्छे शासक के गुणों का वर्णन है। पोस्ट लेख इस प्रकार है:-

सर्वदा, भन्नृपः प्राज्ञः,
स्वमते एन कदाचन।
संगीाधिकारीप्रकृति,
सभासत्सुमते स्थितः।।

इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

शासक सदा समझदार होना चाहिए,
परन्तु उसे स्‍वेच्‍छाचारी कदापि नहीं होना चाहिए,
उसे सब चीज़ें में मिनिस्टर की सलाह लेन चाहिए,
सभा में बैठो चाहिए और शुभ मंत्र के अनुसार फलक चाहिए।

अंततः संख्या लिफ्ट 5 के निकटवर्ती गुम्बद पर फारसी का यह लेख लेख है:-

बरी रूवाके जेबर्जद नविष्ठा और बर्ज,
जज निकोईअहले करम नख्वाहद् मांड।।

इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

यह गौरवपूर्ण मरकत मणि ठीक है भवन में यह स्वर्णाक्षर अंकित हैं। दानशीलों के शुभ काम के अतिरिक्त और नहीं तथ्य धरता नहीं रहना।

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By – प्रेमेंद्र अग्रवाल @premendraind

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