काँग्रेस ने आखिर 21 वीं सदी का पहला नया लोकतांत्रिक अध्यक्ष चुन ही लिया जो गाँधी
परिवार के बाहर का है। यह जबरदस्त प्रचार और बेहद शांति के साथ आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई
के नाम पर हुआ। वह भी तब जब गाँधी परिवार का वारिस (जैसा दिखता है) 42 दिन से दिल्ली से
बाहर है और पैदल-पैदल भारत जोड़ो यात्रा पूरी कर रहा है। बेशक पार्टी बेहद मुश्किल दौर में है,
जनाधार तेजी से गिरा है, भविष्य क्या होगा इसको लेकर अनिश्चितता है। पार्टी में तेजी से फूट,
गुटबाजी और बिखराव के बीच एक बड़ा संदेश देने की कोशिश कितनी कामियाब होगी यह वक्त
बताएगा। अब काँग्रेस पार्टी का चुनौतियों से भरा ताज 80 बरस के मल्लिकार्जुन खड़गे के माथे
पर है जिनका अनुभव भरा 55 साल का राजनीतिक सफर है। वो गाँधी परिवार के बेहद विश्वासी
हैं। लेकिन यह भी जगजाहिर है कि गाँधी परिवार के बाहर के तमाम अध्यक्ष अपने अच्छे रिश्तों
के चलते पार्टी अध्यक्ष तक पहुंचे जरूर लेकिन धीरे-धीरे कड़वाहट बढ़ती गई और देर-सबेर हटना
या हटाना ही पड़ा। गिनाने की जरूरत नहीं सबको पता है कि के कामराज से लेकर सीताराम
केसरी तक गैर नेहरू-गाँधी अध्यक्षों को कैसे-कैसे दौर से गुजरना पड़ा। बहरहाल तब और अब में
फर्क तो दिखता है। हो सकता है कि परिस्थितियां इसके लिए मजबूर करें कि वैसी पुनरावृत्ति न
हो।
काँग्रेस का इतिहास देखें तो 137 साल के सफर में छठवी बार पार्टी अध्यक्ष का चुनाव
हुआ है। बांकी वक्त पार्टी की कमान नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में या फिर सर्वसम्मत चुने
अध्यक्ष के पास रही। इस बार भी पहले की तरह गाँधी परिवार ने साफ कर दिया था कि वो इस
दौड़ में नहीं है। उसके बाद जिस तेजी से अशोक गहलोत का नाम उभरा और मुख्यमंत्री की कुर्सी
के मोह में पिछड़ा तब से मल्लिकार्जुन खड़गे बहुत तेजी से सामने आए और शशि थरूर उनके
प्रतिद्वन्दी बने। जीत गाँधी परिवार के वरदहस्त प्राप्त मल्लिकार्जुन खड़गे को मिली। जीतते ही
उन्होंने सोनिया गाँधी से मिलने का वक्त मांगा। हुआ उल्टा शाम को बधाई देने खुद सोनिया
गाँधी उनके घर पहुंची और बड़ा संदेश दे डाला। इससे पहले थरूर ने पहले उप्र में चुनाव में
धांधली का आरोप लगाया बाद में खुद ही बड़ा दिल दिखाते हुए खड़गे को मुबारकबाद देने उनके
घर जा पहुँचे। निश्चित रूप से यह पार्टी के लिहाज से सकारात्मक कहा जाएगा लेकिन सवाल
फिर वही कि खड़गे का नेतृत्व काँग्रेस को कितना आगे ले जाएगा?
थोड़ा अतीत में भी झांकना होगा। 1964 से 1967 तक के दौर में काँग्रेस दिग्गजों को
सरकार से इस्तीफा दिलाकर संगठन में ला पार्टी को मजबूत करने वाला ‘कामराज प्लान’ अपने
आप में अलग था। इसकी शुरुआत 1963 में खुद से ही की जब कामराज ने तमिलनाडु के
मुख्यमंत्री के पद से स्तीफा देकर उदाहरण पेश किया। इसी कारण और कई राज्यों में मुख्यमंत्रियों
और केंद्रीय मंत्री भी इस्तीफे को विवश हुए। नेहरू जी की मृत्यु के बाद इन्हीं ने इंदिरा गांधी को
प्रधानमंत्री बनाने में बड़ी राजनीतिक बिसातें बिछाईं और कामियाब भी हुए। लेकिन एकाएक कई
मतभेदों के चलते दोनों के रिश्ते बिगड़ते चले गए। इसी चलते 1969 में काँग्रेस दो टुकड़े हो गई।
सिंडिकेट के नियंत्रण वाला धड़ा कांग्रेस (ओ) हो गया और इंदिरा के नेतृत्व वाला धड़ा कांग्रेस
(आर) बन गया जो मौजूदा कांग्रेस है। दो साल बाद 1971 में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ
तमिलनाडु विधानसभा चुनाव भी हुए। इसमें कामराज अपने गुट की तरफ से मुख्यमंत्री के दावेदार
थे। इधर इंदिरा गांधी ने भी जबरदस्त चाल चली उन्होंने द्रविण मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के एम
करुणानिधि के साथ मिलकर खेला कर दिया। इन्दिरा कांग्रेस ने डीएमके से गठबंधन कर लिया
और विधानसभा चुनाव में ही नहीं उतरी। उल्टा लोकसभा चुनाव खातिर डीएमके से सीटों का
समझौता कर लिया और कामराज का मुख्यमंत्री बनने का सपना चूर-चूर कर दिया। इसी के बाद
तमिलनाडु में ऐसे हालात बनते गए कि काँग्रेस खुद हासिए पर चली गई।
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद के हालात भी देखने होंगे। हत्या पहले चरण के
बाद हुई जिसके नतीजे कांग्रेस के लिए अच्छे नहीं थे। लेकिन बाद के चरण में सहानुभूति के
चलते 232 सीटें जीतकर काँग्रेस बड़ा दल बनी फिर भी बहुतमत से पीछे रह गई। उसी समय
सोनिया गाँधी को आगे आने के लिए खूब जोर आजमाइश हुई। लेकिन वो तैयार नहीं हुईं। आखिर
में नरसिम्हा राव के नाम पर मुहर लगी जिन्होंने पूरे 5 साल गठबन्धन की सरकार चलाई और
पार्टी भी संभाली। बतौर पार्टी अध्यक्ष अपनी मनमर्जी से
संगठन चलाने और प्रधानमंत्री के रूप में
देश चलाने से उनके गाँधी परिवार से रिश्ते बिगड़ने लगे। नरसिम्हा राव ने डूबती अर्थव्यवस्था को
उदारीकरण के जरिए बचाया था। 1996 में भ्रष्टाचार के मामले में उन्हें काँग्रेस अध्यक्ष पद
छोड़ना पड़ा। सीताराम केसरी को भी गाँधी परिवार ने बड़े जोश-खरोश से अध्यक्ष बनाया था
लेकिन संबंध ज्यादा दिनों तक नहीं निभे। कई नेताओं और सलाहकारों के द्वारा लगातार कान
भरे जाने से हमेशा गाँधी परिवार के विश्वासी और भक्त माने जाने वाले केसरी भी आँखों की
किरकिरी बन गए। अंततः 5 मई 1998 को अपनी ही बुलाई काँग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में
उन्हें पार्टी की बदहाली का हवाला दिया गया और सोनिया गाँधी को अध्यक्ष बनाने की सिफारिश
को कहा गया। केसरी ने इसे क्या ठुकराया उन्हें भी जबरदस्त अपमान का सामना झेलना पड़ा।
वो बीच बैठक से चले गए और प्रणव मुखर्जी ने वरिष्ठता के नाते आगे अध्यक्षता की जिसमें दो
प्रस्ताव पास हुए। एक में सीताराम केसरी को उनके कार्यकाल के लिए आभार जताया तो दूसरे में
सोनिया गाँधी से अध्यक्ष पद स्वीकारने की अपील की गई। साल भर बाद एक बैठक में पहुंचने
पर केसरी के कुर्ता फाड़ने व अपमानित करने की बातें सबने देखीं।
नए काँग्रेस अध्यक्ष 6 भाषाओं के जानकार हैं। मूलतः दक्षिण भारत से होकर भी हिन्दी
भाषा में जबरदस्त दखल रखते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले दूसरे महादलित नेता हैं। 1971 में
बाबू जगजीवन राम पहले अध्यक्ष बने थे। दो बार सांसद और 9 बार लगातार विधायक रहने वाले
खड़गे ने 2009 गुलबर्गा लोकसभा चुनाव जीत लगातार दसवीं जीत हासिल की। 2014 में मोदी
लहर के बावजूद वो गुलबर्गा लोकसभा चुनाव जीते। लेकिन 2019 में मोदी की सुनामी के आगे
वो गुलबर्गा लोकसभा चुनाव हार गए। 12 चुनाव लड़ने के दौरान यह उनकी पहली हार थी।
अब देखना होगा कि इस दौर में जब मीडिया और सोशल मीडिया बेहद सशक्त है,
मल्लिकार्जुन खड़गे काँग्रेस को कहां तक ले जा पाते हैं। आज भी कुछ को छोड़ तमाम काँग्रेसी
दिग्गज बड़ी बहसों, जनसंवादों में नदारत दिखते हैं। अखबारों में लेख लिख जान फूंकने की
कोशिशें तो दूर, टीवी के फ्रेम में आने से भी डरते हैं। लेकिन खुद को सत्ता से बाहर हुआ मानने
को तैयार नहीं! व्यव्हार, आचरण में वही खनक वही रौब। जिनकी वार्ड चुनाव जीतने की औकात
नहीं वो बड़े पदाधिकारियों की चाटुकारिता कर, विज्ञप्तिवीर बन संगठन में बरसों से काबिज हैं।
क्या ऐसे चाटुकारों का भी हिसाब-किताब किया जाएगा? चंद हफ्तों बाद होने वाले हिमांचल और
गुजरात चुनाव में काँग्रेस की स्थिति किससे छिपी है।
हां, एक सबसे बड़ा सवाल उभर रहा है कि राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा का
12 राज्यों से होकर 3570 किलोमीटर लंबा सफर मुकर्रर है। जिसमें खड़गे के
अध्यक्ष बनने तक वो 1250 किलोमीटर तय कर चुके हैं। बेशक इससे काँग्रेस की
स्थिति मजबूत होगी और उमड़ते जनसैलाब के संकेत सुकून भरे हैं। वहीं खड़गे को
लेकर राहुल का बयान कि उनकी भूमिका नए अध्यक्ष तय करेंगे और वो खड़गे जी
को रिपोर्ट करेंगे के कई मायने हो सकते हैं। जब यात्रा शुरू की थी तब सोनिया गाँधी
अंतरिम अध्यक्ष थीं जब तक यात्रा का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा तय किया तो मल्लिकार्जुन
अध्यक्ष हो गए। एक सवाल स्वाभाविक है जो सबके मन में है कि पार्टी में अव्वल कौन दिखेगा
राहुल, खड़गे या सोनिया? लोकतंत्र की मजबूती की खातिर सशक्त विरोधी दल देश के लिए जरूरी
है। अच्छा होता इस बार काँग्रेस आपसी विरोध न दिखा विरोधियों को अपनी ताकत दिखाती।
कुछ भी हो लोगों में इसको लेकर उत्सुकता और वक्त का इंतजार है कि हैसियत में कौन
ताकतवर होगा 10 राजाजी मार्ग (खड़गे निवास) या 10 जनपथ (सोनिया निवास)?