पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों के बीच हाथापाई और नेता प्रतिपक्ष समेत पांच भाजपा विधायकों के निलंबन की घटना एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार कर गई। भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, इसको सशक्त बनाने की बात सभी राजनैतिक दल करते हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हैं पर सत्ता-संचालन एवं विधायी कार्रवाही में सारी मर्यादाओं एवं लोकतांत्रिक मूल्यों पर ताक पर रखकर एक ही संस्कृति-हिंसा एवं अराजकता की संस्कृति को अपना लेते हैं। पश्चिम बंगाल के विधानसभा में हिंसा का जो तांडव हुआ उससे न केवल भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरा आघात लगा है, बल्कि आमजनता को भी भारी हैरानी हुई है। पश्चिम बंगाल में न केवल सार्वजनिक जीवन में बल्कि सदन में हो रही हिंसा की घटनाएं गहन चिन्ता का विषय है। डर, भय, खौफ एवं हिंसा की बुनियाद पर शासन की पद्धति चिन्ताजनक है। यह सब लोकतांत्रिक एवं अभिव्यक्ति की सर्वोच्च प्रक्रिया की गरिमा और महत्ता को समाप्त करने का प्रयास है।
बीरभूम की हिंसा को लेकर नाराज विपक्ष मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था, क्योंकि उनके पास गृह मंत्रालय भी है। इसी दौरान सत्ता पक्ष के विधायक भी आक्रामक हो उठे और यह अशोभनीय घटना घट गई। यह सिर्फ पश्चिम बंगाल विधानसभा की बात नहीं है, देश की लगभग तमाम विधायी संस्थाओं में हर कुछ अंतराल पर ऐसे अशोभनीय दृश्य उपस्थित होने लगे हैं और इस तरह लोकतंत्र को तार-तार करने की घटनाओं को लेकर तमाम भारतीयों का चिन्तीत होना भी स्वाभाविक है। आखिर बीरभूम की जिस भयावह घटना ने सारे देश को झकझोर दिया हो, उस पर विधानसभा में चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए थी? इससे विडम्बनापूर्ण बात और कोई नहीं कि सत्तापक्ष के सदस्यों ने न केवल चर्चा से इन्कार किया, बल्कि चर्चा की मांग कर रहे भाजपा विधायकों से मारपीट भी की, इन शर्मनाक दृश्यों को टीवी चैनलों पर समूचे देश ने देखा। आम तौर पर विधानसभाओं में हंगामा, धक्कामुक्की और मारपीट करने का आरोप विपक्ष पर लगता है, लेकिन बंगाल विधानसभा में इस आरोप के दायरे में सत्तापक्ष के सदस्य भी हैं। यह बात और है कि इस हिंसा के लिए केवल भाजपा विधायकों को जिम्मेदार माना गया और उनमें से पांच को साल भर के लिए निलंबित भी कर दिया गया। ऐसी घटनाएं केवल लोकतंत्र को शर्मिदा ही नहीं करतीं बल्कि राजनीतिक दलों के बीच कटुता एवं द्वेष भी बढ़ाती हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बंगाल का राजनीतिक वातावरण लगातार विषाक्त एवं विसंगतिपूर्ण होता जा रहा है। वास्तव में इसी कारण वहां राजनीतिक हिंसा का सिलसिला थम नहीं रहा है।
विधानसभा में जो अनहोनी घटी, उसका कारण ममता और उनके दल के विधायक हैं। क्योंकि ममता सरकार बीरभूम की दिल दहलाने वाली घटना पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं थी। यह भी किसी से छिपा नहीं कि वह इस घटना की सीबीआइ जांच भी नहीं चाह रही थी। जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दी तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह कहते हुए एक तरह से उसे धमकी दे दी कि अगर जांच सही तरीके से नहीं की गई तो वह सड़कों पर उतरेंगी। यह दादागिरी ही नहीं, बल्कि हिंसक मानसिकता है। प्रश्न है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय को बंगाल पुलिस पर भरोसा होता तो वह घटना की जांच सीबीआइ के हवाले करता ही क्यों? उसका भरोसा टूटने का कारण विधानसभा चुनावों के बाद हुई भीषण हिंसा में बंगाल पुलिस ने उस दौरान हिंसक तत्वों की घोर अनदेखी एवं पक्षपात किया था। यह अनदेखी बीरभूम की घटना के मामले में भी देखने को मिल रही और कोई भी समझ सकता है कि इसी कारण तृणमूल कांग्रेस यह नहीं चाह रही थी कि विधानसभा में इस विषय पर चर्चा हो। अपने अक्षम्य अपराधों को ढ़ंकने की इन कुचेष्टाओं पर आखिर नियंत्रण कैसे स्थापित होगा।
सत्ता पक्ष की नाकामियों एवं त्रासद स्थितियों पर रचनात्मक आलोचना ही लोकतंत्र की जीवंतता का द्योतक है। यह किसी भी विपक्ष का पहला सांविधानिक दायित्व है और पश्चिम बंगाल विधानसभा में भाजपा विधायकों को यह अधिकार है कि वे किसी शासकीय चूक पर, प्रशासनिक लापरवाही पर सरकार से जवाब-तलब करें। स्वस्थ चर्चा एवं आलोचना क्यों हिंसा का कारण बन जाती है? इस तरह की हिंसा का वातावरण बनना भारतीय लोकतंत्र के आगे सबसे गंभीर चुनौती है। विडंबना यह है कि हमारे जन-प्रतिनिधियों के लिये लोकतांत्रिक प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसा प्रशिक्षण सदस्यों को संसदीय कार्यों की बारीकियां ही नहीं सिखाते, बल्कि सदन के भीतर आचरण के विभिन्न पहलुओं से भी अवगत कराते हैं। इतना ही नहीं, सदनों के भीतर संसदीय दल के नेताओं ने भी अभिभावकीय भूमिका छोड़ दी है। इसलिए शाब्दिक तकरार शारीरिक दुर्व्यवहार तक पहुंचने लगी है। इन सबसे जनता की नजरों में जन-प्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा को कितनी चोट पहुंच चुकी है, इसे बार-बार दर्ज कराने की भी आवश्यकता नहीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ममता के विधायकों ने विधानसभा में खून का खेल खेला है, अपनी सत्ता एवं अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। पश्चिम बंगाल विधानसभा की ताजा हिंसक घटना ने एक बार फिर देश के तमाम राजनीतिक दलों को यह बात याद दिलायी है कि सफल एवं आदर्श लोकतंत्र वही है जिसमें सिर्फ शोर-गुल, हाथापायी एवं मारपीट से नहीं, कहकहों, गले मिलकर, शांति-सौहार्दपूर्ण वातावरण में विधायी कार्रवाही संचालित हो। साफ है, सत्ता और विपक्ष जब तक एक-दूसरे को विश्वास में नहीं लेंगे, बदले की भावना एवं संकीर्णताएं नहीं छोडे़ंगे तब तक पश्चिम बंगाल विधानसभा जैसी अप्रिय एवं त्रासद स्थितियां पैदा होती रहेंगी और इससे भारतीय लोकतंत्र बार-बार लहूलुहान होता रहेगा।
विधानसभा हो या फिर लोकसभा हो, व्यापक हिंसा एवं अराजकता होती रही है, लेकिन जिस तरह पश्चिम बंगाल की वर्तमान सरकार ने विधानसभा में गुंडागर्दी को संरक्षण दिया उसकी उम्मीद ममता बनर्जी से नहीं की जा सकती थी। क्योंकि यही ममता बनर्जी विपक्ष में रहते हुए वामपंथी शासन पर हिंसा करने के आरोप लगाते नहीं थकती थीं, अब वैसी ही हिंसा उनके शासन में भी हुई है। जो इन बुराइयों एवं हिंसा के खूनी खेल को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई हमारे चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। हमारा रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा, तभी लोकतंत्र मजबूत होगा। इसलिए बेहतर होगा कि जिम्मेदार राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र को शुद्ध सांसें देने की पहल करें, अपने विधायकों, कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को लोकतंत्र एवं अहिंसा का प्रशिक्षण दे। चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले संगठन द एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की चुनाव-दर-चुनाव रिपोर्ट बता रही है कि निर्वाचित सदनों का चरित्र क्यों बदल रहा है? क्यों हिंसक एवं अराजक हो रहा है? क्योंकि विधानसभाओं में दागी विधायकों की तादाद पचास प्रतिशत तक पहुंचने लगी है। ऐसे में, कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वहां मर्यादाएं एवं अनुशासन बहाल रहेगा?
इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चौराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चौराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र एवं प्रांत मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश एवं प्रांत की कल्पना अनुशासन के बिना कैसे की जा सकती है? हिंसा की संस्कृति भारत के लोकतंत्र की जड़ों में गहरी पैठती जा रही है। जब तक राजनीतिक दल बाहुबलियों और असामाजिक तत्वों को अपने से अलग नहीं करते तब तक लोगों का खून बहता ही रहेगा। बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को अहिंसा की माटी, नैतिकता का पानी और अनुशासन की ऑक्सीजन चाहिए।