दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा ताड़ के पत्ते पर लिखा गया। सबसे पहले पत्तों को छांव में सुखाया जाता था और फिर साफ करने के लिए किचन में कई दिनों तक टांग कर रखा जाता था। फिर पत्ते पर लिखने के लिए प्लेन बनाने के मकसद से उन पर दांव पर बड़े सलीके से रांगा चला जाता था। बाद में नुकीली मोटी चादरों में छिद्र करके लिखा गया। बाद में इस पर कार्बन इंक राँगा गया। इसके छिद्र में कार्बन भर गया था और इस तरह की दिखने वाली कंपनियाँ थीं। पत्ते को कीड़े से बचाएं और कार्बन ना छूटे, इसके लिए भी जनजाग किए गए।
ताड़ के पत्ते पर पांडुलिपियां जो मिलती है, वो 8वीं शताब्दी से भी पुरानी है। 1700-1800 में ब्रिटिश काल के भी अधिकतर अभिलेख ताड़ के पत्ते पर ही मिलते हैं।
पुरातत्व विभाग की मुहर लगी ताड़पत्र पर प्रकाशित एक लेख के अनुसार दैनिक जागरण में प्रकाशित पांडुलिपि ‘श्री सूत्र’ 475 साल पुराना है। इसी प्रकार सुई की नोंक से ताड़पत्र पर लिखा गया तमिल भाषा का धर्मशास्त्र करीब 600 साल पुराना है। कन्नड़ में लिखी गई बौद्ध कथाएँ विस्मित करती हैं, वहीं उनके वैकल्पिक रूप में सनातन, धर्मशास्त्र, जैन शास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद से संबंधित ताड़पत्र पर सजी पांडुलिपियों का अद्भुत संसार मौजूद है। इन प्राचीन विरासतों में सजे ताड़पत्र पर कुछ ग्रंथ लिखे गए हैं तो अचंभित और उनके बारे में समझाना और समझाना भी एक बहुत बड़ा काम है।
न्यूज18 ने झारखंड घाटशिला (घाटशिला) में 200 साल पुराना एक ऐसा ही ताड़ के पत्तों पर लिखा एक लेख प्रकाशित किया है। घाटशिला में ताड़ के पत्तों पर लिखा गया प्राचीन महाभारत (महाभारत) आज भी सुरक्षित है। ताड़ के पत्ते पर लिखी गई महाभारत की कथा मूल रूप से उड़िया भाषा (उड़िया भाषा) में है, जिसे इस पुजारी परिवार ने काफी संभाल कर रखा है। ताड़ के इन पत्रों पर उकेरी गई भाषा को आज भी आसानी से पढ़ा जा सकता है। 200 साल पुराने इस धर्मग्रंथ को पुजारी आशित पंडा के परिवार ने पांच शब्दों से अपने पास संभाल रखा है। आशित कथन हैं कि इस ग्रंथ को प्रतिदिन पूजा पाठ के बाद ही पढ़ा जाता है।
जगन्नाथ पुरी से बनाया गया था यह ग्रंथ
घाटशिला के बहरागोड़ा प्रखंड के महुलडांगरी गांव के पुजारी आशित पंडा के परिवार ने 200 साल पूर्व ताड़ के पत्ते पर लिखे महाभारत को संजो कर रखा है। आशित पंडा ने बताया कि उनके परिवार विशेष अवसरों पर लोगों को महाभारत की कथा सुनाई देती है। उन्होंने कहा कि उनके पूर्वज जगन्नाथपुरी धाम से ताड़ के पत्ते पर महाभारत ग्रंथ लिखे थे। कई प्रकार के जंगली पत्ते और सावन के रस से तैयार काली हासिल से ताड़ पत्र पर इस ग्रंथ को लिखा गया है। इसकी रचना आज 200 साल बाद भी जस की तस है। यह संपूर्ण उड़िया भाषा में है। आज भी इस पुजारी परिवार के पास ये पूरी तरह सुरक्षित है।