ताकि कन्हैया जैसे लोग आते रहे, सम्मान करना सीखिए

कमलज्योति
पता- कबीर नगर, सीनीयर एमआइजी 37
रायपुर छग

हम अपना घर स्वच्छ और बहुत सुंदर रखना चाहते हैं। घर के बाहर प्रवेश द्वार से लेकर, दरवाजों, पर्दें से लेकर कमरों में एक कोने से दूसरे कोनों तक, ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ना चाहते जो गंदा दिखे और हमें अहसास कराए कि हम गंदगी के बीच रहते हैं। साफ-सफाई हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा होने के साथ अन्य लोगों की नजर में एक वह नजरियां के समान भी है जो हमें भी एक अच्छा इंसान होने का प्रमाणपत्र देता है। घर में कचरा और गंदगी से हमारा आमना-सामना रोज होता है। जब कभी गंदगी या कचरा घर पर होता है तो हम बिना देर किए तत्काल उसे घर के बाहर फेंकना चाहते हैं। कचरा जब तक घर में होता है एक तनाव के रूप में हमारे दिल और दिमाग को कचोटता ही रहता है। यहीं वजह है कि जैसे कोई कचरा उठाने वालों की सीटी की आवाज आती है, हम अपना जरूरी कामकाज कुछ देर के लिए छोड़कर सबसे पहले एकत्रित कचरों को अपनी नाक सिकोडते हुए ठिकाना लगाने पहुंच जाते हैं। जैसे ही कचरा फेंक आते हैं, हमारी एक बड़ी चिंता दूर हो जाती हैं। एक कचरा उठाने वाले सफाईकर्मी के आने से जहां रोज हमारी चिंताए दूर होती है वहीं सफाईकर्मियों के प्रति हमारी सोच और धारणा अभी तक नहीं बदल पाई है।

ऐसे ही राजधानी रायपुर में एक सफाईकर्मी है कन्हैया। उसके सिर घर पर परिवार चलाने की जिम्मेदारी है। वह बचपन से ही शारीरिक बीमारी से पीड़ित है। जिसकी वजह से वह ठीक से बोल और चल नहीं पाता। उसके जुबान और पैर भी लड़खड़ाते है। इसके बावजूद भी उसे अपनी जिम्मेदारी का पूरा अहसास है। इसलिए वह रोजाना समय पर हर किसी के घर पहुचकर कचरा उठाता है। पहली और दूसरी लहर में कोरोना और लॉकडाउन के बीच लोग जब घरों में कैद थे तब भी कन्हैया मुहल्ले-मुहल्ले घूमा करता था। उसे भी कोरोना का डर था, लेकिन यह भी मालूम था कि वह रूका तो घरों की सफाई कैसे होगी ? कचरे कैसे उठेंगे ? लोग बदबू से परेशान हो जाएंगे। इसलिए अपनी परवाह न करते हुए वह गर्मी, बारिश सहित ठण्ड के दिनों में बस कचरा उठाता रहा और आज भी कचरा उठा रहा है।

सफाईकर्मी कन्हैया भले ही सबके घरों का कचरा उठाता है लेकिन उसे इस बात का भी बहुत मलाल है कि बड़े घरों के अधिकांश लोग रिक्शे में कचरा उडे़लते वक्त उनसे न सिर्फ बहुत दूरियां बनाते हैं, चंद बाते करना भी मुनासिब नहीं समझते। अपनी व्यथा बताते हुए वह कहता है कि हो सकता है बहुतों को लगता होगा कि कन्हैया कहीं बक्खशीश न मांग ले। पीने का पानी या फिर कुछ बचा खुचा खाने का सामान मांग लिया तो क्या करेंगे। घर का बर्तन गंदा हो जाएगा। शारीरिक रूप से सक्षम नहीं होने के बाद भी कन्हैया भले ही अपनी रोजी रोटी के लिए सफाईकर्मी का काम करता है, लेकिन घरों के कचरों को ढ़ोते-ढ़ोते जब कभी वह दिल और दिमाग में गंदगी लिए इंसान को भाप लेता और कोरोना जैसी विपरीत परिस्थितयों में सफाईकर्मी का काम त्याग देता तो हम जैसे लोग सरकार और सिस्टम पर नुक्ताचीनी कर पूरा दोष सरकार और सिस्टम पर ही मढ़ देते। हम यह कहते कि जरूर सरकार या सिस्टम ने उन्हें सताया होगा। उन्हें वेतन समय पर नहीं दिया होगा। किसी अधिकारी ने फटकार लगा दी होगी। हम अपने भीतर कभी भी नहीं झांकते और न ही प्रयास करते कि आखिर एक सफाईकर्मी ने अपना काम क्यों छोड़ दिया।

हम चाहे कितना भी बदल जाए। कितनी भी पूंजी जमा कर लें। पैसों से बस अपना लाइफ स्टाइल ही बदल सकते हैं। इसलिए ज्यादा जरूरी है कि हम अपनी सोच और विचार बदले। हमें आत्ममंथन करना चाहिए कि हमारी सोच अब तक भला क्यों नहीं बदल सकी है कि कचरों में गंदगी के साथ इंसान को भी गंदा समझने लग जाते हैं। काम भले ही किसी का छोटा या बड़ा हो सकता है। अमीरी और गरीबी का फासला हो सकता है, लेकिन इंसान का इंसान से फासला सिवाए हमें नुकसान देने के अलावा कुछ नहीं है। हमें भी इसी समाज में रहना है। कोरोना ने भी हमें यहीं सीख दी है। बीमार होकर अलग-थलग होने के समय और एक के बाद एक हुई मौतों से ऐसी अनेक घटनाएं सामने आई जब पवित्र समझे जानी वाली लाशों को भी कंधा देने वाला भी नहीं मिल रहा था। अस्पताल में मौत के बाद उनके परिजनों तक ने लाशे नहीं लीं। कोरोना के खौफ ने अनेक रिश्ते भी तोड़ दिए। ऐसे विपरीत परिस्थितियों में गंदगी साफ करने से लेकर, सेनेटाइज करने, ब्लीचिंग पाऊडर का छिड़काव करने, लाश उठाने से लेकर जलाने तक में सफाईकर्मियों का कार्य अतुल्यनीय था। वह सरकार और सिस्टम ही थे, जिन्होंने मानवीय संवेदनाओं का ख्याल बुरे वक्त में रखा। सफाईकर्मी भी शरीर की अंगो की तरह इस सरकार और सिस्टम के अंग है, और यह अंग तभी अच्छे से काम कर सकता है जब उन्हें बाहर से सम्मान रूपी उर्जा मिलती रहे।

इंसान ही इंसान के काम आ सकते हैं, वह चाहे किसी भी रूप में हो। सफाईकर्मी कन्हैया इस सिस्टम में बने रहे और घर से हमारा कचरा उठता रहे, यह तो हम चाहते है, लेकिन क्यों नहीं हम घर वाले कभी कन्हैया जैसे लोगों की सुध ले पाते… कि हमारे घर का कचरा साफ कर हमें चिंतामुक्त करने वाले कन्हैया को हमारे व्यवहार से आखिर क्यों मलाल है ? हम रिक्शे में कचरा उडे़ल कर तत्काल ही दरवाजा क्यों बंद कर देते हैं ? हम क्यों नहीं देखना या जानना चाहते कि गर्मी, बारिश और ठण्ड के दिनों में भी समय पर रिक्शा खींचता हुआ कचरा उठाने आया सफाईकर्मी कन्हैया भूखा है या प्यासा….क्या हम उसकी परिस्थितियों को उसकी नियति मानते हैं और ध्यान नहीं देना चाहते। शायद यहीं वजह है कि भोर होने के साथ घर से बिना कुछ खाए निकले सफाईकर्मी कन्हैया अपनी परवाह न कर हम और आपके घर के द्वार में रोजाना समय पर पहुंचकर कचरा उठाने पहुंच जाता है और हमारी परेशानी की सबब को अपने साथ ले जाता है। वह गर्मी के दिनों में प्यासा होकर भी हमसे पानी नहीं मांगता.. बारिश में भीग जाता है लेकिन पल भर के लिए आश्रय नहीं मांगता…ठण्डी के दिनों में भी जब कभी देर तक गर्म बिस्तर पर सोएं होते हो तो भी बाहर खुद कम्पकपाते हुए हमारा इंतजार हंसी खुशी कर लेता है। वह भूखा होता है तो भी अपना काम समय पर करके अपनी कम तनख्वाह से कभी-कभी बीस-तीस रुपए का नाश्ता जरूर कर लेता है लेकिन यकीन मानिए वह आपके बख्शीश का भूखा नहीं है, वह तो सिर्फ आपके मान-सम्मान और प्यार का भूखा है…जो उन्हें बहुत कम दरवाजों पर मिल पाता है। हमें भी चाहिए कि बुरे वक्त में साथ देने वाले और हमारी गंदगी साफ करने वालों की सुध ले ताकि कन्हैया जैसे लोग आपके घर आते रहें

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