भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक चैतन्य महापुरुषों ने देश की माटी को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हीं कीर्तिवान महान पुरुषों में भारत केसरी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम सश्रद्धा एवं गर्व से लिया जाता है। भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 में कलकत्ता में हुआ था। वे बैरिस्टर और शिक्षाविद थे तो कुशल समाज-राष्ट्र निर्माता भी थे। उन्होंने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में उद्योग और आपूर्ति मंत्री के रूप में कार्य किया। हालांकि, नेहरू-लियाकत समझौते के विरोध में मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। 1980 में यही भारतीय जनता पार्टी बन गई। वे भारत को एक हिन्दू राष्ट्र एवं स्व-संस्कृति के अनुरूप विकसित होते हुए देखना चाहते थे। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिये उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। सचमुच! वह कर्मयोद्धा कर्म करते-करते कृतकाम हो गया।
अपनेे पिता सर आशुतोष मुखर्जी का अनुसरण करते हुए डॉ. मुखर्जी ने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक, चिन्तक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी। डॉ॰ मुखर्जी ने स्वेच्छा से अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया। डॉ॰ मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक, सच्चे राष्ट्रभक्त और सिद्धान्तवादी थे। उन्होंने बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। इसी समय वे सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुए। उनका मानना था कि जो राष्ट्र अपनी संस्कृति को भुला देता है, वह राष्ट्र वास्तव में जीवित एवं जागृत राष्ट्र नहीं हो सकता। मुस्लिम लीग की राजनीति से न केवल बंगाल बल्कि समूचे देश का वातावरण दूषित हो रहा था। वहाँ साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया।
डॉ॰ मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व सामूहिक रूप से आतंकित था।
भारत का जब पहला मंत्रिमंडल पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री के नेतृत्व गठित हुआ तब महात्मा गाँधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर डॉ. मुखर्जी पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए और उन्हें उद्योग से जुड़े महत्वपूर्ण विभाग का जिम्मेदार पद सौंपा गया। संविधान सभा तथा प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री होने के नाते राजनीति जीवन में उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। लेकिन उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के कारण अन्य नेताओं के साथ हमेशा मतभेद रहा। वे हमेशा राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता देते रहे। इन्हीं मतभेदों के कारण उन्होंने अपना त्याग पत्र मन्त्रिमण्डल को दे दिया और उन्होंने एक नयी पार्टी का गठन किया और वह विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था। 21 अक्तूबर 1951 को एक सम्मेलन में जनसंघ की स्थापना हुई और इसी दिन भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ, जिसके संस्थापक अध्यक्ष, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी बने।
डॉ॰ मुखर्जी भले स्वल्प समय के लिये उद्योग मंत्री रहे। लेकिन भारत के प्रथम उद्योग मंत्री के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण पहल की एवं सूझबूझ भरे कदम उठाये। इनमें रेल इंजन बनाने के मामले में विदेशी निर्भरता खत्म करने की दृष्टि से चितरजन लोकोमोटिव कारखाने का निर्माण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उनके प्रयत्नों से भारतीय रेलवे में एक नया अध्याय जोड़ा गया था। भारतीय रेलवे रेल इंजन निर्माण और रखरखाव में आत्मनिर्भर हो गया। डॉ. मुखर्जी के ‘सपनों की परियोजना’ न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी इंजन बनाने में सिद्धहस्त और नामदार साबित हुई। भारत कई सदियों से मुगलों व ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन था। सदियों की परतंत्रता के कारण चतुर्दिक ‘विकास की अवहेलना’ हुई थी। भारतीय उद्योग-धंधों के शिथिल पड़ चुके आधारभूत ढांचे को उन्होंने नवऊर्जा दी।
डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आजम) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ॰ मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। डॉ. मुखर्जी ने यह नारा बुलंद किया कि ‘एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे।’ प. प्रेमनाथ डोगरा की अगुवाई में प्रजा परिषद् के रूप में एक राष्ट्रवादी आंदोलन जम्मू-कश्मीर में आंधी की तरह छा गया। शेखशाही ने प्रदर्शनकारियों को खूब यातनाएं दी। इस पर मुखर्जी ने जम्मू जाने का निर्णय लिया। उनके परमिट के आवेदन को रद्द कर दिया गया। जिसके बाद परमिट का नियम तोड़ते हुए उन्होंने हजारों प्रदर्शनकारियों के साथ 11 मई 1953 को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने का निर्णय किया। उन्हें जम्मू में घुसते ही गिरफ्तार कर लिया गया। उनका स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद उनके निजी डॉक्टर को उनके साथ नहीं आने दिया गया। 23 जून 1953 को कानूनी हिरासत में ही रहस्यात्मक ढंग से कश्मीर में उनकी मृत्यु हो गई। उनके महाबलिदान ने हर भारतीय में प्रेरणा का ऐसा बीज बोया जो 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 के निष्क्रिय होने तथा अनुच्छेद 35-अ के हटने के साथ फलीभूत हुआ। उन्हीं के अथक परिश्रम व अतुलनीय बलिदान के कारण अंततः भारत देश में एक विधान, एक निशान एवं एक प्रधान का शासन लागू हुआ। भारत की एकता और अखण्डता को मजबूती देने एवं अखण्ड भारत के सपने को आकार देने वाले राष्ट्रवाद के सच्चे महानायक के रूप में डॉ. मुखर्जी का योगदान एवं बलिदान अविस्मरणीय रहेगा।