जीवन की रक्षा के लिये पृथ्वी संरक्षण जरूरी

-ललित गर्ग-

पृथ्वी दिवस पूरे विश्व में 22 अप्रैल को मनाया जाता है। इस वर्ष पृथ्वी दिवस की थीम ‘इन्वेस्ट इन अवर प्लैनेट’ है, जो हमें हरित समृद्धि से समृद्ध जीवन बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह थीम संदेश देती है कि हमारे स्वास्थ्य, हमारे परिवारों, हमारी आजीविका और हमारी धरती को एक साथ संरक्षित करने का समय आ गया है। पृथ्वी दिवस आधुनिक पर्यावरण आंदोलन की वर्षगांठ का प्रतीक है, जो पहली बार सन् 1970 में मनाया गया था। इसका उद्देश्य लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील एवं पृथ्वी के संरक्षण के लिये जागरूक करना है। पिछले कुछ समय से कोरोना महामारी एवं महासंकट ने न केवल इंसानों के जीवन को खतरे में डाला है बल्कि पृथ्वी, प्रकृति एवं पर्यावरण पर भी उसके घातक असर डाला है। दुनिया में पृथ्वी के विनाश, प्रकृति प्रदूषण एवं कोरोना के जैविक संकट को लेकर काफी चर्चा हो रही है।
 
आज विश्व भर में हर जगह प्रकृति का दोहन एवं शोषण जारी है। जिसके कारण पृथ्वी पर अक्सर उत्तरी ध्रूव की ठोस बर्फ का कई किलोमीटर तक पिघलना, सूर्य की पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत में छेद होना, भयंकर तूफान, सुनामी और भी कई प्राकृतिक आपदाओं का होना आदि ज्वलंत समस्याएं विकराल होती जा रही है, जिसके लिए मनुष्य ही जिम्मेदार हैं। ग्लोबल वार्मिग के रूप में जो आज हमारे सामने हैं। ये आपदाएँ पृथ्वी पर ऐसे ही होती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। जीव-जन्तु अंधे हो जाएंगे। लोगों की त्वचा झुलसने लगेगी और कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ जाएगी। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाके चपेट में आ जाएंगे। कोरोना महामारी जैसी व्याधियां रह-रहकर जीवन संकट का कारण बनती रहेगी।
पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति उपेक्षा का ही परिणाम है कि हमारे द्वारा कहीं फैक्ट्रियों का गन्दा जल हमारे पीने के पानी में मिलाया जा रहा है तो कहीं गाड़ियों से निकलता धुआं हमारे जीवन में जहर घोल रहा है और घूम फिर कर यह हमारी पृथ्वी को दूषित बनाता है। जिस पृथ्वी को हम माँ का दर्जा देते हैं उसे हम खुद अपने ही हाथों दूषित करने में कैसे लगे रहते हैं? आज जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। अगर पृथ्वी के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाए तो मानव जीवन कैसे सुरक्षित एवं संरक्षित रहेगा? पृथ्वी है तो सारे तत्व हैं, इसलिये पृथ्वी अनमोल तत्व है। इसी पर आकाश है, जल, अग्नि, और हवा है। इन सबके मेल से प्रकृति की संरचना सुन्दर एवं जीवनमय होती है। अपने−अपने स्वार्थ के लिए पृथ्वी पर अत्याचार रोकना होगा और कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर ध्यान केंद्रित करना होगा। अतिशयोक्तिपूर्ण ढं़ग से औद्योगिक क्रांति पर नियंत्रण करना होगा, क्योंकि उन्हीं के कारण कार्बन उत्सर्जन और दूसरी तरह के प्रदूषण में बढ़ोतरी हुई है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कई प्रजाति के जीव-जंतु, प्राकृतिक स्रोत एवं वनस्पति विलुप्त हो रहे हैं, जिससे पृथ्वी असंतुलित हो रही है। विलुप्त होते जीव-जंतु और वनस्पति की रक्षा के लिये विश्व-समुदाय को जागरूक करने के लिये ही इस दिवस को मनाया जाता है। आज चिन्तन का विषय न तो रूस-यूक्रेन युद्ध है और न मानव अधिकार, न कोई विश्व की राजनैतिक घटना और न ही किसी देश की रक्षा का मामला है। चिन्तन एवं चिन्ता का एक ही मामला है लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही गर्मी, सिकुड़ रहे जलस्रोत, विनाश की ओर धकेली जा रही पृथ्वी एवं प्रकृति के विनाश के प्रयास। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन- ये सब पृथ्वी एवं पृथ्वीवासियों के लिए सबसे बडे़ खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना ही विश्व पृथ्वी दिवस का ध्येय है। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है, जमीन छोटी पड़ रही है। हर चीज की उपलब्धता कम हो रही है। आक्सीजन की कमी हो रही है। साथ ही साथ हमारा सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पृथ्वी और उसके पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये एक गंभीर खतरा बन कर प्रस्तुत हो रहा हैं।
जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से पृथ्वी और प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो पृथ्वी और प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं। अनेक शहर पानी की कमी से परेशान हैं। आप ही बताइये कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियों बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अब वही मनुष्य अपने स्वार्थ एवं सुविधावाद के लिये सही तरीके से प्रकृति का संरक्षण न कर पा रहा है और उसके कारण बार-बार प्राकृतिक आपदाएं कहर बरपा रही है। रेगिस्तान में बाढ़ की बात अजीब है, लेकिन हमने राजस्थान में अनेक शहरों में बाढ़ की विकराल स्थिति को देखा हैं। जब मनुष्य पृथ्वी का संरक्षण नहीं कर पा रहा तो पृथ्वी भी अपना गुस्सा कई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखा रही है। वह दिन दूर नहीं होगा, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा।
मनुष्यों की सुविधा के लिए बनाई गयी पॉलीथीन पृथ्वी के लिये सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है। इसके नष्ट न होने के कारण भूमि की उर्वरक क्षमता खत्म हो रही है। इनको जलाने से निकलने वाला धुआँ ओजोन परत को भी नुकसान पहुँचाता है जो ग्लोबल वार्मिग का बड़ा कारण है। देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु-पक्षी पॉलीथीन के कचरे से मर रहे हैं। इससे लोगों में कई प्रकार की बीमारियाँ फैल रही हैं। चूंकि प्रकृति मनुष्य की हर जरूरत को पूरा करती है, इसलिए यह जिम्मेदारी हरेक व्यक्ति की है कि वह प्रकृति की रक्षा के लिए अपनी ओर से भी कुछ प्रयास करे। हमें पानी का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए और पानी की अधिक से अधिक बचत करनी चाहिए। हमें वर्षा के जल को पुनः उपयोग में लाने वाली प्रणाली को विकसित करना होगा। हमें बिजली की बर्बादी को भी रोकना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं है जब हम अंधेरे में ही अपना जीवन-यापन करने को मजबूर हो जायेेंगे। हमें कागज के उपयोग को सीमित करना होगा, क्योंकि कागज पेड़ों की लकड़ी से बनता है जिसके लिए हमें बड़ी संख्या में पेड़ काटने पड़ते हैं। आजकल भूमि भी जहरीली होती जा रही है जिससे उसमें उगने वाली वनस्पतियों में विषाक्तता बढ़ती जा रही है।
हमारी सुविधावादी जीवनशैली से निकलने वाली विषैली गैसों के एक ”अणु“ में ओजोन के लाख अणुओं को नष्ट करने की क्षमता है। कैसे रोकेंगे कार्बन डाईआक्साइड और जहरीली मिथेन गैस के उर्त्सजन को। गरमी के मौसम में पहाड़ी क्षेत्रों में जंगल धधक उठते हैं। उत्तराखंड के जंगल जलते रहे हैं। सवाल है कि जब ऐसी घटनाओं से हम हर साल दो-चार होते हैं तो भविष्य के लिए कोई सबक क्यों नहीं लेते? पिछले कुछ वर्षों से बार-बार सूखे का सामना कर रहे महाराष्ट्र के विदर्भ और उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में पीने के पानी की समस्या बढ़ गई है। इन इलाकों के कई जलाशयों में पानी का स्तर क्षमता का 10 फीसदी ही रह गया है, जिससे कुछ फसलें संकटग्रस्त हो गई हैं। आवश्यक है-मानव स्वभाव का प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित हो। सहज रिश्ता कायम हो। जीवन शैली में बदलाव आये। हर क्षेत्र में संयम की सीमा बने। हमारे दिमागों में भी जो स्वार्थ एवं सुविधावाद का शैतान बैठा हुआ है, उस पर अंकुश लगे। सुख एवं सुविधावाद के प्रदूषण के अणु कितने विनाशकारी होते हैं, सहज ही विनाश का रूप ले रही पृथ्वी की विनाशलीला को देखकर कहा जा सकता है। प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अंत दिखाई दे रहा है।

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