गृह-शांति के लिये आतंक से लड़ाई का सन्देश

– ललित गर्ग –

जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के नेता यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा उन सभी अलगाववादी नेताओं और आतंकियों के लिए कड़ा संदेश है जो राष्ट्र विरोधी गतिविधियों, हिंसा एवं आतंक फैलाने एवं राष्ट्रीय जीवन को अस्त-व्यस्त करने में लगे हैं। यासीन मलिक को यह सजा आतंकवाद फैलाने के लिए पैसे जुटाने और देने के मामले में मिली है। उस पर भारतीय वायुसेना के चार जवानों की हत्या, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण और कश्मीरी पंडितों की हत्या जैसे संगीन आरोपों में भी मामले चल रहे हैं। यासीन मलिक ने काफी पहले ही अपने गुनाह कबूल कर लिए थे। विडम्बना देेखिये कि जेल से बाहर आकर यासीन मलिक ने खुद को गांधीवादी कहना शुरू कर दिया। हैरानी की बात यह रही कि कश्मीर से लेकर दिल्ली तक गांधी के नाम पर राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले तथाकथित राजनीतिक लोग उसे सचमुच गांधीवादी बताने में जुट गए। ऐसी शख्सियतंे तो थोक के भाव बिखरी पड़ी हैं, जो स्वांग राष्ट्रनेता होने का करते हैं लेकिन उनकी हरकतें राष्ट्र तोड़क होती है। हर दिखते समर्पण की पीठ पर स्वार्थ चढ़ा हुआ है। इसी प्रकार हर अभिव्यक्ति में कहीं न कहीं स्वार्थ है, अराष्ट्रीयता है, किसी न किसी को नुकसान पहुंचाने एवं राष्ट्र को आहत करने की ओछी मनोवृत्ति है।
आखिरकार एनआइए की एक अदालत ने आतंकी यासीन मलिक को आतंक से जुड़े विभिन्न मामलों में दोषी करार देते हुए उम्र कैद की सजा सुना दी, लेकिन बड़ा प्रश्न है कि ऐसे गंभीर अपराधों एवं राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में जुड़े लोगों को सजा में क्यों इतना विलम्ब होता है? मलिक को सजा देने में जरूरत से ज्यादा देरी हुई है, वह न्याय व्यवस्था पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है। ये सवाल आतंकवाद से लड़ने में हमारी प्रतिबद्धता की कमजोरी ही बयान करते हैं। इन्हीं कमजोरियों के कारण देश में आतंकवाद पनपता रहा है। यासीन मलिक ने जैसे एनआइए अदालत के समक्ष आतंकी फंडिंग के मामले में अपने पर लगे आरोपों को स्वीकार किया, वैसे ही एक समय उसने यह माना था कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एरिया कमांडर के रूप में उसने वायु सेना के चार जवानों को मारा था और वीपी सिंह सरकार के समय गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण भी किया था। इन संगीन अपराधों के बावजूद वह कुछ समय ही जेल में रहा। उसे राजनीतिक संरक्षण का ही परिणाम है कि उसके आतंकवादी हौसले बुलन्द रहे।
यासीन मलिक जैसी अराजक, आतंकवादी एवं राष्ट्र-विरोधी शक्तियों को राजनीतिक संरक्षण एवं समर्थन देने वाले लोग भी राष्ट्र के गुनाहगार है, ऐसे लोग जानते नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। उससे क्या नफा-नुकसान हो रहा है या हो सकता है। ऐसे लोग राजनीति में हैं, सत्ता में हैं, सम्प्रदायांे में हैं, पत्रकारिता में हैं, लोकसभा में हैं, विधानसभाओं में है, गलियों और मौहल्लों में तो भरे पड़े हैं। आये दिन ऐसे लोग, विषवमन करते हैं, प्रहार करते रहते हैं, राष्ट्रीयता को आहत करते है, चरित्र-हनन् करते रहते हैं, सद्भावना और शांति को भंग करते रहते हैं। उन्हंे राष्ट्रीयता, भाईचारे और एकता से कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे घाव कर देते हैं जो हथियार भी नहीं करते। किसी भी टूट, गिरावट, दंगों व युद्धों तक की शुरूआत ऐसी ही बातों से होती है। आजादी के पचहतर वर्षों में जम्मू-कश्मीर या अन्य प्रांतों में अशांति, आतंक एवं हिंसा का कारण ऐसे ही लोग रहे हैं। व्यक्ति का चरित्र देश का चरित्र है। जब चरित्र ही बुराइयों की सीढ़िया चढ़ने लग जाये तो भला कौन निष्ठा, समर्पण एवं ईमानदारी से देश का नया भविष्य गढ़ सकता है और कैसे लोकतंत्र एवं राजनीतिक मूल्यों के आदर्शों की ऊंचाइयां सुरक्षित रह सकती है?
सिर्फ सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा ने राष्ट्र की बुनियाद को खोखला कर दिया है। न जिन्दगी सुरक्षित रही और न राष्ट्रीय मूल्यों की विरासत। हिंसा, भय, आतंक, शोषण, अन्याय, अनीति जैसे घृणित कर्मों ने साबित कर दिया कि राजनीतिक स्वार्थों के मैदान में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता से ज्यादा राष्ट्र तोड़क शक्तियां महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि जब किन्ही अज्ञात कारणों से 1994 में यासीन मलिक जेल से बाहर आया तो जेल से बाहर आकर उसने खुद को गांधीवादी कहना शुरू कर दिया। हैरानी की बात यह रही कि कई प्रभावशाली राजनीतिक लोग एवं राजनीतिक दल उसे सचमुच गांधीवादी बताने में जुट गए। इनमें सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ सिविल सोसायटी के भी लोग थे और नेता भी। उसे न केवल विभिन्न मंचों पर शांति के मसीहा के रूप में आमंत्रित किया जाने लगा, बल्कि युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत भी कहा जाने लगा। यह सब काम खुद को सेक्युलर, लिबरल और मानवाधिकारवादी कहने वाले लोग यह जानते हुए भी बिना किसी शर्म-संकोच कर रहे थे कि यासीन मलिक ने कश्मीर को आतंक की आग में झोंकने का काम किया और उसके कारण कश्मीरी हिंदुओं का वहां रहना दूभर हो गया।
भारत में एक पाकिस्तान भी बसता है, जो राजनीति में, पत्रकारिता में है, धर्म-संगठनों में है, सत्ता में है, वह पाकिस्तान की जबान में ही सोचता है और वैसे ही देश की एकता एवं अखण्डता को तार-तार करने के लिये उतावला रहता है। हर तरह की आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने के बावजूद यासीन मलिक का जिस तरह महिमामंडन किया गया, उसका परिणाम यह हुआ कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भी उस पर मेहरबान हो गए। वे उससे मेल-मुलाकात करने लगे। उसके अतीत की अनदेखी कर उसे पासपोर्ट दे दिया गया और पता नहीं किसकी आर्थिक मदद से वह अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान की यात्रा करने लगा। इससे एक ओर जहां कश्मीर में सक्रिय आतंकियों को बल मिलने लगा, वहीं आतंकवाद से लड़ने में भारत का संकल्प भी भोंथरा होने लगा। भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित और पूर्व क्रिकेटर शाहिद अफरीदी जैसे लोग मलिक के समर्थन में उतर आए हैं, लेकिन उस समर्थन से क्या होगा। भारत अब पहले वाला भारत नहीं है, यहां राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता को बलशाली बनाने वाली सरकार का शासन है। मलिक जैसी अराजक एवं आतंकी शक्तियां इसी सरकार के कारण अपने मनसूंबों में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। मलिक को सजा के बाद पाकिस्तान को भी यह समझना चाहिए कि वह भारत के खिलाफ जिन लोगों का इस्तेमाल करेगा, उनसे कानून के दायरे में ऐसे ही निपटा जाएगा।
कश्मीर में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और उसके नेता यासीन मलिक की अलगाववादी गतिविधियां उग्र रही है। वह पाकिस्तान के इशारे पर काम करता रहा। इसके लिए उसे वहां से पैसा व अन्य मदद मिलती रही, जो आज भी जारी है। खुद भी हिंसा के बल पर उगाही करता रहा, कुछ साल पहले कश्मीरी छात्रों को पाकिस्तान के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिला दिलाने के नाम पर पैसा वसूलने के मामले का खुलासा भी हुआ था। इस पैसे का इस्तेमाल घाटी में आतंकी गतिविधियोें, पथराव और दूसरी वारदातों को अंजाम देने के लिए और नौजवानों को आतंकी संगठनों में भर्ती करने जैसे कामों में इस्तेमाल होता रहा है। उसका खमियाजा वहां के बेगुनाह लोगों को उठाना पड़ा है। पिछले साढ़े तीन दशक में हजारों लोग हिंसा का शिकार हुए। लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करने को मजबूर होना पड़ा। नौजवानों का भविष्य चौपट हो गया। सबसे दुखद तो यह कि नौजवान पीढ़ी को आतंकी संगठनों में भर्ती होने के लिए मजबूर किया गया। मलिक एवं उसके अलगाववादी संगठनों को लेकर पूर्व सरकारों का उदार रुख भी समस्या का बड़ा कारण रहा। अगर अलगाववादी संगठनों पर पहले ही नकेल कसने की हिम्मत दिखाई होती तो शायद हालात इतने नहीं बिगड़ते। यासीन मलिक को सजा से यह भी साफ हो गया है कि अगर पुलिस और जांच एजेंसियां ईमानदारी एवं पारदर्शिता से काम करें, पर्याप्त सबूत जुटा कर अदालत के समक्ष रखें और ऐसे मामलों में जल्द सुनवाई हो तो आतंकवाद में लिप्त लोगों को सीखचों के पीछे पहुंचाने में देर नहीं लगती। वरना अक्सर यह देखा गया है कि सबूतों के अभाव में आतंकी छूट जाते हैं। यासीन मलिक को सजा पर पाकिस्तान के भीतर बौखलाहट पैदा होना भी स्वाभाविक है।

Keep Up to Date with the Most Important News

By pressing the Subscribe button, you confirm that you have read and are agreeing to our Privacy Policy and Terms of Use